गुरुवार, 14 मार्च 2013
सरकार के तमाम दावे के बाद मध्य प्रदेश में आदिवासी बदहाल
भोपाल। प्रदेश के बजट का करीब 22 प्रतिशत बजट आदिवासियों के नाम पर किया जाने लगा है, लेकिन बावजूद इसके शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, खाद्यान्न, भूमि सहित हर क्षेत्र में आदिवासियों का पिछड़ापन दूर नही हो सका।
मध्य प्रदेश में तमाम लुभावने दावों के बावजूद आदिवासियों की स्थिति जस की तस है। आलम यह है कि बीते आठ साल में 217 अरब से ज्यादा की राशि आदिवासियों पर खर्च की गर्ई, फिर भी कहीं इलाज के अभाव में आदिवासी दम तोड़ रहे हैं तो कहीं जमीन से बेदखल होने की नौबत है। हर बार चुनाव के पहले लुभावने वादे जरूर होते हैं, लेकिन जीत के बाद कोई दल पलटकर नहीं देखता। राज्य सरकार के विभिन्न सरकारी विभागों में आदिवासियों के लिए सौ से ज्यादा कल्याणकारी योजनाएं चलती हैं, लेकिन आदिवासी उत्थान की रफ्तार सुस्त है। विभिन्न विभागों के तहत आदिवासी उपयोजना में वर्ष 2004-05 से 2011-12 तक करीब 239 अरब रूपए का बजट आदिवासियों के लिए मंजूर हुआ, जिसमें से दिसंबर-2011 तक 199 अरब से ज्यादा खर्च कर दिए गए।
वर्ष-2012-13 में आदिवासी उपयोजना के तहत अनुमानत: करीब 35 अरब का बजट है, जिसमें से करीब 18 अरब खर्च होने का अनुमान है। इस तरह करीब करीब 217 अरब रूपए आठ सालों में खर्च करने के बावजूद आदिवासियों की हालत सुधर नहीं सकी है। वर्ष-2004-05 में करीब 15 अरब का बजट विभिन्न विभागों के तहत आदिवासियों के लिए था, जिसमें से 12 अरब से ज्यादा खर्च किया गया। यह बजट वर्ष-2011-12 तक बढ़ते-बढ़ते साढ़े 45 अरब से भी ज्यादा हो गया। यदि केवल आदिम जातिकल्याण विभाग के बजट को देखे, तो चार साल में 81 अरब 91 करोड़ 64 लाख आठ हजार रूपए का बजट मिला, जिसमें से 64 अरब 16 करोड़ चार लाख 76 हजार रूपए खर्च किए गए। फिर भी विभाग को संतोषजनक नतीजे नहीं मिले।
योजनाओं का ढेर
आदिवासियों के लिए मुख्य रूप से आदिवासियों के सरकारी स्कूल, आवासीय छात्रावास, छात्रवृत्ति, रोजगार प्रशिक्षण, कपिलधारा योजना में सबसिडी, किसानों को स्वरोजगार अनुदान, रानी दुर्गावती स्वरोजगार योजना में उद्योग के लिए अनुदान, अधोसंरचना विकास और पुनर्वास योजना चल रही हैं।
जमीन से बेदखल होने की नौबत-
आदिवासियों की स्थिति जमीन के मामले में भी खराब है। वनाधिकार अधिनियम-2006 के तहत वनभूमि के पट्टे मिलने के दावे हकीकत के सामने खोखले नजर आते हैं। अगस्त-2012 तक प्रदेश में 4 लाख 60 हजार 947 आवेदन में से अनुसूचित जनजाति के लोगों को केवल 1 लाख 59 हजार 172 पट्टे दिए गए थे। वहीं 2 लाख 78 हजार 758 दावे खारिज कर दिए गए। करीब 4 लाख 50 हजार 619 दावे व्यक्तिगत थे, जबकि दस हजार 328 सामुदायिक दावे थे।
आदिवासियों की मुख्य समस्याएं-
- सरकारी योजनाओं का लाभ न मिल पाना
- मनरेगा में पूरी मजदूरी नहीं मिलना
- वनभूमि के पट्टे से बेदखल करना
- चिकित्सीय सुविधाएं नहीं मिल पाना
- अशिक्षा: स्कूलों में शिक्षा-शिक्षक नहीं मिलना
- रोजगार-स्वरोजगार की व्यवस्था नहीं होना
- समाज में दोयम दर्जे का व्यवहार होना
- कुपोषण-घेंगा रोग सहित अन्य बीमारियां
आदिवासियों के नाम से अरबों रूपए आ रहे हैं, लेकिन सरकारी तंत्र उसका गबन कर रहा है। आदिवासियों की मूल जरूरतें पूरी करने की बजाए छीना जा रहा है।
माधुरी बेन, जागृत आदिवासी दलित संगठन मप्र
आदिवासियों के लिए विशेष योजनाएं और विशेष कानून हैं, लेकिन उसी के नाम पर उनका शोषण हो रहा है। उनको जमीन से बेदखल कर रहे। योजनाओं में आदिवासियों से धोखा करने वालों पर दंडात्मक कार्रवाई होना चाहिए।
- श्रीकांत, नर्मदा बचाओ आंदोलन
कोशिश जारी
आदिवासियों के उत्थान के लिए काफी काम हो रहा है, लेकिन यह भी सच है कि अभी भी अपेक्षानुसार सुधार नहीं हो सका है। आदिवासी बहुल क्षेत्र दूसरे क्षेत्रों से बहुत ज्यादा पिछड़े हैं। इस खाई को भरने की कोशिश कर रहे हैं।
आशीष उपाध्याय, आयुक्त, आदिवासी कल्याण विभाग मप्र
हर क्षेत्र में पिछड़े
आदिवासी संबंधित योजनाएं ठेकेदारों और अधिकारियों का घर भर रही हैं। आजादी से अब तक तमाम योजनाओं के बावजूद आदिवासी हर क्षेत्र में पिछड़ा है। जिन योजनाओं में आदिवासी ने कर्ज लिया, वहां वह और बर्बाद हो गया।
अनुराग मोदी, श्रमिक आदिवासी संगठन
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