शनिवार, 14 मई 2011
कुंवर सिंह के बहाने
भोपाल। स्वाधीनता के प्रथम संघर्ष के अनेक नायक अतीत के अंधेरे में गुम हो चुके है, लेकिन कुछ ऐसे हैं जिनका शौर्य आज भी देशवासियों को प्रेरित करता है। इनके तेज से तत्कालीन साम्राज्यवादी शासक भी अच्छी तरह अवगत हुए। ऐसे ही रणबांकुरे थे भोजपुर जिले के जगदीशपुर गांव के बाबू कुंवर सिंह। यह बात यहां स्वराज भवन में बाबू कुंवर सिंह के बलिदान दिवस पर आयोजित कार्यशाला में युवा पत्रकार विनोद उपाध्याय ने की।
बिहार के बक्सर जिला के निवासी श्री उपाध्याय ने कुंवर सिंह के जीवनवृत प्रकाश डालते हुए कहा कि कुंवर सिंह का जन्म 1782 में हुआ। इनके पिता बाबू साहबजादा सिंह प्रसिद्ध शासक भोज के वंशजों में से थे। उनके छोटे भाई अमर सिंह, दयालु सिंह और राजपति सिंह एवं इसी खानदान के बाबू उदवंत सिंह, उमराव सिंह तथा गजराज सिंह नामी जागीरदार रहे तथा अपनी आजादी कायम रखने के खातिर सदा लड़ते रहे। 1846 में अंग्रेजों को भारत से भगाने के लिए हिंदू और मुसलमानों ने मिलकर कदम बढ़ाया। मंगल पांडेय की बहादुरी ने सारे देश में विप्लव मचा दिया। बिहार की दानापुर रेजिमेंट, बंगाल के बैरकपुर और रामगढ़ के सिपाहियों ने बगावत कर दी। मेरठ, कानपुर, लखनऊ, इलाहाबाद, झांसी और दिल्ली में भी आग भड़क उठी। ऐसे हालात में बाबू कुंवर सिंह ने भारतीय सैनिकों का नेतृत्व किया।
विनोद उपाध्याय के अनुसार 27 अप्रैल 1857 को दानापुर के सिपाहियों, भोजपुरी जवानों और अन्य साथियों के साथ आरा नगर पर बाबू वीर कुंवर सिंह ने कब्जा जमा लिया। अंग्रेजों की लाख कोशिशों के बाद भी भोजपुर लंबे समय तक स्वतंत्र रहा। जब अंग्रेजी फौज ने आरा पर हमला करने की कोशिश की तो बीबीगंज और बिहिया के जंगलों में घमासान लड़ाई हुई। बहादुर स्वतंत्रता सेनानी जगदीशपुर की ओर बढ़ गए। आरा पर फिर से कब्जा जमाने के बाद अंग्रेजों ने जगदीशपुर पर आक्रमण कर दिया। बाबू कुंवर सिंह और अमर सिंह को जन्म भूमि छोडऩी पड़ी। अमर सिंह अंग्रेजों से छापामार लड़ाई लड़ते रहे और बाबू कुंवर सिंह रामगढ़ के बहादुर सिपाहियों के साथ बांदा, रीवां, आजमगढ़, बनारस, बलिया, गाजीपुर एवं गोरखपुर में विप्लव के नगाड़े बजाते रहे। ब्रिटिश इतिहासकार होम्स ने उनके बारे में लिखा है, 'उस बूढ़े राजपूत ने ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध अद्भुत वीरता और आन-बान के साथ लड़ाई लड़ी। यह गनीमत थी कि युद्ध के समय कुंवर सिंह की उम्र अस्सी के करीब थी। अगर वह जवान होते तो शायद अंग्रेजों को 1857 में ही भारत छोडऩा पड़ता।
विनोद उपाध्याय ने कहा कि सन् 1857 से बहुत पहले कुंवर सिंह जवानी पार कर चुके थे। जब देश में चारों ओर विद्रोह की ज्वाला फूटी उस समय उनकी अवस्था लगभग 70 वर्ष की थी। उनका स्वास्थ्य खराब हो चुका था।
उपाध्याय के अनुसार कुंवर सिंह के पास जमीनें बहुत अधिक थीं। उन्हें लगभग 3 लाख रुपये किराया उन जमीनों से मिलता था। वे 1 लाख 48 हजार रुपये का सालाना कर अदा करते थे। लेकिन वे अशिक्षित थे और अपनी जागीरों की देखभाल को लेकर बहुत सावधान नहीं थे। तत्कालीन अंग्रेज कमिश्नर टेलर ने उनके बारे में लिखा है, 'बाबू कुंवर सिंह जिला शाहाबाद की कीमती और लंबी-चौड़ी जागीरों के मालिक हैं। वे पुराने और भद्र परिवार से संबंध रखते हैं। सहृदय और लोकप्रिय कुंवर सिंह को उनके बटाईदार बहुत प्रेम करते हैं। जिले के देसी और यूरोपीय सभी उनकी इज्जत करते हैं। लेकिन ज्यादातर राजपूतों की तरह बाबू भी पूरी तरह अशिक्षित हैं। वे आसानी से चालबाजी में आ जाते हैं और अपने एजेंटों के हाथ की कठपुतली हैं। पूर्वजों से मिली शाहखर्ची की आदतों के कारण उनके खर्च बहुत हैं। इस कारण वे हमेशा उधार में दबे रहते हैं।Ó
जून, 1857 में जब वहाबी नेताओं को गिरफ्तार किया गया और विद्रोहियों को फांसी दी गई तब शाहाबाद के मजिस्ट्रेट वेक ने खुलेआम कुंवर सिंह पर सिपाहियों के साथ मिलीभगत का आरोप लगाया। इन खबरों पर बातचीत करने के लिए जुलाई में टेलर ने उन्हें पटना बुलाया। खराब स्वास्थ्य का बहाना बनाकर कुंवर सिंह ने यह यात्रा रद्द कर दी। वहाबी नेताओं के साथ जो हुआ, उसके आधार पर कुंवर सिंह जानते थे कि टेलर का न्योता उनकी गिरफ्तारी का षडयंत्र भी हो सकता है। वेक के आरोपों और टेलर के न्यौते ने कुंवर सिंह को चौकन्ना कर दिया था। वे विद्रोह में अपनी भूमिका पर विचार कर ही रहे थे कि विद्रोहियों ने आरा से आकर उनसे नेतृत्व की प्रार्थना की। वह उनके नैसर्गिक नेता थे। ज्यादातर सिपाही राजपूत थे और उनके बटाईदार। उनकी सैनिक शिक्षा न के बराबर थी। लेकिन, राजपूत होने के कारण उन्हें अपने आप पर पूरा भरोसा था। कुंवर सिंह के मुख्य सेनानायकों में उनके भाई अमर सिंह, उनके भतीजे रितुभंजन सिंह, उनके तहसीलदार हरकिशन सिंह और उनके मित्र निशान सिंह थे। शाहाबाद के राजपूत यह सिद्ध करना चाहते थे कि उनकी जाति की ताकत अभी समाप्त नहीं हुई है।
विनोद उपाध्याय ने कहा कि आरा में सिपाहियों ने कैदियों को जेल से छुड़ा लिया और खजाने को लूट लिया। फिर वे यूरोपियों की तलाश में निकले और आरा हाउस पर हमला किया। यहां घिरे अंग्रेजों को बचाने के लिए बंगाल तोपखाने के मेजर विंसेंट को भेजा गया। विंसेंट को जिस जंगल को पार करना था, उसके पास जोरदार लड़ाई हुई। विंसेंट के तोपखाने और एनफील्ड राइफलों के सामने सिपाहियों की मस्किटें निष्प्रभावी साबित हुईं। कुंवर सिंह ने फिर बीबीगंज में उसके आगे बढऩे को चुनौती दी। उनके धारदार हमले के कारण सैनिक धीरे-धीरे पीछे हट रहे थे। इसी समय संगीनों के हमले ने सिपाहियों की दाहिनी पांत को तोड़ दिया और रास्ता बन गया। यह लड़ाई 2 अगस्त की रात को हुई और अगली सुबह तक आरा फिर से अंग्रेजों के कब्जे में आ गया था। इस हार से कुंवर सिंह विचलित नहीं हुए। वे आरा से अपने पूर्वजो के किले जगदीशपुर में आ गए जहां विंसेंट ने उनका पीछा किया। यहां भी कड़ा मुकाबला हुआ लेकिन, आरा की तरह यहां भी अंग्रेजों को अपने उन्नत हथियारों का लाभ मिला। अंग्रेजों ने भयंकर अत्याचार किए। यहां तक कि घायल सिपाहियों को भी फांसी पर लटका दिया गया। कुंवर सिंह द्वारा बनवाए गए एक मंदिर को ध्वस्त कर दिया गया। जगदीशपुर महल और दूसरी इमारतें खंडहरों में बदल गईं।
कुंवर सिंह की सेना पराजित हुई। उनका गढ़ नष्ट हो गया। लेकिन, बूढ़ा शेर अभी पालतू नहीं हुआ था। जगदीशपुर के जंगलों से हटाए जाने पर वे रोहतास की पहाडिय़ों में आ गए। यहां वे ब्रिटिश संचार सेवा की जीवन रेखा ग्रैंड ट्रंक रोड के लिए खतरा हो गए। बाद में उन्होंने और भी जोखिम भरी योजनाएं बनाईं। सितंबर की शुरुआत में कुंवर सिंह रीवा में दिखाई दिए। लेकिन, उनका अंतिम मुकाम दिल्ली होने की बात कही जाती है। रीवा के अंग्रेज भक्त राजा ने उनका प्रतिरोध किया और कुंवर सिंह को मजबूरन उसका इलाका छोड़ देना पड़ा। इस समय 500 के अलावा बाकी सिपाहियों ने बूढ़े सरकार का साथ छोड़ दिया था। पूरे सितंबर वे मिर्जापुर-रीवा इलाके में भटकते रहे। अक्टूबर में वे बांदा आए, जहां के नवाब पहले ही विद्रोह में शामिल हो चुके थे। कहा जाता है कि कानपुर पर हमला करने के लिए नाना ने कुंवर सिंह को निमंत्रित किया था।
इस समय तक दिल्ली अंग्रेजों के हाथों में आ चुकी थी और बदली हुई परिस्थतियों के मद्देनजर कुंवर सिंह को अपनी योजनाओं में फेरबदल करना पड़ा। इसलिए या तो नाना या ग्वालियर की टुकड़ी या दोनों के निमंत्रण पर नवंबर में कानपुर पर होने वाले दूसरे हमले में भाग लेने वे बांदा से कालपी आए। अगर निशान सिंह की बात पर यकीन करें तो कानपुर की उस लड़ाई में नाना उपस्थित थे जिसमें तात्या ने विंढैम के ऊपर यादगार जीत हासिल की थी। सर कॉलिन के हाथों तात्या की हार के बाद कुंवर सिंह मराठा सरदारों के साथ कालपी नहीं गए। इसके बजाय वे लड़ाई के सबसे महत्तवपूर्ण स्थान लखनऊ आए।
फरवरी 1858 में कुंवर सिंह लखनऊ और दरियाबाद के बीच कहीं थे। मार्च में वे पहले से भी ज्यादा सक्रिय हो गए। गोरखा आजमगढ़ के इलाके से विद्रोहियों को साफ कर रहे थे। लेकिन, जब वे लखनऊ पर आखिरी हमले में सर कालिन की सहायता करने इलाके से चले गए तो बाज की दृष्टि वाले बूढ़े राजपूत ने आजमगढ़ शहर से बीस मील दूर अतरौली नामक गांव पर हमला कर दिया। यहां के कमांडर कर्नल मिलमैन ने उनका मुकाबला किया लेकिन उसे हराकर भागने के लिए मजबूर कर दिया गया। कुंवर सिंह ने इसके बाद आजमगढ़ पर कब्जा किया। शहर पर फिर से कब्जा करने के लिए गाजीपुर से आए कर्नल डेम्स के छक्के छुड़ा दिए गए और उसके अनेक आदमी मारे गए। एक के बाद एक दो हारों और आजमगढ़ के हाथ से निकल जाने के कारण अंग्रेजों की इज्जत को गहरा धक्का लगा। लखनऊ पर कब्जे के बाद ही इसे फिर से बनाया जा सका।
विनोद उपाध्याय ने कहा कि कुछ ही समय बाद आजमगढ़ पर कब्जा करने के लिए एक बड़ी सेना भेजी गई। इतनी बड़ी सेना के सामने कुंवर सिंह को जीत की कोई संभावना नजर नहीं आई और उन्होंने बिहार लौट जाने का निर्णय किया। बिहार जाने के क्रम में उन्होंने अपने पीछे लगे जनरल डगलस के साथ कई शातिराना लड़ाइयां लड़ीं। ऐसी एक लड़ाई का मैलसन ने इस प्रकार वर्णन किया है, 'अपने दस्तों के लिए, जिन्हें दो भागों में बांट दिया गया था, पीछे हटने के दो रास्ते तैयार होने तक कुंवर सिंह ने डगलस को दूरी पर रखा। फिर वे आराम से पीछे आ गए और उनके कई आदमियों के मारे जाने के बावजूद उनके सिपाहियों के चेहरों पर शिकन तक नजर न आई। इस तरह वे शिवपुर घाट पहुंच गए और डगलस के आने के पहले ही बहुत कुशलता और रफ्तार से उन्होंने गंगा पार कर ली।Ó
विनोद उपाध्याय ने कहा कि कुंवर सिंह अब अपने नष्ट हो चुके घर जगदीशपुर की ओर बढ़ रहे थे। गंगा पार करते समय तोप के एक गोले ने उनकी एक बांह घायल कर दी। कहा जाता है कि अपनी धारदार तलवार के एक ही वार से अपनी घायल बांह को उन्होंने काट डाला और गंगा की पवित्र धारा में उसे अपने आखिरी चढ़ावे के तौर पर फेक दिया। इस समय तक उनके पास बमुश्किल दो हजार आदमी थे और ये सभी युद्ध से थके हुए और अच्छे हथियारों से लैस नहीं थे। आरा के कैप्टेन लिग्रैंड इसी जंगल में विंसेंट के कारनामों को दुहराना चाहते थे। परन्तु उत्साही अंग्रेज यह भूल गया कि मरता हुआ शेर बिजली की तरह हमला कर सकता है। आरा के जंगलों में कुंवर सिंह ने अंग्रेज टुकड़ी को बुरी तरह पराजित किया। 150 सैनिकों में से लिगै्रंड सहित 100 लोग मारे गए।
इस लड़ाई के अगले दिन 24 अप्रैल को कुंवर सिंह की मृत्यु हो गई। वे विजेता के रूप में इस धरती से विदा हुए। भयंकर लड़ाइयों के बावजूद उन्होंने राजपूतों की शानदार परंपरा को बरकरार रखा। उनके सबसे बुरे विरोधी भी मासूम अंग्रेजों का खून बहाने का आरोप उन पर नहीं लगा सकते थे।
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