मध्य प्रदेश के शासन-प्रशासन में अराजकता और भ्रष्टाचार का बोलबाला है. ऐसे में यदि वन विभाग में जंगलराज चल रहा है तो यह आश्चर्य का विषय नहीं है, क्योंकि जंगलराज हमारी प्रशासनिक संस्कृति की विशेषता बन चुका है. इस सरकार में हिम्मत कोठारी से लेकर कुंवर विजय शाह और राजेंद्र शुक्ल तक वन मंत्री रहे और अब जि़म्मा सरताज सिंह पर है. इसी तरह अफ़सरों में प्रशांत मेहता के अलावा सर्वाधिक चर्चित अधिकारी पीवी गंगोपाध्याय रहे. इस विभाग में व्याप्त भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने की बात तो सबने की लेकिन जंगल के इस राज में वे भी खो गए। यही नहीं वन विभाग का मुखिया बनते ही सरताज सिंह ने ख़ुद स्वीकार किया किया था कि 67 अफ़सरों के खि़लाफ़ विभागीय जांच लंबित है. इनमें एक दजऱ्न से ज़्यादा आईएएफ भी शामिल हैं. इन मामलों में न पहले कभी कोई कार्रवाई हुई और न अब कोई रुचि ली जा रही है.यहां तक की इनमें से ज्यादातर दागी अधिकारियों को महत्वपूर्ण जिम्मेदारी सौप दी गई है।
जंगल महकमे में आरोपियों को महत्वपूर्ण पदों पर नवाजा है। यही नहीं, आरोपित अधिकारियों की जांच समाप्त किए बिना ही उन्हें पदोन्नत कर दिया गया। साथ ही वनमंत्री सरताज सिंह ने आला अफसर को बचाने के लिए सदन में न केवल गोलमाल जवाब, बल्कि उनकी पदस्थापना की जानकारी भी गलत दी गई।
राज्य विधानसभा में भाजपा विधायक नागेन्द्र सिंह ने पन्ना नेशनल पार्क से बाघों के गायब होने और केन्द्र शासन की रिपोर्ट में राज्य शासन के अधिकारियों को दोषी के संबंध में सवाल पूछे गए थे। इसके जवाब में वनमंत्री सिंह ने बताया कि केन्द्र शासन द्वारा गठित समिति द्वारा विभाग के उच्च अधिकारियों के उत्तरदायित्व पर टिप्पणी की गई किन्तु व्यक्ति विशेष का नाम नहीं लिया गया है। सत्तारुढ़ दल के विधायक के ही सवाल के जवाब में वनमंत्री ने पीसीसीएफ (वन्य प्राणी)डा. एच.एस. पावला को एक बार फिर बचाने का प्रयास किया। यहां यह उल्लेखनीय है कि पन्ना नेशनल पार्क से बाघों के गायब होने के मामले केन्द्र शासन द्वारा गठित समिति की रिपोर्ट को आज दिनांक तक वनमंत्री सिंह ने सार्वजनिक नहीं किया, जबकि उनके स्वयं के बयान थे कि रिपोर्ट को सार्वजनिक कर दिया जाएगा। यही नहीं, उन्होंने तो यहां तक कहा था कि इसकी जांच सीबीआई से कराई जाएं। दरअसल, इस मामले में जब डा. पावला का नाम आया तो वे पीछे हट गए। विभागीय सूत्रों की मानें तो केन्द्र शासन की समिति ने अपनी रिपोर्ट में तत्कालीन पीसीसीएफ (वन्य प्राणी) डा. पी.वी.गंगोपाध्याय और तत्कालीन एपीसीसीफ (वन्य प्राणी) डा. पावला को कसूरवार ठहराया गया है। सनद रहे कि डा. गंगोपाध्याय सेवानिवृत्त हो चुके है और डा. पावला स्वयं पीसीसीएफ वन्य प्राणी के पद को सुशोभित कर रहे है।
राज्य विधानसभा में ही रेखा यादव के अतारांकित सवाल के लिखित जवाब में आरोपित अधिकारियों की सूची सदन के पटल पर दी गई है। आरोपित अधिकारियों की सूची में एक नाम अपर प्रधान मुख्य वन संरक्षक जव्बाद हसन का भी है। जव्बाद हसन को आरोपित किया गया है कि उन्होंने आय से अधिक सम्पत्ति अर्जित की है। हालांकि यह आरोप बहुत ही पुराना है। तब श्री हसन भोपाल सर्किल के वन संरक्षक हुआ करते थे। उनके साथ तत्कालीन डीएफओ बी.के. सिंह को आरोपित बनाया गया है। वनमंत्री ने अपने जवाब में बताया है कि इस संबंध में विभागीय शिकायत एवं सतर्कता शाखा ने जांच प्रतिवेदन 22 दिसम्बर 10 को महानिरीक्षक राज्य आर्थिक अपराध अन्वेषण ब्यूरो को जांच प्रतिवेदन भेज दिया है। गौरतलब है कि अपर प्रधान मुख्य वन संरक्षक जव्बाद हसन को प्रशासन-दो जैसा महत्वपूर्ण शाखा का काम दिया गया। इस शाखा में वन रक्षक से लेकर रेंजर तक के स्थानांतरण - प्रमोशन और उनके विरुद्ध लंबित जांच पर कार्रवाई करने का कार्य संपादित किया जाता है। महकमें में हमेशा से यह आरोप लगता रहा कि प्रशासन-दो में स्थानांतरण और पदस्थापना को लेकर भारतीय मुद्रा के आचमन करने के आरोप लगते रहे हैं। विधानसभा में दिए गए जवाब के अनुसार आरोपित आईएफएस अधिकारियों की सूची में अन्य नाम इस प्रकार है- व्ही.के.नीमा, उत्तम शर्मा, सुखलाल प्रजापति, निरंकार सिंह, सुधीर कुमार पंवार, यू.के. सुबुद्धी, बी.के. वर्मा, पी.के पलाश, अतुल जैन, वाय.पी. सिंह, आर.डी. शर्मा, आर.के.शुक्ला, पुरुषोत्तम धीमान, सुश्री बी मुनै्म्मा, सुदीप सिंह, मनोज अग्रवाल, ए.के. भूगांवकर, डा. एम.सी, शर्मा, के.एस. भदौरिया, पंकज अग्रवाल, के.एस.नेताम, एस.एस.राजपूत, असित गोपाल, प्रताप सिंह चम्पावत, हरिशचंद्र गुप्ता, आर.आर.ओखंडियार, और आर.डी. महला। वनमंत्री द्वारा दिए गए जवाब में आजाद सिंह डवास की पदस्थापना भी गलत बताई गई है। डवास वर्तमान में झाबुआ में पदस्थ है और उन्हें बैतूल का सीसीएफ बताया जा रहा है।
मध्य प्रदेश कभी हरे-भरे वनों से आच्छादित सुरम्य प्राकृतिक दृश्यों से शोभायमान हुआ करता था, लेकिन अब तो हरियाली केवल सरकारी विज्ञापनों में ही दिखाई देती है. राजमार्गों पर जगह-जगह सरकार रंग-बिरंगे होर्डिंग्स लगा रही है, जिन पर लिखा है हरा-भरा मध्य प्रदेश. लेकिन, जब हम इस होर्डिंग्स के आसपास नजऱें दौड़ाते हैं तो सूखा, बंजर और भयभीत करने वाले दृश्य ही दिखाई देते हैं.
वन विभाग में फर्जीवाड़े और भ्रष्टाचार के और भी ढेरों मामले हैं। इस विभाग में भ्रष्टाचार का आलम यह है कि जिधर भी नजर डालो, उधर भ्रष्टाचार सामने आ जाता है। वन विभाग की ही एक इकाई लघु वनोपज संघ ने दो साल पहले 40 टैंकर सिंचाई के नाम पर खरीदे थे। ये टैंकर अहमदपुर डिपो में दो साल से खुले में पड़े सड़ रहे हैं, किंतु उन्हें वनों में नहीं भेजा गया। इसी तरह वन विहार में मृत पशुओं के दाह संस्कार के लाखों की लागत का इंसीनिरेटर खरीदा गया था, जो वहां आज तक नहीं लगाया गया है और यह भी विभाग के कबाडख़ाने में पड़ा सड़ रहा है। प्रश्न यह है कि यदि टैंकर और इंसीनिरेटर का कोई उपयोग ही नहीं था, तो इन्हें खरीदा ही क्यों गया? इसका सीधा-सा जवाब है कि मात्र कमीशनखोरी के लिए ये खरीदी की गई।
अहमदपुर डिपो के पास वन विभाग गत तीन साल से कार्बन सिंह पार्क का विकास कर रहा है। यहां लगाए गए वृक्षों की सुरक्षा के लिए लाखों रुपए खर्च कर फायर फाइटिंग (रेती का सुरक्षा घेरा) बनाना बताया गया। इसके बाद भी इस पार्क में पिछले दो साल में आग लगने की छह घटनाएं हो चुकी है, जिनमें सैकड़ों पौधे झुलस गए। जब फायर फाइटर थे, तो पेड़ कैसे जले? इस प्रतिनिधि ने मौके पर जाकर देखा कि इस पार्क में एक भी वृक्ष के आसपास फायर फाइटर नहीं बनाया गया। इतना ही नहीं, जहां बड़ी-बड़ी घास उग रही है, उसे भी काटने की जरूरत नहीं समझी गई, जिससे निकट भविष्य में फिर आग लगने का खतरा बरकरार है। कार्बन सिंह पार्क पहाड़ी इलाका है, जहां पत्थर ही पत्थर है। वन विभाग के अधिकारियों ने यहां तालाब बनवाया है, जिसमें न तो गुणवत्ता का ध्यान रखा गया और न ही नियमपूर्वक काम हुआ। शासन के निर्देश हैं कि किसी भी निर्माण कार्य में 60 प्रतिशत स्थानीय श्रमिक लगाएं और 40 प्रतिशत कार्य मशीनों से कराया जाए। लेकिन इस निर्माण का पूरा काम मशीनों से करवाकर मजदूरों के फर्जी वाउचर बनाकर सरकारी पैसा हड़प लिया गया। इस प्रतिनिधि ने तालाब के तल में जाकर देखा तो पाया कि उस पर रोड रोलर तक नहीं चलाया गया है। ऐसे में यदि बारिश का पानी यहां एकत्र हुआ तो तालाब का फूटना सुनिश्चित है।
इसी पार्क में स्टाप डेम सह तालाब बनाया गया है। इस काम में पहाड़ी क्षेत्र में कांक्रीट का बेस भरकर तराई होना थी, किंतु एक बार भी पानी नहीं दिखाया गया। स्टाप डेम की ऊंची दीवाल की पिचिंग ट्रेक्टर से करवाई गई, जो रोलर से होना थी। इस पूरे काम में लोहे के सरिए का कहीं उपयोग नहीं किया गया है। इस निर्माण कार्य में भी 80 फीसदी काम मशीन से हुआ और जो 20 प्रतिशत मजदूर थे, वे भी स्थानीय नहीं थे। यहां खदाई में निकले पत्थर अधिकारी बेचने की फिराक में हैं।
प्रदेश में वनों के सुदृढ़ीकरण और संरक्षण के लिए एक ओर करोड़ों रुपये ख़र्च किए जा रहे हैं तो वहीं दूसरी तरफ़ जंगलराज की वज़ह से माफिया और अफ़सर चार अरब से ज़्यादा की राशि डकार गए. पोल खुलने पर अफ़सर एक-दूसरे पर दोष मढऩे पर उतारू हैं. सरकार ने भी किसी दोषी के खि़लाफ़ अब तक कोई कार्रवाई नहीं की है. राज्य सरकार पांच करोड़ बांस और अन्य पौधे लगाकर वनों को आच्छादित करने की क़वायद कर रही है, लेकिन वनों को बचाने के लिए उसकी हर कसरत औंधे मुंह गिर रही है. वानिकी दिवस मनाने वाली सरकार ने यह देखने की ज़रूरत नहीं समझी कि दो दशक पूर्व अरबों रुपये ख़र्च कर तैयार की गई सामाजिक वानिकियों का क्या हश्र हुआ है. किस तरह बंदरबांट हुई और करोड़ों डकारने वाले अफसरों का अब तक कुछ भी नहीं बिगड़ा. इनमें से ज़्यादातर तो रिटायर हो चुके हैं.
वन विभाग संभवत: एकमात्र ऐसा सरकारी विभाग है, जिसके आला अफसरान कोई काम नहीं करना चाहते हैं। अलबत्ता सरकारी योजनाओं को पलीता लगाकर अपना घर भरने के मामले में बहुत आगे हैं। भ्रष्टाचार करने के लिए इस विभाग के अफसरान किस हद तक जालसाजी कर सकते हैं, इसका एक सनसनीखेज मामला सामने आया है, जिसमें केंद्र सरकार द्वारा भेजे गए अनुदान पत्र की फोटो कॉपी कर दोबारा अवैध तरीके से राशि निकाल ली गई। यह जानकारी सामने आने के बावजूद जिम्मेदार अधिकारी के विरुद्ध कोई कार्रवाई नहीं की गई, उल्टे उसकी पदोन्नति कर दी गई। हालांकि इस मामले में कार्रवाई किए जाने संबंधी प्रपत्र तैयार किया गया था, लेकिन साल भर बीतने के बाद भी यह मामला ठंडे बस्ते में है।
केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने औबेदुल्लागंज स्थित रातापानी अभयारण्य और सिंघोरी अभयारण्य में वन्य प्राणियों के संरक्षण और अन्य विकास कार्यों के लिए अप्रैल 2008 में 50 लाख रुपए स्वीकृत किए गए थे। उक्त दोनों अभयारण्यों में अप्रैल 2008 से 31 जनवरी 2009 तक विभिन्न कार्य दर्शाना बताया गया, जिन पर 85 लाख रुपए खर्च करना बताया गया। सवाल यह है कि जब केंद्र सरकार ने 50 लाख रुपए ही आवंटित किए थे, तो 85 लाख रुपए खर्च कैसे हो गए? प्रधान मुख्य वन संरक्षक (वन्य प्राणी) द्वारा केंद्र से प्राप्त अनुदान आवंटित करते समय लिखित में यह निर्देश दिए जाते हैं कि आवंटन से अधिक व्यय कदापि नहीं किया जाए। अधिक व्यय के लिए आप (जिन्हें बजट आवंटित किया जाता है) जिम्मेदार होंगे। इसके बावजूद अधिकारियों ने आवंटन से अधिक व्यय कर डाला।
आवंटित बजट के अतिरिक्त 35 लाख की व्यय राशि कहां से आई? वन विभाग से सूचना के अधिकार के तहत प्राप्त जानकारी के अनुसार अप्रैल 2008 से जनवरी 2009 के मध्य 85 लाख के कार्य किए गए। 35 लाख की इस राशि को पानी के लिए औबेदुल्लागंज में पदस्थ वन मंडलाधिकारी ने फर्जीवाड़ा किया। पता चला है कि इस अधिकारी ने 50 लाख के बजट आवंटन प्रपत्र की फोटो कॉपी कराई और उस आधार पर शासकीय कोष से 35 लाख रुपए निकालकर खर्च करना दर्शा दिया। सूत्र बताते हैं कि यदि मौका मुआयना किया जाए तो इस खर्च में भी भारी गड़बड़ी उजागर होना तय है।
जब फर्जीवाड़ा कर 35 लाख का अतिरिक्त अनुदान पाने का खुलासा हुआ तो विभाग ने लेखा शाखा में पदस्थ शुक्ला नामक लिपिक को वहां से हटा कर स्थापना शाखा में भेज कर उसे कारण बताओ नोटिस जारी कर दिया गया। वन मंडलाधिकारी, औबेदुल्लागंज ने इस बाबत एक प्रपत्र राज्य शासन और वन विभाग के उच्चाधिकारियों को भेजा। साल भर से अधिक समय गुजर जाने के बाद भी न तो शासन ने और न ही विभाग ने इस पर कोई कार्रवाई नहीं की। रातापानी और सिंघोरी अभयारण्य में जब यह जालसाजी हुई, तब वहां निरंकार सिंह वन मंडलाधिकारी के रूप में पदस्थ थे। इनके विरुद्ध विभाग ने कोई कार्रवाई तो नहीं की, उल्टे उन्हें पदोन्नति देकर कंजरवेटर बना दिया गया, जो अब टीकमगढ़ में पदस्थ हैं। सूत्र बताते हैं कि प्रधान मुख्य वन संरक्षक नेगी और प्रधान मुख्य वन संरक्षक (अनुसंधान एवं विस्तार) एमएस राणा ने ले-देकर मामला ठंडे बस्ते में डाल दिया है। विभागीय सूत्र बताते हैं कि निरंकार सिंह जब राजगढ़ में पदस्थ थे, तब वनारोपण में भारी फर्जीवाड़ा किया गया, जो जांच में सिद्ध भी हो गया था, किंतु तत्कालीन वन मंत्री विजय शाह की कृपा से उन्हें बचा लिया गया था। इसी का नतीजा है कि इस वन अधिकारी ने केंद्रीय अनुदान में भी फर्जीवाड़ा कर डाला और पदोन्नति पाकर अब भी डंके की चोट पर नौकरी कर रहा है।
वनों की रक्षा करने और वन क्षेत्र बढ़ाने के लिए सरकारी वन विभाग है, लेकिन यह विभाग कैसे काम करता है, सभी को मालूम है. विभाग के छोटे-बड़े अफसर सरकारी पैसा ख़र्च करना जानते हैं, लेकिन काम करना नहीं. क़ागज़ों पर हिसाब बराबर दिखाया जाता है, लेकिन बाद में पोल खुल जाती है. करोड़ों रुपये ख़र्च करके बनाया गया पन्ना टाइगर रिजर्व में आज एक भी टाइगर नहीं बचा है. इसे वन विभाग ने स्वीकार भी किया है. इसी तरह और भी वन्यप्राणी अभ्यारण्य हैं, जहां जानवर बेमौत मारे जाते हैं. संरक्षित वनों में पेड़ और क़ीमती पौधे काटे जाते हैं. जगह-जगह वनों में माफियाओं का क़ब्ज़ा है. वनकर्मी उनसे डरे रहते हैं या फिर लाभ लेकर चुप बैठे रहते हैं.
चौंकाने वाली बात तो यह है कि वन मंडलाधिकारी बालाघाट एवं रीवा क्षेत्र में नक्सलियों और डकैतों के ख़ौफ़ की बात कर रहे हैं. दूसरी तरफ़ कई वन अधिकारियों ने सालों से बांस एवं इमारती-जलाऊ लकड़ी के उत्पादन, विक्रय और पैसों का कोई हिसाब-किताब ही नहीं रखा. वन माफिया और अफसरों की मिलीभगत के चलते 222.67 करोड़ रुपये की धनराशि सरकारी खज़़ाने तक नहीं पहुंच सकी. इसके अलावा बांस और इमारती लकड़ी के कूपों का विदोहन न किए जाने से 10 करोड़ 29 लाख, कम उत्पादन दर्शाने से 4 करोड़ 48 लाख, वन उपज की गुणवत्ता में लापरवाही बरतने से 1 करोड़ 37 लाख, लेखाजोखा न रखने से 62 लाख, इमारती लकड़ी का पुनर्मापन किए जाने से 60 लाख, कम क़ीमत पर बिक्री किए जाने से 48 लाख और अन्य कई गंभीर अनियमितताओं से 185 करोड़ 58 लाख रुपये की हेराफेरी की गई. राज्य के छिंदवाड़ा पश्चिम, देवास, डिंडौरी, जबलपुर, खंडवा, मंडला पश्चिम, शहडोल उत्तर एवं विदिशा सामान्य वन मंडलों में कूप नियंत्रण पुस्तिकाएं उचित ढंग से नहीं तैयार की गईं. ऐसा जानबूझ कर किया गया, ताकि पोल न खुल सके. बालाघाट और रीवा के वन मंडलाधिकारियों ने यह कहकर पल्ला झाड़ लिया कि वे डकैतों और नक्सलियों के कारण कूपों का विदोहन नहीं कर सके. यही नहीं, बालाघाट में कोई भी निजी ट्रांसपोर्ट कूपों से डिपो तक वन उपज का परिवहन करने के लिए तैयार नहीं हुआ. हक़ीक़त यह है कि प्रदेश में धड़ल्ले से बड़े पैमाने पर हो रही अवैध कटाई में कहीं ऐसी दिक्क़त नहीं हो रही है.
भोपाल वन मंडल के अंतर्गत बालमपुर वन क्षेत्र में अवैध खनन किया जा रहा है। वन सीमा पर बनाई गई मुनारों को पीछे कर अवैध उत्खनन कराया जा रहा है। बताया जाता है कि यह काम कर रहे ठेकेदार को वन सीमा से बाहर खनन की अनुमति दी गई थी, किंतु उसने कागज में कूटरचना कर लीज जमीन का दायरा बढ़ा लिया, जिसमें विभागीय अधिकारी उसकी खुल कर मदद कर रहे हैं। यहां वन क्षेत्र में जेसीबी मशीन से मुरम-पत्थर का खनन किया जा रहा है। यह मामला सामने लाए जाने के बावजूद वरिष्ठ अधिकारियों ने कोई कदम इसलिए नहीं उठाया, क्योंकि उन तक भी हिस्सा पहुंच गया है।
इछावर के जंगलों में पिछले कुछ समय से सागौन के वृक्षों का तेजी से सफाया किया जा रहा है। आम, नीम, सत्कट और बबूल की आड़ में सागौन वृक्ष काटे जा रहे हैं। यहां से रोजाना चार-पांच ट्रक लकड़ी जा रही है, जिसकी बाकायदा टीपी भी जारी हो रही है। जिसके नाम पर टीपी जारी होती है, उसका वाहन में बैठना अनिवार्य है, किंतु इस नियम का पालन नहीं हो रहा है। इतना ही नहीं, नियमों को धता बता कर ट्रकों पर त्रिपाल ढांकी जा रही है, जो इस बात का प्रमाण है कि यहां सागौन की कटाई हो रही है। आकस्मिक छापे में इसका भंडाफोड़ हो सकता है।
वन विभाग में वर्षों से निचले स्तर पर भर्ती नहीं हुई है। ऐसे में जहां निचले कर्मचारी सेवानिवृत्त हो रहे हैं, वहीं अधिकारी पदोन्नति पा रहे हैं। विभागीय सूत्रों की मानें तो वर्ष 2015 तक यहां ऐसी स्थिति हो जाएगी कि अधिकारी तो थोक में रहेंगे और कर्मचारी होंगे ही नहीं। पिछले साल विभाग में नाकेदारों की भर्ती की गई थी, जिसमें पात्रों को दरकिनार कर अपात्रों का चयन किया गया। इसमें चयनित 13 लोगों के विरुद्ध जबलपुर हाईकोर्ट में जनहित याचिका दायर की गई है कि शारीरिक रूप से अक्षम और कम ऊंचाई वाले लोगों का भी चयन किया गया है। यह मामला अभी विचाराधीन है।
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