शुक्रवार, 9 सितंबर 2011

ऐसे कैसे बनेगा स्वर्णिम मप्र



विनोद उपाध्याय

शिवराज सिंह चौहान ने जिस दिन मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री का पदभार ग्रहण किया उस दिन से आज तक कहते आ रहे हैं कि मैं एक बहुत ही सामान्य परिवार से हूँ और गरीब व गरीबी दोनों को मैंने बहुत ही करीब से देखा है। मैंने अपने जीवन की प्रारंभिक संघर्ष की अवधि में कभी भी यह नहीं सोचा था कि मैं मुख्यमंत्री बनूँगा। .... मैं इस गरीबी के राक्षस को जड़ से समाप्त करना चाहता हूँ और गरीबी के कारण जो सामाजिक दर्द का वातावरण बना है उसको भी दूर करना चाहता हूँ। यही नहीं वे अपने ब्लाग blog.shivrajsinghchouhan.in में भी लिखते हैं कि ऐसे गरीबी के माहौल में, कोई भी परिवार एक लड़की को बोझ न समझे इसलिए मैने लाड़ली लक्ष्मी योजना बनायीं। गरीबी पढ़ाई में बाधा न बने और गरीबी के कारण कोई मृत्यु न हो, खुशहाली का वातावरण हो ऐसे स्वर्णिम मध्यप्रदेश की मेरी कल्पना है और विश्वास दिलाना चाहता हूं कि स्वर्णिम मध्यप्रदेश का सपना एक दिन अवश्य साकार होगा।
करीब सात साल से मप्र की सत्ता की कूंजी अपने हाथ में लेकर शिवराज सिंह चौहान ने न जाने कितने जतन कर लिए लेकिन स्वर्णिम मध्यप्रदेश कहीं नजर नहीं आ रहा है। बावजुद इसके मुख्यमंत्री ने विकास का नया फार्मूला अपनाते हुए आओं मध्यप्रदेश बनाएं का अलाप शुरू कर दिया है। हालांकि प्रदेश में विकास की गंगा बहाने की ललक शिवराज सिंह चौहान में हमेशा से रही है लेकिन उन्हें कभी सही दिशा नहीं मिल पाई है। मुख्यमंत्री की विकास की ललक में सबसे बड़ी बाधा है भ्रष्टाचार। प्रदेश से भ्रष्टाचार पर तब तलक अंकुश नहीं लग पाएगा जब तलक जांच एजेंसियों को और अधिक अधिकार तथा फ्री हैंड न दिया जाए।
प्रदेश सरकार ने स्वर्णिम मध्यप्रदेश बनाने के लिए सात संकल्प, सात कार्यदल बना रखे हैं और यह संयोग ही है कि सात किस्म के माफिया प्रदेश के विकास की राह में रोड़ा बने हुए हैं। प्रदेश में जमीन, शराब, वन, ड्रग, खनिज, गोवंश और गरीबों को मिलने वाले केरोसिन और अन्य सामग्री को पात्र व्यक्तियों तक नहीं पहुंचने देने वाले जैसे सात तरह के माफिया सक्रिय हैं। सात किस्म के माफियाओं की सक्रियता को खुद मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और मैदानी आला अफसर स्वीकार कर रहे हैं। बावजुद इसके इन पर अंकुश नहीं लग पा रहा है।
आखिर लगे भी कैसे? राज्य सरकार ने प्रदेश में लोकायुक्त संगठन, ईओडब्ल्यू, सूचना आयोग, मानवाधिकार आयोग, महिला आयोग, बाल आयोग और विभागीय जांच आयोग जैसी संस्थाओं को लगभग पंगू बनाकर रख दिया है। यह संस्थाएं आम आदमी को राहत दे सकें, ऐसी व्यवस्था ही नहीं हैं। इन संस्थाओं में पदाधिकारियों व कर्मचारियों के पद से वर्षों से खाली पड़े हैं। संस्था प्रमुख के लगभग हर सुझाव को राज्य सरकार रद्दी की टोकरी में फेंक देती है। जिन अशासकीय व्यक्तियों अथवा रिटायर व्यक्ति की नियुक्ति इन संस्थाओं में की जाती हैं इनके मुंह सिल दिए जाते हैं, वे इन नाकामियों को ढंकने के अलावा कुछ नहीं करते।
मध्य प्रदेश मेें एक तरफ मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए जांच एजेंसियों को फ्री हैंड देने का दावा कर रहे हैं वहीं दूसरी तरफ प्रदेश की शीर्ष संस्थाएं अपने अहं को लेकर टकरा रही हैं। नतीजतन उनके कामकाज पर तो बुरा असर पड़ ही रहा है, उनकी छवि पर भी बट्टा लग रहा है। पिछले कुछ वर्षों में मप्र में भ्रष्टाचार के जितने मामले उजागर हुए हैं और जांच एजेंसियों के छापों में जितनी बेतहासा काली कमाई सामने आई है,उससे ऐसा लगने लगा है जैसे प्रदेश भ्रष्टाचार का गढ़ बन गया है। बावजुद इसके यहां के भ्रष्टाचारियों में लोकायुक्त,आर्थिक अपराध अन्वेषण ब्यूरो,न्यायपालिका,शासन और प्रशासन का खौफ रति भर भी नहीं है। इसकी वजह है मध्य प्रदेश में शक्ति के विभिन्न केंद्रों के बीच अहं टकराव। कभी लोकायुक्त बनाम प्रदेश सरकार की जंग, तो कभी लोकायुक्त बनाम विधानसभा की तीखी तकरार। कभी न्यायपालिका और प्रशासन आमने-सामने होते हैं, तो कभी राज्य सूचना आयोग और लोकायुक्त में भिडं़त हो जाती है। इस तनातनी के खेल में कामकाज प्रभावित हो रहा है।
सबसे पहले बात करते हैं लोकायुक्त की। मप्र सहित देश भर के लोकायुक्त के अधिकारों का विश£ेषण करें तो हम पाते हैं कि वे सिर्फ और सिर्फ नाम मात्र के 'अधिकारीÓ हैं। भ्रष्टाचार के मामले में जब वे शिकायत मिलने पर किसी मंत्री या अफसर के खिलाफ जांच करते हैं, तो जांच के जरूरी संसाधनों के लिए भी वे सरकार पर निर्भर हैं। एक लंबा समय जांच शुरू होने में ही बीत जाता है। मध्य प्रदेश में फरवरी 1982 में अस्तित्त्व में आये लोकायुक्त संगठन से ये आशा बंधी थी कि हो सकता है कि आगे आने वाले समय में यह भ्रष्टाचार के खिलाफ कारगर साबित हो, लेकिन आधिकार विहीन लोकायुक्त की स्थिति बिना आँख नाक के पुतले से अधिक कुछ भी नहीं है। हालत यह है कि इस महत्त्वपूर्ण संगठन की भूमिका मात्र रिपोर्ट लेने और जांच के लिए विभाग तक भेजने की ही रह गयी है।
लोकायुक्त जस्टिस प्रकाश प्रभाकर नावलेकर कहते हैं कि यहां संगठन तो है, लेकिन कुछ ऐसे अधिकारों की जरूरत है जिससे भ्रष्टाचारियों पर जल्दी और सख्त कार्रवाई हो सके। अभियोजन स्वीकृति में देरी, सरकारी वकीलों की व्यस्तता, छापों के लिए कोर्ट की मंजूरी जैसे कई विषय हैं, जिनके कारण लोकायुक्त की कार्रवाई में देरी होती है और बाद में ये मामले लंबी कानूनी प्रक्रिया में फंस जाते हैं। इससे भ्रष्टों को समय पर सजा नहीं मिल पाती। लोकायुक्त नावलेकर कहते हैं कि वैसे तो अन्य राज्यों से बेहतर संगठन और अधिकार मप्र में हैं, लेकिन कई ऐसे अधिकार हैं जिनकी जरूरत महसूस की जा रही है।
वे कहते हैं कि मौजूदा कानून में अभियोजन स्वीकृति के लिए लंबा इंतजार करना पड़ता है। इसके लिए एक निश्चित समय सीमा होना चाहिए। इसके बाद लोकायुक्त संगठन बिना अनुमति के भी चालान पेश कर सके। दूसरा, संगठन को भ्रष्ट नौकरशाहों की संपत्ति जब्त करने का अधिकार मिलना भी जरूरी है। छापे के लिए अदालत की अनुमति खत्म कर इसके अधिकार लोकायुक्त को मिलें तो काम में आसानी होगी। वे कहते हैं भ्रष्टाचार के मामलों में सरकारी वकीलों पर निर्भरता खत्म होनी चाहिए। लोकायुक्त संगठन के अपने वकील और भ्रष्टाचार के मामलों की सुनवाई के लिए अलग अदालत होने से मामलों का निपटारा जल्दी हो सकेगा। अभी सरकारी वकीलों के पास दूसरे मामले भी होते हैं। फैसलों में देरी से भ्रष्टों के खिलाफ समाज में समय पर संदेश नहीं जा पाता।
सरकार भले ही प्रदेश में भ्रष्टाचार कम करने और खत्म करने तक के दावे करे लेकिन हकीकत कुछ और ही है। लोकायुक्त द्वारा जिन मामलों में जांच किये जाने के लिए विभागों को सिफारिश की गयी है उनमें से अधिकतर में तो कार्यवाही ही नहीं हुई है और यदि कार्यवाही हुई भी है तो वो मात्र चार्जशीट सौंपे जाने तक ही सीमित है। इनमें से कई मामले तो 10 साल से भी अधिक पुराने हैं। जाँच की प्रक्रिया के दौरान ही कई अफसर तो रिटायर हो चुके हैं और कुछ की मृत्यु तक हो चुकी है। हालात यह हैं कि लोकायुक्त संगठन द्वारा अनुशंसा किये गए प्रकरणों को विभागीय जांच शुरू करने में ही दो से तीन साल लग रहे है। कई विभागों के हालात तो इतने खराब हैं कि आरोप पत्र दिए ही वर्षों बीत गए हैं लेकिन आज तक आरोपी अफसर का जवाब ही अप्राप्त है। लगभग दो दर्जन मामलों में तो जांच असाधारण विलम्ब होने से आरोपी अफसर के रिटायर या मृत्यु होने पर मामले को खत्म लगाया गया है।
लोकायुक्त संगठन द्वारा मई 2011 तक के जारी आंकड़ों से यह साबित होता है कि लंबे समय से विभागीय जांच की प्रतीक्षा करना इस संगठन का भाग्य बन गया है। लोकायुक्त संघटन के द्वारा कार्यवाही के लिए भेजे गए 33 मामले दस सालों से भी अधिक समय से कार्यवाही की प्रतीक्षा कर रहे हैं। इनमें 59 मामले वे हैं जो पांच साल से भी अधिक समय से अपनी बारी आने का इंतजार कर रहे हैं। जांच को लटका कर रखने में सबसे ऊपर लोकनिर्माण विभाग है जिसमें 2011 तक कुल 71 मामलों को लटका रखा है। जिनमें से 43 मामलों को 5 से 15 सालों तक लटका रखा है। दुसरे नंबर पर जलसंसाधन विभाग है जिसमें 28 मामलों पर कार्यवाही को रोक रखा है।
प्रदेश में भ्रष्टाचार पर नकेल कसने के लिए बनाया गया लोकायुक्त संगठन कई मामलों में जांच आगे नहीं बढ़ा पा रहा है। प्रदेश के लोकायुक्त जस्टिस पीसी नावलेकर के अनुसार प्रदेश के एक पूर्व मंत्री समेत दस मंत्री लोकायुक्त की जांच के घेरे में हैं। इनके खिलाफ आय से अधिक सम्पत्ति व अन्य मामलों में जांच चल रही है। इसके अलावा 49 आईएएस,7 आईपीएस, 7 आईएफएस कैडर के अधिकारियों के खिलाफ जांच चल रही है। उन्होंने बताया कि जून 2009 में उन्होंने लोकायुक्त का पद संभाला था, उस दौरान 1521 शिकायतें लंबित थीं, उनके कार्यकाल में 6065 नई शिकायतें प्राप्त हुई हैं, इनमें से 7160 शिकायतों का निराकरण हो चुका है। 426 शिकायतों की जांच पूरी हो चुकी है और कार्रवाई शेष है। इस दौरान लोकायुक्त द्वारा 48 शिकायतें आय से अधिक संपत्ति अर्जित करने,36 शिकायतें अधिकार क्षेत्रों का दुरुपयोग करने व 106 अधिकारियों द्वारा रिश्वत लेने की मिली थीं, जिन पर कार्रवाई की गई। वहीं लोकायुक्त में दर्ज कई मामले विभागीय जांच आयुक्त के पास होने के कारण अटके हुए हैं।
उधर विभागीय जांच आयुक्त सुशील कुमार गुप्ता कहते हैं कि मेरे द्वारा विभाग से जो कागजात मांगे जाते हैं वह विभाग द्वारा समय पर नहीं दिए जाने के कारण बार-बार पेशी लगाई जाती है। मेरे दफ्तर में सिर्फ चार लोगों का स्टॉफ है दो स्टेनों एक यूडीसी और एक भृत्य, ऐसे में मुझे पूरे मध्यप्रदेश के विभागों की जांच करनी है।
सच तो यह है कि राजनैतिक दबाव और इसके सियासी इस्तेमाल के चलते लोकायुक्त का खौफ अब उतर चुका है। प्रदेश में लोकायुक्त संगठन के गठन का श्रेय तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह को जाता है। उन्होंने वर्ष 1975 से धूल खा रहे इस आशय के विधेयक को न केवल पुन: पेश कराया था बल्कि 1982 में इसे प्रभावशील भी करा लिया था। जानकारों के अनुसार लोकायुक्त की अवमानना का सिलसिला दिग्विजय सिंह की सरकार में तब शुरू हुआ जब मुख्यमंत्री के रूप में उन्होंने जबलपुर के बहुचर्चित मढ़ातालभूमि घोटाले में अपने दो कैबिनेट मंत्रियों बीआर यादव और राजेन्द्रकुमार सिंह के खिलाफ लोकायुक्त की सिफारिशों को मानने से इंकार कर दिया। यह वही मामला है जिसके चलते तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह और तब के राज्यपाल भाई महावीर के रिश्तों में खटास आ गई थी। आरोप है कि रही-सही कसर भाजपा की मौजूदा सरकार की पहली पारी में पूरी हो गई। यह वह दौर था जब लोकायुक्त ने न केवल मंत्रिमंडल पर शिकंजा कसा वरन तत्तकालीन लोकायुक्त जस्टिस रिपुसूदन दयाल की दो शीर्ष पदाधिकारियों से सीधे ठन गई। यह भी सच है कि सरकार किसी की भी रही हो लेकिन लोकायुक्त को ताकत देने में सब ने परहेज किया। नतीजा यह है कि लोकायुक्त संगठन में प्रतिनियुक्ति से पुलिस के अफसर तो अफसर कर्मचारी भी खौफ खाते हैं। आमतौर पर इसे लूप लाइन समझा जाता है। प्राय:प्रतिनियुक्ति के दौरान पुलिस के छोटे कर्मचारी को अपने बड़े अधिकारी के खिलाफ जांच करनी होती है।
मप्र विभागीय जांच आयोग
नाम के अनुरूप तय है कि राज्य सरकार ने इस आयोग की स्थापना सरकार के विभिन्न विभागों में पदस्थ अफसरों व कर्मचारियों के कारनामों की विभागीय जांच के लिए की है। इस आयोग का दफ्तर सतपुड़ा भवन के तीसरे तल पर छोटे से दो कमरों में बना है। आयुक्त के रुप में जिला जज स्तर के अधिकारी सुशील कुमार गुप्ता को तैनात किया गया है। गुप्ता के बैठने के लिए जो कुर्सी टेबल दी गई है, वह किसी भी विभाग के क्लर्क की टेबल कुर्सी से भी बदतर है। मप्र के सभी विभागों में यह तय है कि जिस जांच में किसी अधिकारी कर्मचारी को निपटाना उसकी फाइल विभागीय जांच आयोग को भेज दी जाती है, वर्ना विभाग स्वयं ही जांच करके निष्कर्ष जारी कर देता है। जैसे मप्र के करोड़पति आईएएस अधिकारी अरविन्द जोशी व टीनू जोशी की विभागीय जांच आयोग से कराने के बजाय रिटायर आईएएस अधिकारी निर्मला बुच से कराई जा रही है। आयोग को केवल पांच कर्मचारियों के पद स्वीकृत किए हैं, इनमें से भी एक खाली है। आयुक्त के एक विशेष सहायक, एक हेड क्र्लक, एक क्र्लक और दो चपरासी। एक क्र्लक का पद खाली है और दो चपरासियों में से एक आयुक्त के निवास पर काम करता है। यानि आयोग में आयुक्त के अलावा केवल तीन लोग काम करते हैं। आप अंदाज लगा सकते हैं कि केवल एक विशेष सहायक, एक हेड क्र्लक और एक चपरासी के जरिए विभागीय जांच आयुक्त कैसे अपना काम कर पाते होंगे? बताते हैं कि कई जांचें ऐसी भी हैं जिनमें कई अधिकारियों व कर्मचारियों पर आरोप होते हैं और गवाही के लिए एक साथ दर्जनों लोगों को बुलाना पड़ता है। इस पूरे कार्यालय में इतनी भी जगह नहीं है कि गवाही देने आए लोग एक साथ खड़े भी हो सकें।
प्रदेश की एक और जांच एजेंसी आर्थिक अपराध अन्वेषण ब्यूरो (ईओडब्ल्यू) में भ्रष्टाचार संबंधी मामलों की शिकायतें लगातार बढ़ रही हैं। अधिकतर मामले सरकारी विभागों द्वारा जानकारी न दिए जाने से बीच में ही खत्म हो जाते हैं। सरकार ने अब जाकर थोड़ी सजगता दिखाई है और प्रदेश के सभी सरकारी विभागों को भ्रष्टाचार की शिकायतों की जांच में जरूरी जानकारी आर्थिक अपराध अन्वेषण ब्यूरो और लोकायुक्त को अनिवार्य रूप से देने का निर्देश दिया है। इसके साथ ही ईओडब्ल्यू मुख्यालय के सर्वर को वित्त विभाग से जोड़ा जाएगा, जिससे कोषालय से निकलने वाली धनराशि की जानकारी ब्यूरो के पास भी पहुंच जाएगी। ईओडब्ल्यू आर्थिक अपराध से जुड़ी 150 से अधिक शिकायतों की जांच कर रहा है। इसके अलावा लगभग 900 शिकायतें ऐसी भी हैं, जो कि प्रारंभिक जांच में हैं।
मप्र को स्वर्णिम बनाने का संकल्प लेने वाली प्रदेश की शिवराज सिंह चौहान सरकार के आधा दर्जन से ज्यादा मत्रियों के कामकाज पर सवाल उठ रहे हैं। खुद को प्रदेश की सात करोड़ जनता का हमदर्द बताने वाले इन मंत्रियों ने दोनों हाथों से लूट-सी मचा रखी है। कोई राज्य की योजनाओं को चूस रहा है तो किसी ने केंद्रीय योजनाओं पर बट्टा लगाने की ठान ली है। ऐसे मंत्रियों के भरोसे मुख्यमंत्री ने जनता को स्वर्णिम मप्र का सपना दिखाया है। सरकार की प्राथमिकताएं और संकल्प चाहे जो हों, लेकिन विभागों में इन्हीं का एजेंडा का काम कर रहा है। किसी ने विभाग में अपने ठेकेदार छोड़ रखे हैं, तो किसी ने तबादलों को ही अपना व्यापार बना रखा है। ऐसे में स्वर्णिम मध्यप्रदेश का सपना बेमानी लगता है।
लोक सेवा गारंटी कानून का लागू होना स्वर्णिम मप्र बनाने की दिशा में प्रमुख कदम है। यह कानून बनाकर लागू करने वाला मप्र पहला राज्य है। नियम बनाए जाते हैं और इन नियमों को लागू भी किया जाता है, लेकिन उनका सही क्रियान्वयन होना जरूरी है। इस कानून की धज्जियां नहीं उडऩा चाहिए। यदि कहीं पर भी शिकायत आती है तो दोषी अधिकारी, कर्मचारी के खिलाफ सख्त कार्रवाई की जाएगी।
मध्यप्रदेश सरकार का न सिर्फ खजाना खाली है, बल्कि वर्तमान में उस पर 69259.16 करोड़ का कर्ज भी है। इस कर्ज पर सरकार 5051.83 करोड़ रुपए ब्याज चुका रही है यानी बजट से ज्यादा ऋण राशि चुकाने में खर्च किया जा रहा है। इसी दिवालिया सरकार ने विभिन्न संस्थाओं की आउटस्टैंडिंग पर 3,000 करोड़ की गारंटी दे रखी है। कुल जमा सरकार पर 77,990.02 करोड़ का दायित्व है। प्रदेश में आम आदमी की आर्थिक स्थिति बद से बदतर होती जा रही है। प्रदेश में आम आदमी की औसत सालाना आय 27,250 रुपए रह गई है। यहां गोवा जैसे छोटे से राज्य के आम आदमी की औसत आय का जिक्र करना भी जरूरी है जो 1,32,719 रुपए है। ये आंकड़े शिवराज सिंह के तथाकथित स्वर्णिम मध्यप्रदेश की हकीकत बयान कर रहे हैं।
यह तो हुई प्रदेश की आर्थिक स्थिति की बात, अब प्रदेश के विकास पर भी एक सरसरी नजर दौड़ाई जाए। मप्र को स्वर्णिम प्रदेश बनाने की तैयारियों में जुटी सरकार यहां के भविष्य को सुरक्षित करना ही भूल गई। लगभग हर जिले में भूख, कुपोषण और बीमारी से बच्चों की मौत दर्ज की जा रही है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक ही प्रदेश में औसतन 71 बच्चे रोजाना दम तोड़ रहे हैं, लेकिन इस ओर ध्यान देने वाला कोई नहीं। बच्चों के मामा होने का दावा करने वाले मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान भी तमाम योजनाओं की घोषणा के अतिरिक्त उनकी जीवन रक्षा के लिए अभी तक कोई ठोस कदम नहीं उठा पाए हैं। वर्ष 2009 में इंटरनेशनल फूड पॉलिसी संस्थान ने भी भारत के 17 राज्यों में कुपोषण और भूख के मामले में मप्र की स्थिति को चिंताजनक बताया था। 39 लाख बच्चों के कुपोषित होने की बात खुद महिला बाल विकास मंत्री विधानसभा में स्वीकार कर चुकी हैं, जबकि नेशनल फैमली हेल्थ सर्वे रिपोर्ट की मानें तो 60 फीसदी कुपोषण के चलते 60 लाख से अधिक बच्चे कुपोषित हैं। भाजपा के शासन में कुपोषण के पिछले सात सालों में 56603 मामले सामने आए हैं।
सुप्रीम कोर्ट द्वारा देश में भोजन के अधिकार को लेकर नियुक्त आयुक्त को उनके मप्र के सलाहकार ने हाल ही में सौंपी अपनी रिपोर्ट में यह भी बताया है कि मप्र न केवल कुपोषण में देशभर में अव्वल हो गया है, बल्कि उसने भूख के मामले में देशभर में अव्वल रहे उड़ीसा को भी पछाड़ दिया है। रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि यह करिश्मा कोई रातोरात नहीं हो गया बल्कि इसमें पूरे पांच साल लगे हैं। तब कहीं यह उपलब्धि हासिल हुई है। इन पांच सालों में एक महीने में राज्य में प्रति व्यक्ति खाद्यान्न की खपत ग्यारह किलो से घटकर नौ किलो रह गई है। यह मात्रा भुखमरी से सबसे ज्यादा प्रभावित उड़ीसा से भी कम है जहां खाद्यान्न की खपत प्रति माह प्रति व्यक्ति 11 किलो पर स्थिर है।
खैर, यह तो हुई आम लोगों की बात।
मध्यप्रदेश में प्रति हजार पर शिशु मृत्युदर 67 है, जो देश में सर्वाधिक है। मातृ मृत्युदर के मामले में भी मध्यप्रदेश देश में अव्वल है, जहां प्रति एक लाख महिला पर 335 महिलाएं प्रसव के दौरान दम तोड़ देती हैं। दलितों के प्रति अत्याचार और किसानों की आत्महत्या के मामले में मध्यप्रदेश देश में पांचवीं पायदान पर है। चोरियों के मामले में मध्यप्रदेश महाराष्ट्र के बाद दूसरे नंबर है। मध्यप्रदेश में पुलिस अत्याचार इतना अधिक बढ़ गया है कि 15,903 शिकायतों के साथ प्रदेश देश में अव्वल है। अपराधों के मामले में 26 हजार से ज्यादा मामलों के साथ मध्यप्रदेश देशभर में पहली पायदान पर है। महिलाओं और बच्चों के साथ अत्याचार में भी मप्र देश में शिखर पर है।
जिस प्रदेश की यह हालत हो, उस प्रदेश की सरकार पंचायतों, महापंचायतों, औद्योगिक सम्मेलनों, वनवासी यात्रा, मध्यप्रदेश बनाओ यात्रा, कार्यकर्ता गौरव दिवस, अंत्योदय मेलों आदि पर सरकारी धन खुलकर फूंक रही है। धनाभाव में सरकारी निर्माण एजेंसियों का बजट 40 से 50 फीसदी तक कम कर दिया गया है। नतीजन विकास कार्य तो ठप हैं ही, सरकारी अधिकारियों-कर्मचारियों को बैठे-बिठाए मुफ्त की तनख्वाह देना पड़ रही है। एक ओर प्रदेश का विकास लगातार गर्त जा रहा है, वहीं दूसरी ओर अफसरानों से लेकर बाबुओं तक की तिजोरियां आयकर के छापों में धन उगल रही हैं। ,

मध्यप्रदेश में अफसर से लेकर मंत्री तक ने दबंगई के साथ भ्रष्टाचार किया है और कर रहे हैं। बेईमान अफसरों के खिलाफ लोकायुक्त से लेकर आर्थिक अपराध अन्वेषण ब्यूरो में मामला पंजीबद्ध है। नौकरशाहों ने भ्रष्टाचार के मामले में राजनेताओं को बहुत पीछे छोड़ दिया है। बेईमानी साबित होने के बाद भी नौकरशाहों पर नकेल नहीं कस पा रही है जिससे जनता परेशान है बावजूद इसके मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान स्वर्णिम मध्यप्रदेश बनाने का दावा कर रहे हैं। मध्यप्रदेश की जनता मान चुकी है कि नेता और अफसर आम तौर पर भ्रष्ट हैं, सरकारी खजाने के लुटेरे हैं। केवल कानून के जरिए इन पर नकेल नहीं कसी जा सकती, इसलिए कि सरकार भी कहीं न कहीं भ्रष्ट नौकरशाहों के साथ है। लोकायुक्त और आर्थिक अपराध अन्वेषण ब्यूरो के पास हर साल बढ़ते भ्रष्टाचारियों की सूची इस बात का प्रमाण है कि मध्यप्रदेश में बेईमान अफसरों का राज चलता है। भ्रष्ट अफसरों के खिलाफ जांच और कार्रवाई की गति बहुत धीमी होने की वजह से नौकरशाह भ्रष्टाचार करने से डरते नहीं हैं। यही हाल राजनेताओं का है। देश में हुए बड़े घोटालों में शामिल कई राजनेता जेल में हैं लेकिन मध्यप्रदेश में ऐसा नहीं है। यह अलग बात है कि आज देश अन्ना हजारे के साथ भ्रष्टाचार के खिलाफ कदम से कदम मिलाकर चलने के लिए तत्पर है। पर मध्यप्रदेश में लोकायुक्त और आर्थिक अपराध अन्वेषण ब्यूरो की सूची देखने से पता चलता है कि नौकराशाहों ने सारी हदें पार कर दी हंै। भ्रष्टाचार का यह आलम है कि मध्य प्रदेश में मामूली सरकारी अफसरों के पास से बरामद होनी वाली संपत्तियों से ऐसा लगता है कि वो उद्योगपति हैं।
अन्ना हजारे ने नीतिश कुमार और नरेन्द्र मोदी की तारीफ की तो मध्यप्रदेश के भाजपा अध्यक्ष प्रभात झा की भृकुटी तन गई। वो अपने अंदाज में कहते हैं, '' शिवराज सिंह चौहान को किसी से ईमानदारी का सार्टिफिकेट लेने की जरूरत नहीं है। सभी जानते हैं कि शिवराज सिंह चौहान कितने ईमानदार हैं और स्वर्णिम मध्यप्रदेश के लिए क्या कर रहे हैं''। प्रभात झा भले शिवराज की प्रशंसा में कसीदे गढ़ते हों लेकिन पूरा मध्यप्रदेश जानता है कि डंपर कांड में किस तरह शिवराज सिंह चौहान बच निकले हैं? लोकायुक्त के अफसरों ने उन्हें किस तरह बचाया। पैसों पर पलने वाली राजनीति में राजनीतिज्ञ कितने ईमानदार हैं यह तो लोकायुक्त में प्रदेश के राजनेताओं के खिलाफ दर्ज मामले से पता चलता है।
मध्यप्रदेश में ऐसे कई नेता हैं, अफसर हैं जिन पर भ्रष्टाचार का न केवल आरोप लगा है बल्कि उनके घर से नकदी बरामद हुई है, फिर भी ऐसे लोग अपने आप को ईमानदारी की कसौटी पर खरा बताने से नहीं चूकते। सूबे में कई आईएएस अफसर भ्रष्टाचार के फंदे में फंसे लेकिन उनकी उतनी चर्चा नहीं जितनी कि अरविंद और टीनू जोशी दंपति की हुई। प्रवर्तन निदेशालय ने विदेशी मुद्रा प्रबंधन अधिनियम (फेमा) के उल्लंघन का नोटिस भेजा। इसके बाद आयकर विभाग ने भी एक रिपोर्ट दाखिल की है, जिसमें जोशी दंपति की कुल संपत्ति 350 करोड़ रूपये से भी अधिक बताई गई है। जोशी दंपति के घर से बिस्तर के नीचे तीन करोड़ की नकदी मिलने की घटना से वो सुर्खियों में आये।
सूबे में भ्रष्टाचार करने वाले अफसरों के घरों में छापा मारने पर अकूत संपत्तियंा मिलीं, फिर भी वो निलंबित होकर मजे कर रहे हैं, शासन से 75 फीसदी वेतन ले रहे है। भ्रष्टाचार का आलम यह है कि मामूली सरकारी अफसरों के घरों से मिलने वाली संपत्तियां बैंकों को भी लज्जित कर रही हैं। आइये देखते हैं कि किस-किस तरह के भ्रष्ट लोगों का चेहरा सामने आया हैं। ऐसे लोगों ने जनता को पद मे रहते समय खूब परेशान किया और उनकी पसीने की कमाई को जी भर लूटने के बाद भी चैन से हैं।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें