हमारे देश में दलित शब्द ऐसा हथियार बन गया है जो मौके की नजाकत को देखकर इस्तेमाल किया जाता है। मध्यप्रदेश में इनदिनों दो दलित चर्चा का विषय बने हुए हैं। पहला है गुना के विधायक राजिंदर सिंह सलूजा का। जिन्होंने अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित गुना सीट से विधानसभा चुनाव लडऩे की खातिर दलित वर्ग का सर्टिफिकेट बनवाया और अब विधायक बन कर शेखी बघार रहे हैं कि समाज में अपमान होने के डर से यह जाहिर नहीं करते थे कि वह दलित हैं। सिर्फ इसीलिए उन्होंने अनुसूचित जाति वर्ग को प्राप्त होने वाले लाभ लेने की चेष्टा भी कभी नहीं की। हालांकि राज्य स्तरीय छानबीन समिति ने इस तर्क को नहीं माना और पूरी पड़ताल करने के बाद पाया कि सलूजा ने अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित गुना सीट से विधानसभा चुनाव लडऩे की खातिर गलत सर्टिफिकेट दिया था। उनकी जाति अनुसूचित वर्ग में शामिल नहीं है।
वहीं दूसरा उदाहरण है देश के जानेमाने गीतकार और मप्र के 93 बैंच के आईएएस अधिकारी रमेश थेटे का। लोकायुक्त प्रकरण में अभियोजन की अनुमति मांगी जाने के आधार पर पदोन्नति से वंचित किए जाने के आरोप में आईएएस अफसर रमेश थेटे ने आत्महत्या की धमकी दी है। मुख्य सचिव अवनि वैश्य और मुख्यमंत्री के प्रमुख सचिव दीपक खांडेकर को दिए नौ पेज के आवेदन में थेटे ने कहा कि शासन को करोड़ों रुपए की हानि पहुंचाने के आरोपी आठ सवर्ण अफसरों को अभियोजन की मंजूरी लंबित होने के बावजूद पदोन्नति दी गई, लेकिन दलित होने के चलते मुझे पदोन्नति नहीं दी जा रही। वर्तमान में एनवीडीए, इंदौर में संचालक के पद पर पदस्थ थेटे ने आवेदन की प्रति राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग के अध्यक्ष पीएल पूनिया को भी भेजी है। ये दोनों उदाहरण इस बात के प्रमाण हैं कि जब अपना हित साधना होता है या फिर संकट की घड़ी आती है तभी लोगों को दलित शब्द याद आता है।
यह पहला मौक़ा नहीं है जब कोई व्यक्ति नाजायज़ तरीक़े से अपनी जाति, धर्म, रंग, इलाके को लेकर अपना बचाव करने लगे। अभी हाल ही में यूपीए सरकार ने डीएमके की ओर से मनोनीत मंत्री ए. राजा पर दूरसंचार नीलामी में भ्रष्टाचार के आरोप लगे और उन्हें तिहाड़ की हवा खानी पड़ी तो डीएमके के मुखिया एम. करूणानिधि ने दिल्ली में राजा का बचाव करते हुए कहा कि राजा पर ये आरोप इसलिए लग रहे हैं क्योंकि वे दलित हैं। बहुत पहले की बात है जब मोहम्मद अजहरूद्दीन पर मैच फि़क्सिंग के आरोप लगे थे और उन्होंने अपने बचाव में कहा थी कि अल्पसंख्यक होने के कारण उन पर यह आरोप लग रहे हैं। बाद में वे आरोप सही साबित हुए और अजहर का क्रिकेट करियर ख़त्म ही हो गया। इसके बाद इस देश में अपने ऊपर सबसे अधिक ख़र्च करने वाली आत्ममुग्धा और महत्वोन्मादी मायावती ने बात-बात में अपने आपको दलित की बेटी कहना शुरू किया और इसके एवज़ में उन्होंने अपनी तमाम करतूतों पर जान बख़्शी चाही जो गऱीबों का पेट काट-काटकर प्रतिमाएँ लगा-लगाकर मायावती कर रही थी और अपने आपको भारतीय राजनीति के इतिहास में प्रतिमायावती बना रही थी।
हम मानते हैं कि दलित समाज शोषण और उपेक्षा का शिकार रहा है जिसके अनेक कारणों में मुख्य कारण हैं उसका अशिक्षित होना। लेकिन इसके साथ ही दलित विमर्श की लिखित एवं वाचिक परंपराओं का भी तीव्र विकास हुआ है। दलित वर्ग सदैव से संघर्षशील समाज का अविभाज्य अंग रहा है। आदिकाल से आज तक दलित दशा पर यदि विचार करें तो, अनेक परिवर्तनों के बावजूद उसका मूल संघर्ष आज भी यथावत है। अगर हम दलित समाज के उत्थान में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले जननायकों के जीवन को देखें तो पाते है कि उन्होंने दलित शब्द को कभी भी हीन नहीं समझा। बल्कि इस शब्द को अपनी ताकत बनाया और समाज के पथ प्रदर्शक बनें। दलित मसीहा डॉ भीम राव अंबेडकर ने किसी नेता का वेश धारण नहीं किया, उनका पाखंड में विश्वास नहीं था। वे स्वयं उदाहरण बनकर अपने समाज के उत्थान में लगे रहे। जननेता के रूप में बाबू जगजीवन राम ने भारतीय राजनीति के शीर्ष पर रह कर दलितों को सामाजिक और राजनीतिक संघर्ष का एहसास कराया। जगजीवन राम ज्यादा ही विश्वसनीय दलित नेता के रूप में राजनीतिक क्षितिज पर चमके। वह राष्ट्रीय नेता थे। दलित समाज के साथ ही उन्होंने समूची भारतीयता को प्रभावित किया। इसी क्रम में सन् 1964 में सरकारी नौकरी से इस्तीफा देने के बाद रिपब्लिकन पार्टी, बामसेफ डीएस 4 और बहुजन समाज पार्टी तक के सफर में कांशीराम ने दलितों को एकताबद्ध कर, अत्याचारों का प्रतिरोध करने तथा उन्हें समाज में न्यायोचित स्थान बनाने के लिये जोरदार ढंग से प्रेरित किया।
सन् 1973 में स्थापित बामसेफ को बाबा साहब अंबेडकर के जन्म दिन 6 दिसम्बर को सन् 1978 में पुन: सशक्त बनाने का प्रयास किया गया। बामसेफ से कांशीराम ने दिल्ली, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश में दलित कर्मचारियों का संगठन मजबूत बनाया। सन् 1984 में बहुजन समाज पार्टी की स्थापना की गई,जो वर्तमान में उत्तर प्रदेश मेंं सत्ता में है। भीमराव अंबेडकर,जगजीवन बाबू और कांशीराम भी दलित थे लेकिन उन्होंने समाज में अपमान होने के डर से इस बात को कभी नहीं छुपाया की वे दलित हैं और ना ही समाज में दोहरी व्यवस्था से तंग आकर कभी मरने-मारने की बात कही।
भारतीय संविधान के रचयिता डॉ. भीमराव आंबेडकर के कई सपने थे। भारत जाति-मुक्त हो, फूड सरप्लस हो, औद्योगिक राष्ट्र बने, पूरी तरह शहरी हो, सदैव लोकतांत्रिक बना रहे। ये सपने जगजाहिर हैं, पर उनका एक और सपना भी था कि दलित धनवान बनें। वे हमेशा नौकरी मांगने वाले ही न बने रहें, नौकरी देने वाले भी बनें।
बात 29 अक्टूबर 1942 की है जब डॉ. आंबेडकर ने तत्कालीन गवर्नर जनरल को दलित समस्याओं से संबंधित एक ज्ञापन सौंपा। डॉ. आंबेडकर गवर्नर जनरल की एग्जेक्यूटिव काउंसिल के सदस्य थे इसलिए यह ज्ञापन पूरी तरह गोपनीय था। डॉ. आंबेडकर के लेखों और भाषणों के संग्रह के दसवें खंड में इसे पृष्ठ संख्या 404-436 पर पढ़ा जा सकता है। उक्त मेमोरेंडम में एक सेक्शन है जिसमें सीपीडब्ल्यूडी में दिए जाने वाले ठेकों का जिक्र है। डॉ. आंबेडकर के अनुसार सीपीडब्ल्यूडी द्वारा दिए गए कुल 1171 ठेकों में मात्र एक ठेका दलित को मिला है। वे दलितों को और ठेके देने की व्यवस्था की मांग करते हैं और इस बात की ओर ध्यान खींचते हैं कि हिंदू, मुसलमान और सिख ठेकेदार प्रॉफिट बना रहे हैं जबकि दलित मजदूर उनके यहां नौकरी कर रहे हैं।
वर्ष 1942 में यानी आज से 69 वर्ष पूर्व डॉ. आंबेडकर सीपीडब्लयूडी के ठेकों में दलितों की भागेदारी की मांग कर रहे थे। तब शायद कुछ ही दलित इतने पैसे वाले रहे होंगे कि ठेकेदार बनने की स्थिति में पहुंच सकें। बावजूद इन सीमाओं के, डॉ. आंबेडकर का एक प्रबल सपना था कि दलितों में मोटा पैसा बनाने वाला एक तबका जरूर पैदा हो। दुर्भाग्यवश डॉ. आंबेडकर को मानने वाले दलित उनके इस सपने को ज्यादा तवज्जो न दे सके। गैर दलित समाज ने तो इस सपने को भूल जाने में ही समझदारी समझी। अलबत्ता सुखद बात यह है कि बगैर किसी आंदोलन, बगैर किसी बड़ी मुहिम और बगैर किसी सरकारी सहयोग के आंबेडकर के सपनों की एक नई दलित पीढ़ी तैयार हो रही है। इसे दलित पूंजीवाद की संज्ञा देना गलत नहीं होगा। इसी पीढ़ी का पहला नाम है-राजेश सरैया। ये नाम टाटा, बिड़ला, अंबानी की तरह भले ही बहुचर्चित ना हो, लेकिन इनकी महत्ता किसी भी मायने में इनसे कम नहीं हैं। ये नाम उस वंचित, शोषित समाज के मेहनतकश बिरादरी के लिए गौरवान्वित करने वाला है, जिनमें हुनर तो है लेकिन उनकी पहचान एक कारीगर या दिहाड़ी मजदूर तक सीमित करके रखा गया है। जिनकी प्रतिभा को जातिगत चश्मे से नाप-तौल कर सफलता-असफलता की मुहर लगा दी गई है। लेकिन 400 मिलीयन डॉलर के मालिक के साथ देश के पहले दलित अरबपति राजेश सरैया की सफलता वर्षो पुराने उस कुंठित मानसिकता को झुठलाने के लिए काफी है।
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