मंगलवार, 25 अक्तूबर 2011
कब धुलेगा कुपोषण का कलंक
मध्य प्रदेश के माथे पर कुपोषण एक ऐसा कलंक बन गया है जिसे मिटाने के लिए जितना सरकारी प्रयास हो रहा है वह उतना ही बढ़ रहा है। वर्तमान वित्तीय वर्ष में प्रदेश सरकार ने महिला एवं बाल विकास विभाग को 2209 करोड़ 49 लाख रुपये का बजट मुहैया कराया है लेकिन खंडवा जिले के खालवा में जिस तेजी से कुपोषण फैला रहा है उससे सरकार के सारे प्रयास बेमानी साबित हो रहे हैं। खालवा में स्थिति नियंत्रण में है,जबकि हकीकत यह है कि कुपोषण के आंकड़ों से सरकारी मशीनरी सकते में है। जिले में कुपोषण के शिकार लगभग नब्बे बच्चे अस्पताल में जीवन और मौत के बीच झूल रहे हैं। कुछ ऐसे ही हालात प्रदेश के अन्य जिलों में भी हैं। सरकार के तमाम प्रयासों के बाद भी वर्तमान में राज्य में नवजात शिशुओं से लेकर पांच वर्ष तक की आयु के 60 प्रतिशत बच्चे कुपोषण की समस्या से ग्रस्त होने के कारण कमज़ोर और बीमार हैं। इनमें से कई बच्चों की असमय मौत हो जाती है।
सरकारी रिपोर्ट के अनुसार मधयप्रदेश के आदिवासी बहुल जिले में कुपोषण की स्थिति सबसे ज्यादा चिंताजनक पाई गई है, जिनमें राज्य के झाबुआ, अलीराजपुर, मंडला, सीधी, धार और अनूपपुर जिलों में अतिकुपोषित बच्चों की संख्या 7 से 15 प्रतिशत तक रही। हालांकि कुपोषण की स्थिति का पता लगाने के लिए बच्चों के वजन मापने के इस अभियान में कई तरह की खामियां और गड़बडियां भी सामने आईं, जिसके कारण प्रदेश में कुपोषण के शिकार बच्चों की वास्ततिक स्थिति सामने नहीं आ सकी। ऐसे में इन नतीजों पर पूरी तरह से भरोसा तो नहीं किया जा सकता, किन्तु यह राज्य सरकार और इसके कर्ता-धार्ताओं के लिए आंख खोलने वाले हैं। गड़बडियों में वजन मापने की मशीनों की कमी के कारण 30 हजार से ज्यादा आंगनबाड़ी केंद्रों में दूसरे स्थानों से मशीने लाई गईं और कई मशीनें बिगड़ जाने से सुदूर ग्रामीण अंचलों में उन्हें सुधारा भी नहीं गया और मनमाने तौर पर बच्चों का वजन लिया गया। फिर भी इन ताजे परिणामों से भी यह सिध्द होता है कि मधयप्रदेश में बच्चों में कुपोषण की स्थिति काफी खतरनाक स्थिति में हैं।
कुपोषण को लेकर प्रदेश सरकार और प्रशासनिक अमला कितना गंभीर है इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि प्रदेश में समेकित बाल विकास सेवाओं के लिए पूरे राज्य में जहां एक लाख 46 हजार आंगनबाड़ी केंद्रों की जरूरत है, वहां राज्य में केवल 70 हजार आंगनबाड़ी केंद्र ही संचालित हो रहे हैं, जो कि राज्य के मात्र 76 फीसदी बच्चों को ही अपनी सेवाएं दे पा रही हैं, जबकि एक चौथाई बच्चे अभी भी बाल कल्याण सेवाओं से पूरी तरह से वंचित हैं। मधयप्रदेश की केवल 13 हजार आदिवासी बस्तियों में समेकित बाल विकास सेवा का लाभ पहुंच रहा है, लेकिन तकरीबन 4200 आदिवासी बस्तियां इस सेवा से आज भी वंचित हैं।
मध्यप्रदेश के माथे पर लगे चुके कुपोषण के कलंक को मिटाने के लिए प्रदेश सरकार जहां पानी की तरह पैसा बहा रही है वहीं आज भी मप्र में कुपोषण के नाम पर कुपोषित का नहीं, बल्कि किसी और का पोषण हो रहा है। हाल ही में प्रदेश की भाजपा सरकार ने करोड़ों रुपए खर्च कर प्रदेश में कुपोषण के खिलाफ एक मिशन के तौर पर जिस तरह से 'अटल बाल अरोज्य एवं पोषण मिशनÓ की शुरुआत की है उससे तो यही लगता है कि यह 'पोषण मिशनÓ भी प्रदेश से कुपोषितों का पोषण करने के बजाय कहीं पोषितों के पोषण का जरिया न बन जाए। मिशन की शुरुआत जिस तरह से गरीब व भूखे को धयान में रखकर इसका नामकरण पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के नाम पर किया गया और शुभारंभ कार्यक्रम के दौरान प्रदेश का कोई कुपोषित बच्चों की नहीं, बल्कि प्रदेश के माननीयों और नौकरशाहों की टोली दिखी। ऐसे में सवाल यह उठता है कि सरकार यदि मिशन के शुभारंभ के अवसर पर स्वपोषितों के बजाय कुपोषितों को बुलाकर उनसे रूबरू होती तो शायद यह मिशन अपने मकसद में कामयाब होने के ज्यादा करीब रहता।
बच्चों के अधिकारों की वकालत करने वाली अंतरराष्ट्रीय संस्था चाइल्ड राइट्स एंड यू (क्राई) ने मध्य प्रदेश के दस जिलों में किए गए सर्वे के आधार पर दावा किया है कि यहां कुपोषित बच्चों की संख्या 60 फीसदी से ज्यादा है। वहीं महिला बाल विकास मंत्री रंजना बघेल की माने तो वर्ष 2009-10 में 69 लाख 69 हजार से अधिक बच्चों का परीक्षण किया गया, जिनमें से 46 लाख 34 हजार से ज्यादा बच्चे सामान्य पाए गए, वहीं 23 लाख 34 हजार बच्चे कुपोषित पाए गए। कुपोषित कुल 23 लाख 24 हजार बच्चों में से एक लाख 37 हजार बच्चे ऐसे हैं जो गंभीर स्थिति यानी तीसरी व चौथी श्रेणी के हैं। उन्होंने बताया कि कुपोषण को रोकने के लिए पूरक पोषण आहार पर पिछले वित्त वर्ष में 51,166 लाख रुपए खर्च किए गए। वहीं क्राईका कहना है कि पूरे राज्य में आदिवासी समुदाय के 74 फीसदी बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। चौंकाने वाला तथ्य तो यह है कि राजधानी भोपाल की पुनर्वास कॉलोनियों के 49 फीसदी बच्चे कुपोषण के शिकार पाए गए हैं। संस्था के प्रदेश में इस सर्वे को पूरा करने वाले विकास संवाद के प्रशांत दुबे का कहना है कि सिर्फ रीवा जिले में अकेले 83 फीसदी बच्चे कुपोषण के शिकार पाए गए हैं। संस्था द्वारा राजधानी भोपाल की पुनर्वास कॉलोनियों में कराए गए शोध के आंकड़े और भी ज्यादा चौंकाने वाले मिले हैं। भोपाल के लगभग 11 रिसेटमेंट कॉलोनियों से इक_ा किए गए आंकड़ों से पता चला है कि यहां के 49 फीसदी बच्चे कुपोषण से ग्रसित हैं। जबकि इन्हीं इलाकों के 20 फीसदी बच्चे गंभीर कुपोषण के शिकार पाए गए हैं।
दिल्ली में क्राई की निदेशक योगिता वर्मा का कहना है कि भले राज्य के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान राज्य के सभी बच्चों के मामा होने का दावा करें लेकिन वे अभी भी राज्य के मासूम बच्चों को कुपोषण से निजात दिलाने में नाकाम साबित हुए हैं। राज्य में बच्चों के बेहतर देखभाल के लिए जरूरी आंगनबाड़ी का भी पूरी तरह इंतजाम नहीं करा पाए हैं। अभी भी पूरे मध्य प्रदेश में लगभग 47 प्रतिशत आंगनबाडिय़ों की कमी हैं। क्राई के एक अन्य सदस्य आरबी पाल का कहना है कि राज्य में रहने वाले आदिवासी समुदाय के लगभग 74 फीसदी बच्चे भी कुपोषण के शिकार पाए गए हैं।
मध्यप्रदेश के बच्चे देशभर में वजन में सबसे कम और शारीरिक रूप से भी सबसे कमजोर हैं। केंद्र सरकार द्वारा एनीमिया और कुपोषण पर जारी आंकड़ों से यह शर्मनाक खुलासा हुआ है। प्रदेश के 60 प्रतिशत बच्चे अंडरवेट (सामान्य से कम वजन) बताए गए हैं। इसके बाद झारखंड 56.6 और बिहार 55.9 प्रतिशत के साथ क्रमश:दूसरे और तीसरे स्थान पर हैं।
प्रदेश सरकार द्वारा हाल में राष्ट्रीय पोषण संस्थान, हैदराबाद से कराए गए सर्वेक्षण के मुताबिक 51.77 फीसदी बच्चे कुपोषित हैं। अति कुपोषित बच्चों की संख्या 8.34 फीसदी है। यानी अभी भी प्रदेश में सात लाख से अधिक बच्चे अति कुपोषित हैं। एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार मधयप्रदेश में हर साल करीब 30 हजार बच्चे अपना पहला जन्मदिन तक नहीं मना पाते और काल के गाल में समा जाते हैं। ये वो अभागे अबोधा बच्चे हैं, जो धारती पर पैर रखने के साथ ही कुपोषण के शिकार होते हैं और जन्म के बाद पोषण आहार की कमी के चलते अकाल मृत्यु को प्राप्त होते हैं। इसी कलंक की बदौलत मध्यप्रदेश देश के उन पिछड़े राज्यों में शुमार है, जहां शिशु मृत्युदर सबसे ज्यादा है। मधयप्रदेश में शिशुमृत्यु दर 70 प्रति हजार है। गरीबी, पिछड़ेपन और अशिक्षा की मार झेल रहे मध्यप्रदेश में कुपोषण की स्थिति चिंताजनक है, जबकि प्रदेश की भाजपा सरकार इसे लेकर गंभीर नहीं है। हालांकि पिछले दिनों भारत सरकार द्वारा राज्य सरकार और केंद्र के अधिकृत प्रतिवेदनों के आधार पर जारी रिपोर्ट के बाद प्रदेश सरकार को शर्म से झुकना पड़ा और उसने स्वीकार किया कि मध्यप्रदेश में हर साल हजारों बच्चे कुपोषण के कारण बेमौत मारे जाते हैं।
पोषण आहार कार्यक्रम माफियाओं के कब्जे में
भारत सरकार के सहयोग से राज्य सरकार ने कुपोषण निवारण के लिए कई कार्यक्रम चला रखे हैं, लेकिन राज्य में पोषण आहार सप्लाई करने और उसका वितरण करने तक की पूरी प्रक्रिया माफियाओं के क़ब्ज़े में होने के कारण वास्तविक हितग्राहियों को पोषण आहार कार्यक्रम का पूरा लाभ नहीं मिल रहा है। सरकार ने इस योजना में अपनों को लाभ पहुंचाने के लिए बड़े-छोटे मा़फिया तंत्र को प्रोत्साहित किया है, लेकिन अब यह मा़फिया तंत्र सरकार के नियंत्रण से बाहर होकर अपना हित साधन में लगा हुआ है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को इन मा़फियाओं की उपस्थिति और करतूतों की भली प्रकार जानकारी है, इसीलिए उन्होंने इस कार्यक्रम को शहरी क्षेत्रों में सक्रिय मा़फियाओं से मुक्त रखने के निर्देश दिए थे। मुख्यमंत्री के स्पष्ट निर्देश थे कि भोपाल, इन्दौर, ग्वालियर, जबलपुर जैसे बड़े शहरों में एक समूह या प्रतिष्ठान को 15 से 20 आंगनवाडिय़ों में ही पोषण आहार आपूर्ति के लिए नियुक्त किया जाए। बाक़ायदा सरकारी फाइल चली और मुख्यमंत्री के इन निर्देशों पर महिला एवं बाल कल्याण विभाग की मंत्री और प्रमुख सचिव ने भी स्वीकृति की मोहर लगाई, लेकिन फाइलों में दबा यह आदेश शहरों तक नहीं पहुंचा हैं और इसलिए बड़े शहरों में सक्रिय पोषण आहार आपूर्ति करने वाले मा़फिया अभी भी खुलकर अपना खेल खेल रहे हैं और कुपोषित बच्चों तथा गऱीब माताओं के हिस्से को डकार रहे हैं।
पूरे प्रदेश में 69238 आंगनवाड़ी केंद्रों में पूरक पोषण आहार वितरण की व्यवस्था है, इनमें लगभग 50 लाख बच्चों और 10 लाख गर्भवती महिलाओं को पोषण आहार उपलब्ध कराया जाता है। इन्हें 300 से 600 कैलोरी तक का प्रोटीन पोषण आहार के रूप में दाल-दलिया या अन्य खाद्य पदार्थ के रूप में दिया जाता है, लेकिन इस कार्यक्रम में कई खामियां, गड़बडिय़ा और घपले-घोटले होते रहे हैं। मुख्यमंत्री के निर्देश पर पूरी व्यवस्था में सुधार लाने के लिए प्रदेश भर की आंगनवाडिय़ों में बच्चों और गर्भवती तथा धात्री माताओं को ताज़ा पका खाना देने के उद्देश्य से साझा चूल्हा योजना बनाई गई। मुख्यमंत्री ने योजना 15 जुलाई 2009 से शुरू करने के निर्देश दिए थे, पर योजना 1 नवम्बर से अस्तित्व में आ पाई इसके देर से शुरू होने का कारण भी दलिया मा़फिया और विभाग के कुछ अधिकारियों को माना जा रहा है।
विंध्य क्षेत्र में बच्चों की उपेक्षा
कुपोषण के कारण गऱीबी में जी रहे हज़ारों बच्चों की मौत की दर में सतना जि़ला अव्वल है। राज्य सरकार द्वारा बच्चों की सुरक्षा और सेहत के मामले में जारी किए गये कोई भी निर्देश सतना में प्रभावशील नहीं है। पिछले चार वर्षों के दौरान राज्य सरकार ने राज्य में बच्चों की सुरक्षा पर हर साल औसतन दो रुपये और स्वास्थ्य पर पंद्रह रुपये खर्च किए हैं। एक ग़ैर सहकारी संगठन द्वारा जारी किये गए सर्वेक्षण रिपोर्ट से उपरोक्त तथ्यों का खुलासा हुआ है। वर्ष 2005 से लेकर 2009 तक क्रमश: 1603, 2060, 1688 और 1856 बच्चों की मौत सतना जिले में हुई है। वहीं रीवा और सीधी जिलों में क्रमश: इसी अवधि में 1051 और 573, 1324 एवं 1070, 972 एवं 1450, 702 एवं 1122 बच्चों की मौत हुई है। मध्य प्रदेश सरकार द्वारा प्रत्येक बच्चे के स्वास्थ्य पर वर्ष 2004 से लेकर 2009 तक पंद्रह रुपया खर्च किया गया वहीं उड़ीसा राज्य द्वारा सत्रह रुपये और उत्तर प्रदेश द्वारा 60 रुपये व्यय किया गया। बाल सुरक्षा के मामले में प्रत्येक बालक पर सालाना खर्च मध्य प्रदेश में 01.94 रुपये और आंध्र प्रदेश द्वारा 27.54 रुपया किया गया। बलात्कार सहित बच्चों पर होने वाले अपराधों की संख्या भी प्रदेश में सबसे ज़्यादा है। राज्य सरकार द्वारा बाल शिक्षा पर 2004 से 2009 के मध्य प्रतिवर्ष प्रति बालक 1395 रुपये और इसी अवधि में हिमाचल प्रदेश द्वारा 4894 रुपये व्यय किए गए।
ग़ैर सहकारी संगठन संकेत डेवलपमेंट ग्रुप द्वारा जारी रिपोर्ट में वर्ष 2001 से वर्ष 2009 तक राज्य सरकार द्वारा बच्चों को लाभ पहुंचाने वाली योजनाओं पर बजट प्रावधानों का अध्ययन किया गया। इस अध्ययन रिपोर्ट के अनुसार बच्चों की शिक्षा शिशु विकास पर तुलनात्मक रूप से अधिक राशि खर्च की गई है जबकि बाल स्वास्थ्य और सुरक्षा को नजऱअंदाज़ किया गया है।
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