शुक्रवार, 30 दिसंबर 2011

परिवार में सिमटता मुलायम सिंह का समाजवाद





अगले दो-तीन साल भारतीय राजनीति के लिए काफी महत्वपूर्ण होंगे. इस दौरान कई राज्यों में विधानसभा चुनाव के अलावा 2014 में आम चुनाव भी होने हैं. सबसे अहम चुनाव देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश के माने जा रहे हैं, जो आगामी छह माह के भीतर संपन्न हो जाएंगे. यहां के चुनाव पर हमेशा देश भर के राजनेताओं और जनता की नज़र रहती है. यहां मिली जीत-हार का प्रभाव केंद्र तक पड़ता है. यही वजह है कि सभी राजनीतिक दलों ने चुनाव से काफी पहले ही रण के लिए बिगुल बजा दिया. कांग्रेस-भाजपा समेत सभी छोटे-बड़े दलों ने अपने-अपने महारथियों को चुनावी दंगल में उतार रखा है. वहीं बसपा सत्ता का भरपूर फायदा उठा रही है. बसपा प्रमुख ने एक बार फिर अपनी पार्टी को सत्ता में लाने के लिए मोर्चा संभाल लिया है. बसपा के बाद सत्ता की सबसे बड़ी दावेदार समाजवादी पार्टी मानी जा रही है. सपा और ख़ासकर 73 वर्षीय मुलायम सिंह के लिए आगामी विधानसभा और 2014 में होने वाले आम चुनाव काफी मायने रखते हैं. कुछ राजनीतिक पंडित भविष्यवाणी कर रहे हैं कि ये मुलायम सिंह के नेतृत्व में लड़े जाने वाले आख़िरी चुनाव साबित हो सकते हैं. इसके बाद सपा को कोई न कोई नया कर्णधार चाहिए. नया कर्णधार कौन होगा, इस सवाल का जवाब भविष्य के गर्भ में छिपा है, लेकिन संकेत यही हैं कि मुलायम अपने बाद भी सपा की बागडोर अपने परिवार में ही रखना चाहेंगे. सपा के नए कर्णधार मुलायम के बड़े बेटे अखिलेश यादव हो सकते हैं और छोटे बेटे प्रतीक भी. प्रतीक का नाम लिए जाने पर काफी लोगों को अटपटा लग सकता है, क्योंकि वह अभी राजनीति से दूर है. उसने राजनीति का ककहरा भी नहीं पढ़ा है, लेकिन कम लोग जानते होंगे कि प्रतीक के पास मैनेजमेंट में मास्टर डिग्री है और उनकी पत्नी अपर्णा के पास राजनीति शास्त्र में. दोनों ने लंदन से शिक्षा हासिल की है. प्रतीक भले ही राजनीति से दूर हों, लेकिन राजनीतिक दांव-पेंचों से अंजान नहीं. अखिलेश यादव भी मुलायम के लिए चिंता का विषय हैं. वह सपा को आगे ले जाने में पूरी ताक़त लगाए हुए हैं, लेकिन उनमें नेताजी वाली बात नहीं है. दूसरी पत्नी साधना गुप्ता का दबाव भी बढ़ता जा रहा है.

समाजवाद आई बबुआ, धीरे-धीरे आई. बेटा से आई, बहु से आई. भतीजा से आई, भाई से आई. मुलायम सिंह यादव के लिए समाजवाद की नई परिभाषा यही है. उन्हें दूसरों पर भरोसा नहीं, इसलिए अपने परिवार के बूते ही समाजवाद लाने का सपना देख रहे हैं. लेकिन क्या उत्तर प्रदेश की जनता उनके इस समाजवाद को स्वीकारेगी?

प्रतीक राजनीति में आएंगे, यह बात किसी को अबूझ पहेली लगे, लेकिन यह हक़ीक़त है. पिता मुलायम सिंह को उनके लिए भी ठीक वैसे ही रास्ता बनाना होगा, जैसा उन्होंने अखिलेश के लिए तैयार किया. संभावना इस बात की है कि प्रतीक 2014 के आम चुनाव में सपा की ओर से साइकिल की सवारी कर सकते हैं. उन्हें मुलायम अपने वर्चस्व वाली किसी संसदीय सीट से प्रत्याशी बना सकते हैं. यह सीट संभल, बदायूं या बहुत उम्मीद है कि इटावा भी हो सकती है. संभल संसदीय सीट इस समय बसपा के पास है, लेकिन मुलायम की वहां अच्छी पकड़ है. इस सीट पर सपा भी अपनी जीत दर्ज करा चुकी है. इटावा संसदीय सीट पर सपा के प्रेमदास कठेरिया विराजमान हैं, जो मौक़ा पड़ने पर प्रतीक के लिए अपनी दावेदारी से पीछे हट जाएंगे. बदायूं की संसदीय सीट भी सपा के खाते में है, जिस पर मुलायम के भतीजे धर्मेंद्र का क़ब्ज़ा है. फिलहाल तो प्रतीक घूमने-फिरने में मस्त हैं, लेकिन हो सकता है कि विधानसभा चुनाव के समय वह सपा के मंच पर दिखें. राजनीतिक पंडितों का कहना है कि मुलायम सिंह प्रतीक को लेकर काफी गंभीर हैं. वह साधना के स्वभाव से भी अंजान नहीं हैं. कहा जा रहा है कि नेताजी प्रतीक को देर-सबेर राजनीति में लाएंगे ज़रूर, लेकिन इस बात का विशेष ध्यान रखा जाएगा कि उनकी राह में कोई रोड़ा न आए यानी जीत सुनिश्चित होने के बाद ही प्रतीक को मैदान में उतारा जाएगा. मुलायम प्रतीक का हश्र बड़ी बहू डिंपल जैसा नहीं चाहेंगे. डिंपल फिरोज़ाबाद संसदीय सीट के उपचुनाव में तमाम दावों के बीच कांग्रेस के उम्मीदवार राजबब्बर से हार गईं थीं, जिससे नेताजी की काफी फज़ीहत हुई थी. अगर प्रतीक को लोकसभा नहीं भेजा जा सका तो उनके लिए राज्यसभा का मार्ग प्रशस्त किया जा सकता है.

इस बार मुलायम सिंह में काफी बदलाव नज़र आ रहा है. जो मुलायम सिंह पिछले चुनावों तक अपने दम पर, दबंगई से फैसले लेकर और चुनौतियां स्वीकार करके चुनावी संग्राम फतेह कर लेते थे, उन्हें अब दबाव में काम करना पड़ रहा है. पूरे राजनीतिक जीवन में अपने फैसलों पर अटल रहने वाले मुलायम इस बार किसी भी फैसले पर अटल नहीं दिख रहे हैं. उनमें जुझारूपन, दृढ़ इच्छाशक्ति, तत्काल निर्णय लेने की क्षमता घटी है. अब वह सबके साथ समान व्यवहार करने और जमीन से जुड़े नेताओं-पदाधिकारियों को स्नेह देने वाले नेता नहीं रहे. ये सारे बदलाव उनमें तबसे दिखाई दे रहे हैं, जबसे अमर सिंह सपा में आए. अब अमर को भी सपा से बाहर हुए जमाना हो गया, लेकिन मुलायम ने एक बार जो ढर्रा पकड़ लिया, उसे फिर नहीं बदला. उनका वह धोबी पाट अब नहीं दिखता, जिससे सामने वाला चारों खाने चित्त हो जाता था. उम्र बढ़ने के साथ मुलायम की हनक-धमक कम हो गई है. अब दबाव डालकर उनका निर्णय बदलवा लिया जाता है. जैसा कि हाल में सुल्तानपुर के लम्हुआ विधानसभा क्षेत्र में देखने को मिला, जहां पहले संतोष को टिकट दिया गया, दबाव पड़ा तो संतोष का टिकट काटकर अनिल पांडेय को दे दिया गया. अनिल तैयारी करने लगे, तभी दोबारा संतोष को उम्मीदवार घोषित कर दिया गया. फिर अनिल के नाम की घोषणा हुई और अंत में सुरभि शुक्ला को प्रत्याशी घोषित कर दिया गया. सपा प्रमुख को क़रीब से जानने वालों का कहना है कि नेताजी बात के धनी हुआ करते थे, उनकी बात पत्थर की लकीर होती थी, इसकी वजह से उन्हें कई बार नुक़सान भी उठाना पड़ा, लेकिन उन्होंने कभी इसकी चिंता नहीं की. यह बात अब नेताजी में नहीं रही. इसी का फायदा उनका परिवार उठा रहा है. दबाव के चलते उन्होंने चालीस प्रत्याशियों के टिकट बांटने के बाद काट दिए, जबकि पहले ऐसा कभी नहीं हुआ. मुलायम को कुछ फैसले परिवार के दबाव में लेने पड़ रहे हैं तो कई फैसले बदलने पड़ रहे हैं. वह पत्नी साधना की चचेरी बहन मधु गुप्ता को लखनऊ का मेयर और सांसद बनाने की भी कोशिश कर चुके हैं. मधु के डॉक्टर पति अशोक कुमार गुप्ता मुलायम की मेहरबानी से सूचना आयुक्त रह चुके हैं. परिवारवालों की महत्वाकांक्षा मुलायम सिंह पर भारी पड़ रही है. ताज़ा मिसाल है, उन्हें अपने सा़ढू प्रमोद गुप्ता (साधना के बहनोई) को टिकट देना पड़ा, जिन्हें औरेया ज़िले की विधूना सीट से कई नेताओं की दावेदारी खारिज कर सपा प्रत्याशी बनाया गया. उम्मीद है कि वह अपनी दूसरी बहू अपर्णा के लिए भी कोई राह ज़रूर निकालेंगे.

तौर-तरीक़ों में बदलाव ने उन्हें तन्हा कर दिया है. सपा के खांटी (समर्पित) नेता उनसे अलग हो चुके हैं. बेनी प्रसाद वर्मा एवं राजबब्बर जैसे नेताओं की बेरुख़ी ने मुलायम को कहीं का नहीं छोड़ा. जो नेता गए, उनमें से आजम को छोड़ किसी ने दोबारा पार्टी की तऱफ रुख़ नहीं किया. आजम की दूसरी पारी भी कोई खास कमाल नहीं कर पाई. उनके विवादास्पद बयानों से मुसलमान ख़ुश तो नहीं हो रहे, लेकिन हिंदू मतदाता सपा से नाराज़ होते जा रहे हैं. आजम सपा के लिए कितने अहम हैं, इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि विधानसभा चुनाव प्रचार के लिए उनकी कहीं से मांग नहीं हो रही है. लोग मुलायम और अखिलेश के अलावा किसी नेता को प्रचार के लिए ज़्यादा तवज्जो नहीं दे रहे हैं, चाहे शिवपाल यादव हों या फिर मोहन सिंह. अखिलेश की तेजी और आजम की वापसी के बीच शिवपाल अलग-थलग पड़ गए हैं. आजम की वापसी और पार्टी में जगह-जगह दख़लंदाज़ी ने रशीद मसूद जैसे नेताओं को बाग़ी बना दिया. मुसलमानों को ख़ुश करने के लिए आजम खां पर नेताजी का ज़रूरत से ज़्यादा विश्वास कहीं सपा की लुटिया न डुबो दे, इस बात पर पार्टी के अंदर बहस होने लगी है. आजम के कारण अहमद हसन जैसे क़द्दावर नेताओं ने ख़ुद को किनारे कर लिया.

मुलायम चौतरफा परेशानियों से घिरे हुए हैं. कल्याण के कारण उनसे मुसलमान नाराज़ हैं तो छोटे भाई अमर सिंह की बेवफाई के बाद पार्टी धन संकट से भी जूझ रही है. पैसे की कमी के कारण प्रचार-प्रसार का काम ठप्प पड़ा है. आर्थिक तंगी से जूझ रही समाजवादी पार्टी को अपने ख़र्चों में कटौती करनी पड़ रही है. बसपा के विज्ञापन प्रिंट से लेकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया तक छाए हुए हैं, लेकिन सपा के पास विज्ञापनों के लिए पैसा नहीं है. अमर के रहते सपा को कभी आर्थिक मोर्चे पर परेशानी का सामना नहीं करना पड़ता था. दुश्वारियों और बदलती सोच ने समाजवाद के लंबरदार मुलायम को अविश्वसनीय बना दिया है. कभी अंग्रेजी के कट्टर विरोधी रहे नेताजी आजकल अंग्रेजी के मोह में इतने फंस गए हैं कि उन्होंने अपनी वेबसाइट ही अंग्रेजी में लांच कर दी. भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष सूर्य प्रताप शाही कहते हैं कि यह बदलाव स्वाभाविक है. घर में कान्वेंट स्कूलों में पढ़े बच्चों की संख्या बढ़ रही है तो मुलायम कैसे अलग रह सकते हैं. सपा प्रमुख भले ही स्वयं को पिछड़ों का नेता कहते हों, लेकिन जब उनके परिवार में कोई रिश्ता जुड़ता है तो वह ऊंची जाति वालों से जुड़ता है. वह घर से लेकर बाहर तक अगड़ों से घिरे हैं तो पिछड़ों का दर्द कैसे बांट और समझ सकते हैं. प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष रीता बहुगुणा जोशी कहती हैं कि मुलायम सिंह प्रदेश की जनता, ख़ासकर मुसलमानों को काफी समय तक धोखे में रखकर अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकते रहे, लेकिन अब उनका फरेब चलने वाला नहीं है. वह एक्सपोज हो चुके हैं. बसपा प्रवक्ता ने कहा कि सपा की राजनीतिक हांडी बार-बार नहीं चढ़ने वाली. सपा में कोई दम नहीं रह गया है, वह बाप-बेटों और भाइयों की पार्टी बनकर रह गई है. पूर्व मुख्यमंत्री एवं जनक्रांति पार्टी के अध्यक्ष कल्याण सिंह ने कहा मुलायम सिंह मौक़ापरस्ती की राजनीति करते हैं. उनके अगल-बगल बैठे लोगों ने उन्हें कठपुतली बनाकर रख दिया है. मुलायम सिंह को जनता से अधिक अपने परिवार की चिंता है. उसी चिंता में वह अपना सब कुछ खोते जा रहे हैं, उनका समाजवाद परिवार तक सिमटता जा रहा है.
सामंतवादी मुलायम!

मुलायम सिंह को नई उपमा मिली है सामंतवादी होने की. यह उपाधि उनके क़रीबी दे रहे हैं. बाराबंकी के सपा नेता छोटेलाल यादव खुलेआम कहते घूम रहे हैं कि सामंतवादी मुलायम फॉरवर्ड (अगड़ों) की राजनीति करने लगे हैं. उनका (छोटेलाल) टिकट काटकर नेताजी ने बसपा प्रत्याशी संग्राम सिंह के कहने पर उनके एक कारिंदे धर्मराज सिंह को टिकट बेच दिया, ताकि संग्राम सिंह की जीत पक्की हो सके.
शादी में राजनीति के रंग

मुलायम सिंह यादव के दूसरे बेटे की शादी अपने पीछे कई सवाल छोड़ गई है. इस शादी में उन्होंने पैसा पानी की तरह बहाया, वहीं मेहमानों में कुछ ऐसे चेहरे शामिल थे, जिनके वहां होने की उम्मीद कम की जा रही थी यानी अमिताभ बच्चन, जया बच्चन और उद्योगपति अनिल अंबानी. इन तीनों की मुलाकात अमर सिंह के मार्फत मुलायम से हुई थी. अमर सिंह की अनुपस्थिति में इन लोगों की मौजूदगी का लोग अपने-अपने हिसाब से आकलन करते रहे. अमर सिंह से राजनीतिक दुश्मनी का रंग मुलायम के व्यक्तिगत जीवन में भी दिखा. मुलायम ने बहू भोज कार्यक्रम में सभी दलों के नेताओं को बुलाया था, लेकिन बसपा नेता आने की हिम्मत नहीं जुटा सके. जो आए भी तो अपनी गाड़ी का झंडा उतार कर. नौकरशाहों ने आमंत्रण के बाद भी अपनी उपस्थिति दर्ज नहीं कराई. उन्हें डर था कि सरकार नाराज़ हो सकती है. कुछ ऐसे अधिकारी ज़रूर दिखे, जो मायाराज में किनारे पड़े हैं और मुलायम सरकार बनने की आस लगाए बैठे हैं. कहा जा रहा है कि बहू भोज कार्यक्रम में सरकार की ख़ु़फिया नज़र लगी थी, क्योंकि एलआईयू के लोग कार्यक्रम स्थल के आसपास टहलते देखे गए. वैवाहिक कार्यक्रम में जिन नेताओं ने अपनी उपस्थिति दर्ज कराई, उनमें भाजपा के राजनाथ सिंह, कांग्रेस के प्रमोद तिवारी एवं सांसद जगदंबिका पाल प्रमुख थे.
कुछ छूटे तो कई ने किनारा किया

कभी समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ता उसके प्राण हुआ करते थे. समाजवाद का झंडा लेकर मुलायम जिस तऱफ चल पड़ते, उनके पीछे चलने वालों की भीड़ लग जाती. किसी को भी चंद मिनटों में अपना मुरीद बना लेने की महारथ रखने वाले मुलायम की आवाज़ में दम था और जनता की नब्ज़ पर मज़बूत पकड़. मुलायम को कोई धरती पुत्र कहता तो कोई मुल्ला मुलायम. वह समाजवाद का ऐसा चेहरा थे, जिसमें लोगों को राम मनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण का अक्स दिखता था. क़द के छोटे और इरादों के पक्के मुलायम जब चाहते, कार्यकर्ताओं को साथ लेकर किसी के ख़िला़फ भी हल्ला बोल देते थे. उन्होंने कई लोगों को ज़मीन से उठाकर आसमान पर बैठा दिया. केंद्र में उनकी तूती बोलती थी, वामपंथी उन पर भरोसा करते थे और कांग्रेसी भी मौक़ा पड़ने पर उनसे हाथ मिलाने से परहेज नहीं करते थे. भाजपा को मुलायम सांप्रदायिक पार्टी कहकर चिढ़ाते, लेकिन ज़रूरत पड़ने पर उससे हाथ भी मिला लेते. 1992 में अयोध्या मुद्दे पर उनके द्वारा बोला गया वाक्य परिंदा भी पर नहीं मार पाएगा…एक ऐसा डायलॉग बन गया, जिसके बारे में आज भी चर्चा सुनने को मिल जाती है. कुछ लोग मानते हैं कि अयोध्या विवाद में हिंदुओं को उकसाने में मुलायम के उक्त डायलॉग ने अहम भूमिका निभाई थी. इसी बयान के बाद कट्टर हिंदूवादी ताक़तें मज़बूत हो गईं, जिसकी परिणति बाबरी मस्जिद ध्वंस के रूप में हुई. लंबे समय तक प्रदेश और देश की राजनीति में अहम किरदार निभाने वाले मुलायम के पास कभी साथियों की कमी नहीं रही. सभी वर्ग के नेता उनके साथ जुड़े हुए थे. वह सबको उचित सम्मान देते थे. राजबब्बर, बेनी प्रसाद वर्मा, जनेश्वर मिश्र, मोहन सिंह, सुरेंद्र मोहन, अहमद हसन, अशोक वाजपेयी, अमर सिंह, किरण पाल, आजम खां, श्यामा चरण गुप्त, राम नारायण साहू ,रेवती रमण सिंह, ओम प्रकाश सिंह, राजा भैया, राम गोपाल यादव, रशीद मसूद एवं सलीम शेरवानी आदि दमदार नेताओं की एक लंबी-चौड़ी फौज हुआ करती थी. इन्हें साथ लेकर मुलायम ने राजनीति में कई मुक़ाम हासिल किए, लेकिन आज इनमें से कई उनका साथ छोड़कर चले गए हैं, वहीं कुछ ने पार्टी में होते हुए भी ख़ुद को किनारे कर लिया. कभी जाटों के नेता किरण पाल सपा प्रमुख की ताक़त हुआ करते थे. उनके सहारे मुलायम ने कई लड़ाइयां जीतीं, लेकिन अब वह बाहर हैं. मुस्लिम चेहरे के नाम पर अब आजम खां ही दिखाई देते हैं. अहमद हसन जैसे नेता शो पीस बनकर रह गए हैं. ब्राह्मण नेता जनेश्वर मिश्र का निधन हो चुका है और अशोक वाजपेयी ने ख़ुद को हरदोई तक सीमित कर लिया है. दलित चेहरे विशंभर प्रसाद और श्याम लाल रावत अब कहीं नहीं दिखते. सपा के वैश्य नेताओं में वेद प्रकाश अग्रवाल अग्रणी हुआ करते थे, वह भी पार्टी से अलग हो गए हैं. एक अन्य वैश्य नेता श्यामा चरण गुप्त ने अपना दायरा सीमित कर लिया है. पिछड़ों को लुभाने के लिए सपा प्रमुख ने बेनी प्रसाद वर्मा एवं राम नारायण साहू को मोर्चे पर लगा रखा था. बेनी कांगे्रसी हो चुके हैं और साहू भगवा रंग में रंग चुके हैं. गाजीपुर के ओम प्रकाश सिंह भी कुछ खास नहीं कर पा रहे हैं. आजम खां और शिवपाल यादव के बीच छत्तीस का आंकड़ा है. आजम के चलते रामपुर की सांसद जया प्रदा भी मुलायम से दूर हो गईं. कन्नौज के छोटे सिंह यादव, गुन्नौर (बदायूं) की उर्मिला यादव, विनोद उर्फ कक्का एवं महाराज सिंह यादव जैसे दबंग नेता भी पार्टी से दूर चले गए.
एक और पुराना साथी दूर हुआ

आजम खां से नाराज़ और मुलायम की चुप्पी से दु:खी पूर्व केंद्रीय मंत्री एवं सांसद रशीद मसूद ने समाजवादी पार्टी से किनारा कर लिया. अब वह कांगे्रस का परचम लहराएंगे. उन्हें आजम खां से नाराज़गी के अलावा मुलायम सिंह की वादाख़िला़फी का दु:ख है. उन्होंने सपा की सदस्यता के साथ ही राज्यसभा की सदस्यता से भी त्यागपत्र दे दिया. ऐन चुनाव के समय सपा से बग़ावत करके कांगे्रस का हाथ मज़बूत करने वाले रशीद मसूद को केंद्र से लालबत्ती और पुन: राज्यसभा सदस्य बनने का तोह़फा मिल सकता है. मसूद ने कहा कि मुलायम अपने पुराने वफादारों के साथ अखिलेश और आजम के माध्यम से ग़लत बर्ताव करा रहे हैं. उन्होंने शिवपाल यादव के साथ हो रहे व्यवहार पर भी चिंता जताई. मसूद ने कहा कि सेहत ठीक न होने और याददाश्त कमजोर हो जाने से मुलायम सिंह की पार्टी पर पकड़ नहीं रही. पार्टी नादान लोगों के क़ब्ज़े में है. आजम खां सपा को बाहर रहकर बर्बाद नहीं कर पाए तो भीतर आकर बर्बाद करने में लगे हैं. मुसलमानों और अति पिछड़े हिंदुओं को आरक्षित कोटे में आबादी के अनुसार आरक्षण देने की मांग उठाते हुए मसूद ने कहा कि उन्हें 1997 में भी पार्टी से निकाल दिया गया था. बाद में इस मुद्दे पर सार्वजनिक माफी मांगने की बात करके मुलायम सिंह ने उन्हें मनाया और कहा कि वह पश्चिमी उत्तर प्रदेश को अलग राज्य बनाने की मांग छोड़ दें, सरकार बनने पर पिछड़े मुसलमानों और अति पिछड़े हिंदुओं को आरक्षण दे दिया जाएगा. 2003 से 2006 तक मुख्यमंत्री रहने के बावजूद उन्होंने इस तऱफ ध्यान नहीं दिया. सहारनपुर से पांच बार लोकसभा सदस्य और दो बार राज्यसभा सदस्य रहे रशीद मसूद ने कहा, मैंने मुलायम सिंह से टिकटों के बंटवारे में मुसलमानों के साथ हुई ज़्यादती सुधारने को कहा, लेकिन आजम के कारण कोई असर नहीं पड़ा. कई ऐसी सीटें हैं, जहां मुसलमानों की तादाद ज़्यादा होने के बावजूद दूसरे लोगों को टिकट दिए गए. शिवपाल यादव के साथ हो रहे बर्ताव के आरोप में दम लगता है. पिछले कुछ दिनों से सपा में जो कुछ चल रहा है, उसे अनदेखा नहीं किया जा सकता. बसपा के कद्दावर नेता नसीमुद्दीन के भाई हसीनुद्दीन को समाजवादी पार्टी में शामिल करने के नाम पर जो नाटक हुआ, उससे पार्टी की काफी किरकिरी हुई. सपा में पहली बार किसी फैसले पर ऐसा विरोधाभास दिखा. विवाद की शुरुआत बीते 13 नवंबर को हुई. इस दिन कानपुर के सर्किट हाउस में हसीनुद्दीन पहली बार सार्वजनिक रूप से शिवपाल यादव के साथ दिखे. घोषणा की गई कि वह पार्टी में शामिल हो गए हैं, लेकिन 20-25 दिनों के बाद सपा के प्रदेश अध्यक्ष अखिलेश यादव की ओर से जारी बयान में इसका खंडन कर दिया गया. अखिलेश ने जिस तरह चाचा शिवपाल के फैसले को पलटा, उसी तरह शिवपाल ने भी सार्वजनिक रूप से कह दिया कि उन्होंने हसीनुद्दीन को पार्टी में शामिल कराया और वह उनके साथ हैं. इस संबंध में जब मीडिया ने सवाल उठाए तो अखिलेश ने इसे पार्टी का अंदरूनी मामला कहकर पल्ला झाड़ लिया.

चाचा-भतीजे के इस विवाद की आग में कुछ माह पूर्व सपा में लौटे एक नेता घी डालने का काम कर रहे हैं. कहा जाता है कि अखिलेश को क्रांति रथ पर सवार कराने के पीछे इन्हीं नेताजी का दिमाग़ था. उन्होंने ऐसा माहौल बना दिया, मानो अखिलेश मुख्यमंत्री बनने जा रहे हैं. इस बीच कुछ लोगों के टिकट काटने में उक्त नेताजी का नाम एक बार फिर चर्चा में आया. सपा का मुस्लिम चेहरा समझे जाने वाले इन नेताजी के चलते शिवपाल यादव के कुछ लोगों के टिकट काट दिए गए, शिवपाल ने विरोध भी किया, लेकिन सपा प्रमुख इसलिए कुछ बोल नहीं सके कि कहीं मुश्किल से बनी बात बिगड़ न जाए, क्योंकि सपा को मुसलमानों को रिझाने के लिए एक मुस्लिम चेहरे की दरकार है. रशीद मसूद ने कहा कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश की 135 सीटों पर मुख्य मुक़ाबला कांग्रेस-रालोद गठबंधन और बसपा के बीच होगा. पश्चिमी उत्तर प्रदेश को अलग राज्य बनाने का विरोध करने वाली समाजवादी पार्टी 8-10 सीटें भी जीत ले तो यह उसके लिए एक बड़ी उपलब्धि मानी जाएगी. सहारनपुर, मुरादाबाद, मेरठ, अलीगढ़ और आगरा मंडल में कांग्रेस-रालोद गठबंधन को अधिकांश सीटें मिलेंगी. भाजपा तीसरे और सपा चौथे स्थान पर रहेगी.

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