शनिवार, 29 नवंबर 2014
7,200 का बजट फिर भी डेंगू कर रहा लोगों का चट
30 करोड़ के घटिया पायरेथ्रम ने छिनी 546 जिंदगी
भोपाल। 29 अक्टूबर को जब मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान स्वास्थ्य सेवा गारंटी योजना का शुभारंभ कर रहे थे उस समय राजधानी भोपाल में सरकारी रिकार्ड के अनुसार डेंगू पीडि़तों का आंकड़ा 445 पहुंच गया था और वहीं डेंगू से मौत का आंकड़ा 8 पहुंच गया था। जबकि प्रदेशभर के सरकारी और निजी अस्पतालों में पिछले पांच माह में डेंगू से मौत का मामला 532 और पीडि़तों का आंकड़ा 1700 से ऊपर पहुंच गया था। जानकारी के अनुसार, 6 नवंबर तक प्रदेश में डेंगू और मलेरिया से करीब 546 मौत हो चुकी है। जबकि पिछले पांच साल में 1100 से अधिक मरीज प्रदेश में अब तक डेंगू का शिकार हो चुके हैं। हालांकि स्वास्थ्य विभाग इसे मानने को तैयार नहीं है और उसकी नजर में सारी मौत दूसरे रोगों की वजह से हुई है। जबकि हकीकत यह है की मच्छरों को मारने के लिए खरीदी गई पायरेथ्रम अमानक निकली है। स्वास्थ्य विभाग में 30 करोड़ की जो पायरेथ्रम खरीदा है वह इतना घटिया है की उसका मच्छरों पर असर ही नहीं हो रहा है। अब इस मामले तूल पकड़ लिया है प्रदेश में दवा खरीदी की सीबीआई जांच की मांग होने लगी है।
मप्र स्वास्थ्य विभाग के आंकड़ों के अनुसार प्रदेश में वर्ष 2009 में पहली बार डेंगू का मामला सामने आया था। इस साल प्रदेशभर में 1467 मामले सामने आए थे, जिसमें से अकेले भोपाल में 32 लोगों की मौत हुई थी। तब से लेकर डेंगू का डंक लोगों को मौत के घाट उतार रहा है, लेकिन उस पर अंकुश नहीं लग पा रहा है। आलम यह है कि पिछले साल देश में डेंगू पॉजीटिव के आधार पर मप्र 16 वें क्रम पर था। इस साल प्रदेश में डेंगू पॉजीटिव के मामले में मप्र पांचवें स्थान पर आ गया है वहीं मौत के मामले में तो प्रदेश पिछले दो साल से दिल्ली से आगे निकल रहा है। प्रदेश में डेंगू का कहर किस कदर बरप रहा है इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि राजधानी भोपाल में डेंगू को लार्वा मारने के लिए 70 टीम तैयार की गई है और उसमें 700 अधिकारी-कर्मचारी रोजाना दवा का छिड़काव और घर-घर लार्वा का सर्वे कर रहे हैं लेकिन डेंगू पीडि़तों की संख्या निरंतर बढ़ रही है। बताया जाता है की टीम जिसे पायरेथ्रम दवा का छिड़काव कर रही है वह पूरी तरह अमानक है।
5 साल में 30 जिलों को चपेट में लिया डेंगू ने
वर्ष 2009 में डेंगू के मरीज भोपाल, जबलपुर, इंदौर और ग्वालियर में सामने आए थे। अगर उस समय सरकार और स्वास्थ्य विभाग ध्यान देता तो डेंगू को वहीं रोका जा सकता था, लेकिन आज आलम यह है कि स्वास्थ्य विभाग के अधिकारियों की लापरवाही के कारण प्रदेश में डेंगू से तीस जिले सबसे ज्यादा प्रभावित हैं। इनमें से भोपाल, जबलपुर, इंदौर और ग्वालियर को छोड़ ज्यादातर अपेक्षाकृत पिछड़े जिले हैं। विभाग के दावों की हकीकत का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि 14 जिलों में डेंगू की जांच के लिए एलाइजा रीडर किट ही नहीं है।
अराजक व घटिया दवाओं की आपूर्ति
दरअसल, मप्र में विगत 5 वर्षों से राज्य सरकार व स्वास्थ्य विभाग द्वारा अमानक व घटिया दवाओं की खरीदी की जा रही है। इस बात खुलासा मेडिकल डॉक्टर्स एसोसिएशन के डॉ.अजय खरे ने करते हुए बताया कि राज्य सरकार की ड्रग टेस्टिंग, लेबोरेटरी में ही जिन सैकड़ों दवाओं के नमूनों को अमानक माना उन्हीं की सप्लाई प्रदेश में लगातार की जाती रही। इस तरफ प्रदेश में अमानक स्तर की मच्छर नाशक दवा, पायरेथ्रम, एक्सट्रेक्ट-2 की खरीदी की जाकर छिड़काव किया जाता रहा जिसके परिणाम स्वरूप सैकड़ों लोग डेंगू और चिकिनगुनिया की बीमारी से पीडि़त होकर मौत के शिकार हुए। डॉ.अजय खरे द्वारा मध्यप्रदेश हाईकोर्ट में लगाई गई अमानक दवाओं की खरीदी के आरोप वाली जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए मुख्य न्यायाधीश अजय माणिकराव खानविलकर व जस्टिस शांतनु केमकर की डिवीजन बेंच ने राज्य शासन व सीबीआई सहित अन्य को नोटिस जारी कर जवाब तलब कर लिया है। उधर, डॉ. खरे का कहना है कि कायदे से दवाओं की खरीदी से पूर्व प्रयोगशाला में विधिवत जांच होनी चाहिए। लेकिन यह प्रक्रिया अपनाए बगैर मनमाने तरीके से घटिया स्तर की दवाओं की खरीदी बदस्तूर जारी है। जिससे मरीजों की जान पर खतरा मंडरा रहा है। लिहाजा, मामले की जांच सीबीआई को सौंपी जानी चाहिए।
कैग की रिपोर्ट का हवाला
बहस के दौरान बताया गया कि प्रदेश में अकेले डेंगू की दवाओं की खरीदी पर 30 करोड़ रुपए खर्च किए गए हैं। कैग ने 47 सेम्पल लेकर जांच कराई। आश्चर्य की बात यह है कि ये सब सेंपल गुणवत्ता के स्तर पर बेहद घटिया पाए गए। इससे साफ है कि राज्य में अमानक दवा खरीदी का बड़ा घोटाला हुआ है। इसके जरिए लोभ और लापरवाही की हद पार कर दी गई है। इस मामले में भोपाल जिला कांग्रेस के अध्यक्ष पीसी शर्मा कहते हैं कि प्रदेश भर में फैल चुके डेंगू को काबू में करने का प्रदेश सरकार का दावा गलत साबित हुआ है। कांग्रेस के अनुसार हालात इतने खराब हैं कि सरकारी सर्वे में डेंगू के लार्वा पॉश कॉलोनियों के साथ ही मंत्री और अफसरों के घरों तक में पाए गए हैं। इस मामले में सपा के कमलेश पटेल ने इस बावत पीएम के नाम कलेक्टर को ज्ञापन सौंपा। उनका कहना है कि प्रदेश सरकार द्वारा दवा खरीदी मानक जांच गुणवत्ता निर्धारण, भुगतान व वितरण में स्थापित नियमों व अनीतियों का उल्लंघन कर बड़ा घोटाला व अनियमितता की गई है। बिना जांच के अमानक अक्षम्य अपराध है। नकली व अमानक दवाओं के सेवन से प्रदेश में कितने लोगों की मौत हुई इसकी विस्तृत जांच आवश्यक है। उनका कहना है कि प्रदेश में अमानक दवाओं की खरीदी व वितरण की जांच सीबीआई कराई जाए ताकि आम जनता की जान से खिलवाड़ कर रहे दोषी अधिकारी, दवा निर्मिता, सप्लायर व अन्य दोषी लोगों को कठोर सजा मिल सके व घोटालों की वास्तविकता उजागर होकर भविष्य में ऐसे कारनामों की रोक लगा सके।
लउनि ने भी माना था कि अमानक थी पायरेथ्रम
सन 2012 में खरीदी गई पायरेथ्रम को लघु उद्योग निगम ने भी अमानक स्तर का बताया था। स्वास्थ्य विभाग ने निगम के माध्यम से ही यह दवा खरीदी थी। इसका खुलासा किया है बॉम्बे केमिकल्स के मप्र-छग के प्रमुख कीर्ति जैन ने। वर्ष 2012 में पायरेथ्रम सप्लाई की टेेंडर प्रक्रिया में शामिल हुई कंपनी बॉम्बे केमिकल्स के मप्र-छग के प्रमुख कीर्ति जैन का कहना है कि वे 2012 में प्रदेश में डेंगू से 140 लोगों की मौत के मामले में एफआईआर दर्ज कराएंगे। जैन के अनुसार घटिया पायरेथ्रम खरीदने के कारण इतनी मौतों की जिम्मेदारी सरकार की है। जैन ने पिछले साल इस मामले की लोकायुक्त में शिकायत भी की थी। जैन का कहना है कि निगम के तत्कालीन प्रबंधक (विपणन) ने दवा सप्लाई करने वाली कंपनी नीटपॉल इंडस्ट्रीज (कोलकाता) को 7 मार्च, 12 को पत्र लिखा था। इसमें कहा गया था कि जांच में पायरेथ्रम अमानक स्तर का पाया गया है। निगम ने इस पत्र की एक कॉपी संचालक स्वास्थ्य सेवाएं को भेजी थी। इसमें उनसे कहा गया था कि इस दवा का इस्तेमाल तुरंत बंद करवाया जाए। लेकिन डेंगू मच्छरों को मारने की आड़ में पायरेथ्रम एक्स्ट्रेक्ट 2 प्रतिशत के परीक्षण में अमानक की पुष्टि होने के बाद भी स्वास्थ्य विभाग द्वारा दवा कंपनी को 50 लाख का भुगतान कर दिया गया। ये मामला हाल में आरटीआई के जरिए भी उजागर हुआ है। खरीदी गई पायरेथ्रम को लघु उद्योग निगम द्वारा साल 2012 में अमानक स्तर का बताया था। स्वास्थ्य विभाग ने निगम के माध्यम से ही यह दवा खरीदी थी। निगम के तत्कालीन प्रबंधक (विपणन) ने दवा सप्लाई करने वाली कंपनी नीटापॉल इंडस्ट्रीज (कोलकाता) को 7 मार्च, 12 को पत्र लिखा था। जिसमें कहा गया था कि जांच में पायरेथ्रम अमानक स्तर का पाया गया है। 27 अगस्त 2014 औषधि प्रकोष्ठ के अपर संचालक ने लिखा कि निगम द्वारा औषधि प्रकोष्ठ शाखा में कोई पत्र प्राप्त नहीं हुआ। साथ ही यह भी लिखा गया है कि एलयूएन वर्ष 2012-13 और 2013-14 में पायरेथ्रम एक्स्ट्रेक्ट क्रय नहीं किया गया है। सवाल उठता है कि यदि इन दो सालों में पायरेथ्रम एक्स्ट्रेक्ट नहीं खरीदा गया है तो क्या औषधि प्रकोष्ठ द्वारा एक्सपायरी डेट का पायरेथ्रम का छिड़काव हो रहा है या फिर प्रदेश में कौन सी दवाई का छिड़काव किया जा रहा है।
सीरोटाइप जांच के लिए दोबारा नहीं भेजे नमूने
डेंगू वायरस के चार सीरोटाइप होते हैं। राजधानी और आसपास के इलाके में कौन सा सीरोटाइप है, यह डॉक्टरों को भी पता नहीं है। ऐसे में मरीजों को इलाज तो मिल जाता है, पर डेंगू की रोकथाम के लिए कारगार उपाय नहीं हो पा रहे हैं। दो महीने पहले मलेरिया विभाग की लैब से 18 पाजीटिव मरीजों के नमूने जांच के लिए आरएमआरसीटी जबलपुर में भेजे गए थे। लेकिन, गलती से सीरोटाइप की जगह यहां डेंगू की सामान्य जांच कर दी गई है। उसके बाद आज तक जांच के लिए नमूने नहीं भेजे गए। विशेषज्ञों का कहना है कि एक बार एक सीरोटाइप से संक्रमण होने के बाद अगर उस मरीज को दूसरे सीरोटाइप से संक्रमण होता है तो मरीज की मौत होने की 90 फीसदी तक आशंका रहती है।
डेंगू फैलने के बाद अब खरीद रहे दवा
डेंगू और मलेरिया की रोकथाम के लिए तीन साल से उपयोग में लाई जा रही पायरेथ्रम दवा के सैंपल जांच में अमानक पाए गए थे। समझा जाता है कि इस दवा का छिड़काव भी बेअसर रहा। यही कारण है कि अब विभाग के अधिकारी मच्छर और लार्वा मारने वाली दवा खरीदी के टेंडर कर रहे हैं। पड़ताल में यह बात भी सामने आई कि तीन वर्ष से पायरेथ्रम दवा खरीदी ही नहीं गई, क्योंकि वे खरीदी प्रक्रिया से बच रहे थे। अब विभाग ने पायरेथ्रम और टिमोफोस दवा खरीदी के लिए टेंडर बुलाए हैं। सूचना के अधिकार के तहत अगस्त 2014 में विभाग ने जानकारी दी है कि वर्ष 2011-12 में मप्र लघु उद्योग निगम के माध्यम से पायरेथ्रम एक्सट्रेक्ट 2 प्रतिशत क्रय किया गया था। इसके बाद से अब तक नहीं खरीदा गया है। 10 हजार लीटर क्रय करने के आदेश दिए गए थे, जिसे एक करोड़ दो लाख सैंतीस हजार पांच सौ रुपए में खरीदा गया। इस मामले में मप्र राजपत्रित अधिकारी संघ के प्रांतीय सचिव डॉ.पद्माकर त्रिपाठी कहते हैं कि मेरे द्वारा अनेक चेतावनी देने के बावजूद मोटे कमीशन के लालच में अमानक दवा का भुगतान कर दिया गया। घटिया दवा के कारण उस वर्ष डेढ़ सौ से अधिक लोगों की मौत हो चुकी है। मेरे द्वारा शासन से अनुरोध किया गया है कि दोषी अधिकारियों के विरुद्ध मानव मौत का मुकदमा दर्ज किया जाए। अब हमें विवश होकर कोर्ट जाना पड़ेगा।
तीन साल पहले खरीदी गई दवा पायरेथ्रम अमानक पाई गई थी। इसके बाद खरीदी प्रक्रिया के संबंध में कई शिकायतें आई थीं। यही कारण है कि नई दवा के ऑर्डर दिए और ही टेंडर निकाले गए। इस मामले में संचालक,लोक स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण विभाग डॉ.नवनीत मोहन कोठारी का कहना है कि पायरेथ्रम की डिमांड आने के बाद हमारे द्वारा इसकी खरीदी की प्रक्रिया शुरू की गई है। इससे पहले खरीदी क्यों नहीं की गई, इसकी मुझे जानकारी नहीं है।
मच्छर हो रह ताकतवर,डोज ज्यादा लगेगा
आरएमआरसीटी (रीजनल मेडिकल रिसर्च सेंटर फॉर ट्राइबल्स)की रिसर्च में इस बात का खुलासा हुआ है कि प्रदेश में डेंगू और मलेरिया का प्रकोप बढऩे की एक वजह है मच्छरों का अब और अधिक ताकतवर होना। इसकी ताकत बढ़ा रहा है इसके पैरासाइट का माल्युक्यूल्स (गुणसूत्र। पैरासाइट के गुणसूत्र की संरचना में परिवर्तन इसे ताकतवर बना रहा है। इसका असर सीधे आम जनता पर इस तरह पड़ेगा कि मलेरिया होने पर उसे दवाओं का डोज अधिक लेना पड़ेगा। मच्छरों के ताकतवर होने पर डेंगू और मलेरिया की दवाएं बेअसर हो चुकी हैं। यह सब मलेरिया के पैरासाइट में हो रहे बदलाव के कारण हो रहा है।
आरएमआरसीटी ने मलेरिया पैरासाइट की रिसर्च के लिए मंडला, डिण्डौरी व अन्य जिलों के शहरी व ग्रामीण क्षेत्रों को चुना है। यह पैरासाइट मच्छर में होता है। अध्ययन से यह पता चल रहा है कि मलेरिया पैरासाइट के माल्युक्यूल्स का स्ट्रक्चर धीरे-धीरे बदल रहा है। मप्र में पाए गए मादा मच्छरों के पैरासाइट में अभी तक पूरी तरह परिवर्तन नहीं हुआ है। इससे दवाओं का डोज वही चल रहा है। आरएमआरसीटी की डायरेक्टर डॉ. नीरू सिंग कहती है कि मलेरिया पैरासाइट पर रिसर्च चल रही है। इसके गुणसूत्र की संरचना में परिवर्तन देखे जा रहे हैं। इसलिए मप्र में मच्छरों पर दवाओं का असर नहीं पड़ रहा है। इसके लिए डोज बढ़ाना पड़ेगा।
सरकारी अस्पतालों में 147 दवाईयां घटिया किस्म की
यह जानकार आपको आश्चर्य होगा कि प्रदेश के सरकारी अस्पतालों में मरीजों को नि:शुल्क वितरीत करने के लिए सरकार ने डब्ल्यूएचओ जीएम और सरकारी स्कीम के तहत 454 तरह की जो दवाएं खरीदी हैं उनमें से 147 दवाईयां घटिया किस्म की हैं। यह जानकारी सरकार ने ही उपलब्ध करवाई है। यानी इन दवाओं के इस्तेमाल से आप स्वस्थ नहीं बीमार हो सकते हैं। बहरहाल, मध्य प्रदेश से दवाओं का यह सच एक आरटीआई का नतीजा है। जानकारी मध्यप्रदेश मेडिकल ऑफिसर एसोसिएशन के अध्यक्ष अजय खरे ने दी है। खरे का कहना है कि उन्होंने आरटीआई में ये जानकारी ली थी। मेडिकल ऑफिसर एसोसिएशन ने मामले में सीबीआई जांच की मांग की है। खरे ने आरोप लगाया है कि सरकारी और निजी संस्थानों की 147 दवाएं जांच में घटिया पाई गई है और उन्होंने सरकार से ये जानकारी 1 जुलाई 2012 से 31 मई 2014 के बीच मांगी थी। डॉ.खरे का कहना है ये दवाएं मरीजों के लिए बेअसर साबित हो रही हैं। इस मामले में स्वास्थ्य मंत्री नरोत्तम मिश्रा और प्रमुख सचिव प्रवीर कृष्ण ने माना कि सरकारी अस्पतालों में मिलने वाली आयोडीन और जिंक संबंधी दो दवाओं के सैंपल घटिया थे। लेकिन वो केवल 0.5 फीसदी कम थे, जबकि 3 से 5 फीसदी तक की जांच में छूट है। मंत्री ने कहा कि निजी अस्पतालों के सैंपल जो अमानक पाए गए हैं, उनको बाजार से वापस बुलाने के निर्देश दिए गए हैं। मंत्री ने कहा कि उन्होंने जांच रिपोर्ट के आधार पर 147 में से 104 कंपनियों के बाहर के प्रदेशों की होने से वहां की संस्था को कार्यवाही के लिए पत्र लिखा है। मंत्री ने बताया कि 16 कंपनियों के लायसेंस निलंबित कर दिए गए हैं और 5 के निरस्त कर दिए गए हैं। इस मामले में सरकार का कहना है कि मामले में 3025 सैंपल की जांच हुई थी।
औषधि खरीदी प्रकोष्ठ कटघरे में
जिस तरह प्रदेश में अमानक दवाओं की खरीदी का मामला सामने आ रहा है प्रदेश का औषधि खरीदी प्रकोष्ठ कटघरे में आ गया है। इसकी मुख्य वजह है 2012 में खरीदी गई दवाओं में 25 और दवाएं अमानक स्तर की निकली हैं। जानकारी की अनुसार दवाओं की खरीदी लघु उद्योग निगम (एलयूएन) द्वारा की गई। दवा खरीदी के नियम भी यही कहते हैं कि दवा खरीदने से पहले उनका परीक्षण अनिवार्य है, ताकि उनके मानक और अमानक होने की जानकारी प्राप्त हो सके, लेकिन स्वास्थ्य विभाग अधिकारियों ने भारी भरकम कमीशन के चक्कर में इन दवाओं की जांच ही नहीं कराई और लाखों रुपए के बजट से यह दवाएं खरीद डालीं। यदि इन्होंने दवाएं खरीदने के पहले लैब में प्रामणिकता की जांच कराई होती, तो मरीजों को अमानक दवाएं नहीं खिलाई जातीं।
दवाओं के लिए भरपूर बजट की व्यवस्था की है, जिसे हर साल बढ़ाया भी जा रहा है, लेकिन सरकार के प्रयासों को लघु उद्योग निगम एवं औषधि प्रकोष्ठ के कुछ अधिकारी पलीता लगा रहे हैं। दवाओं की खरीदी के लिए वर्ष 2011 एवं 2012 के लिए 105 करोड़ का बजट दिया था, जिसे बढ़ाकर वर्ष 2012 एवं 2013 में 150 करोड़ किया गया और वर्ष 2013-14 के लिए बजट बढ़ाकर 197 करोड़ रुपए कर दिया गया।
सरकारी लैब के बजाय जांच प्राइवेट में
दवाओं की खरीदी में होने वाली इस धांधली की प्रमुख वजहों में अधिकारियों द्वारा मनमाने तरीके से दवाओं की जांच प्राइवेट लैब में करवाना भी है। स्वास्थ्य विभाग ने दवा खरीदी के लिए देश की 15 कंपनियों को रजिस्टर्ड किया है, जिनसे जेनरिक दवाएं खरीद कर प्रदेश के अस्पतालों में सप्लाई की जाती है। डॉ. बीएस ओहरी का कहना है कि हम इन दवाओं की जांच खरीदी के बाद प्रायवेट लैब में कराते हैं। अब तक 323 नमूनों की जांच कराई गई है, जिसमें से 57 की रिपोर्ट प्राप्त हुई है और यह दवाएं मानक स्तर की पाई गर्इं हैं। उल्लेखनीय है कि प्रदेश में राज्य सरकार की लेब होने के बावजूद प्रायवेट लैब में सेंपल जांच कराकर अपने अनुसार मानकों को पास और फेल कराते हैं। इसके बदले इन लैब को भी सेंपल जांच के लिए लाखों रुपए का भुगतान किया जाता है, जबकि राज्य की लैब में इन दवाओं की जांच नि:शुल्क होती है।
उधर,विदेशी पैसे पर मप्र के स्वास्थ्य विभाग को तकनीकी असिस्मेंट के लिए सेवाएं दे रहे एनजीओ की कथनी और करनी भी सामने आ गई है। यह संस्था दवाओं की गुणवत्ता एवं खरीदी के लिए तकनीकी परामर्श देती है, जिसके लिए संस्था को हर साल करोड़ों रुपए सरकार देती है, लेकिन लगातार अमानक दवाओं की खरीदी सामने आने पर संस्था की कार्यप्रणाली भी बड़ा सवाल खड़ा हो गया है।
जिस तादाद में प्रदेश में जेनरिक दवाएं अमानक स्तर की निकल रही हैं, उससे संपूर्ण दवा खरीदी प्रक्रिया ही सवालों के घेरे में आ गई है। इन दवाओं की खरीदी की पहली जिम्मेदारी डॉ. ओहरी की बनती है। इन्होंने करोड़ों रुपए की दवाओं की खरीदी में नियमों का पालन क्यों नहीं कराया। खरीदी गई जेनरिक दवाओं की गुणवत्ता की जांच खरीदने से पहले क्यों नहीं कराई। दवा खरीदने के बाद इनकी जांच क्यों कराई जा रही है। इस पर लाखों रुपए का भुगतान निजी लेबों को किया जा रहा है। इन मुद्दों की जांच भी जरूरी है, इसके बाद ही यह गड़बड़ी सामने आ पाएगी। इस मामले में स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण विभाग के आयुक्त पंकज अग्रवाल का कहना है कि मप्र में दवाओं की खरीदी लघु उद्योग निगम द्वारा की जाती है। उसके लिए विधिवत टेंडर प्रक्रिया पूरी की जाती है। दवाओं की गुणवत्ता का ऑकलन प्राप्त करने के बाद ही दवाएं खरीदी जाती हैं। इसके बाद भी दवाओं के अमानक पाए जाने की जानकारी सामने आती है, तो हम ऐसी कंपनियों को ब्लैक लिस्ट कर उनके टेंडर निरस्त करेंगे।
17 डॉक्टरों के इंक्रीमेंट रोके
प्रदेश में अमानक दवाओं की खरीदी किस हद तक हुई है इसका अंदाज इसी से लगाया जा सकता है कि सरकारी अस्पतालों के लिए अमानक स्तर की दवाओं की खरीदी के मामले में 9 सीएमएचओ और 8 अस्पताल अधीक्षकों के इक्रीमेंट रोक दिए गए हैं। अपर संचालक (स्वास्थ्य) ने सीएमएचओ और अस्पताल अधीक्षकों को अमानक दवाओं की खरीदी और सप्लायर के बिलों के भुगतान के लिए दोषी माना है। वर्ष 2009 से 2011 के बीच जेपी अस्पताल समेत प्रदेश के 30 से ज्यादा अस्पतालों में सप्लायर द्वारा भेजी गई दवाएं मरीजों को बांट दी गईं। जबकि नियमानुसार सीएमएचओ और अस्पताल अधीक्षकों को सप्लायर द्वारा भेजी गई दवाओं की लैब में जांच करानी चाहिए थी, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। बाद में जब इन दवाओं के नमूनों की जांच स्टेट ड्रग लेबोरेटरी में कराई गई तो करीब 10 तरह की दवाएं अमानक निकलीं। इन दवाओं की जांच रिपोर्ट मिलने के बाद भी संबंधित दवा सप्लायर्स पर अस्पताल अधीक्षकों और सीएमएचओ ने कार्रवाई नहीं की।
इनकी रूकी वेतन वृद्धि
डॉ. राजेंद्रप्रसाद श्रीवास्तव,अनूपपुर
डॉ. भारतसिंह चौहान जबलपुर
डॉ. अनिल कुमार मेहता,बड़वानी
डॉ. राधेश्याम गुप्ता,दतिया
डॉ. करुणेश चंद्र मेश्राम,मंडला
डॉ. हर्षनारायण सिंह,रीवा
डॉ. महेश कुमार सहलम,छिंदवाड़ा
डॉ. अनूप कुमार कामथन,ग्वालियर
डॉ. कुलदीप कुमार खोसला,बालाघाट
अस्पताल अधीक्षक, जिन्होंने खरीदी अमानक दवा
डॉ.वीणा सिन्हा,भोपाल
डॉ. नारायण प्रसाद सर्राफ ,धार
डॉ. विजय कुमार मिश्रा,मंडला
डॉ. नीरज दुबे,जबलपुर
डॉ. सतीशकुमार त्रिवेदी,इंदौर
डॉ. चक्रधारी शर्मा,उमरिया
डॉ. प्रमोदकुमार श्रीवास्तव,छिंदवाड़ा
डॉ. अमृतलाल मरावी,होशंगाबाद
सबसे दूधारू महकमा
मध्यप्रदेश में लगभग 7,200 करोड़ के बजट वाला स्वास्थ्य महकमा एक ऐसा पारस का पत्थर है कि जो जिस भी अधिकारी या मंत्री को स्पर्श करता है वह तर जाता है। पिछले सालों का इतिहास देखें तो इस महकमें में कई अफसर रातों-रात कुबेर हो गए। हर साल बजट का एक बड़ा हिस्सा खर्च करने के बावजूद प्रदेश के वासियों का स्वास्थ्य कितना सुधरा यह बात दीगर है, लेकिन महकमें से जुड़े अफसरों, कर्मचारियों और नेताओं की आर्थिक स्थिति ऐसी सुधरी है की उनके घरों में करोड़ों रूपए तो बिस्तर से निकल जाते हैं। मध्यप्रदेश के स्वास्थ्य विभाग में 75 हजार कर्मचारी है, जो 50 जिला अस्पताल, 65 सिविल अस्पताल, 333 सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र, 1152 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र तथा 8859 उपस्वास्थ्य केंद्रों सहित अन्य जगह पदस्थ हैं। शहरी क्षेत्र में इसके अतिरिक्त 80 डिस्पेंसरियां भी हैं। बावजुद इसके प्रदेश में अन्य प्रदेशों की अपेक्षा स्वास्थ्य सुविधाएं बदहाल हैं। इसका सबसे बड़ा कारण है भ्रष्टाचार। बीते नौ साल के दौरान इसी विभाग से 600 करोड़ रुपये से अधिक की काली कमाई छापों में मिली है। अब तक पूर्व स्वास्थ्य मंत्री अजय विश्नोई के अलावा एक स्वास्थ्य आयुक्त और तीन संचालकों पर आय से कई गुना अधिक संपत्ति पाए जाने का आरोप है। दरअसल घोटालों का यह सिलसिला 2005 में केंद्र के राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के साथ ही शुरू हो गया था। इस कड़ी में सबसे पहले 2007 में तत्कालीन स्वास्थ्य संचालक डॉ. योगीराज शर्मा और उनके करीबी बिजनेसमैन अशोक नंदा के 21 ठिकानों पर आयकर विभाग ने छापे मारे और गद्दों के अंदर से करोड़ों रुपए बरामद किए। इसके बाद स्वास्थ्य संचालक बने डॉ. अशोक शर्मा के ठिकानों पर 2008 और अमरनाथ मित्तल के ठिकानों पर आयकर छापे पड़े और इनके यहां भी लाखों की अवैध संपत्ति मिली।
2005 से अब तक स्वास्थ्य विभाग में घोटालों का लंबा पुलिंदा है जिसमें फिनाइल, ब्लीचिंग पाउडर से लेकर मच्छरदानी, ड्रग किट, कंप्यूटर और सर्जिकल उपकरण खरीद से जुड़े करोड़ों रुपए के काले कारनामे छिपे हैं। इसी कड़ी में केंद्र की दीनदयाल अंत्योदय उपचार योजना में विभाग के अधिकारियों ने मिलीभगत करके दवा-वितरण में लगभग 658 करोड़ रुपए का चूना लगाया है। नौकरशाही ने पूरी स्वास्थ्य व्यवस्था को इस हद तक बीमार बना दिया है कि अधिकारी ग्रामीण स्वास्थ्य व्यवस्था को दुरुस्त बनाने के लिए केंद्र से भेजे गए 725 करोड़ रुपए का फड भी खर्च नहीं कर पा रहे हैं। दिलचस्प है कि मप्र में हर साल स्वास्थ्य के लिए आवंटित इस बजट के एक चौथाई हिस्से का उपयोग ही नहीं हो पा रहा है। भ्रष्टाचार की हालत यह है कि इस विभाग के अधिकारियों के खिलाफ सबसे अधिक 42 प्रकरण लोकायुक्त में लंबित हैं।
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