देश में लोकतंत्र की स्थापना के 58 साल बाद भी हमारी नौकरशाही का चाल, चेहरा, चरित्र वही पुराना है। अंग्रेजी शासनकाल के दौरान देश में प्रशासन का जो ढांचा तैयार किया गया था उसका मकसद जनता की सेवा करना और उसके प्रति संवेदनशील और जवाबदेह होना कतई नहीं था। पारदर्शिता के बजाय सरकारी गोपनीयता पर ज्यादा जोर दिया गया और इसका कानून भी बना। लेकिन आजादी के बाद भी यह कानून चलता रहा। अब यह कानून अस्तित्व मेें नहीं है और सूचना के अधिकार के रूप में लोगों के पास अब पारदर्शिता का हथियार तो आ गया है, लेकिन सरकारी कामकाज का रंग-ढंग अब भी वैसा ही है।
मध्यप्रदेश में कार्य करने की संस्कृति को नौकरशाहों ने रद्दी की टोकरी में फेंक दिया है। वैसे उसके दोषी राजनेता है जो संविधान तो बनाते हैं, लेकिन उतनी दृत्रढता से पालन नहीं करवाते हैं। प्रदेश के पिछत्रडने का कारण ही कार्य संस्कृति है। वेतन भत्तों से लबरेज और सुविधाएं पाने में सबसे आगे रहने वाले इन नौकरशाहों पर थैलीशाहों का कब्जा हो गया है। इनका अब कार्य करने में मन नहीं लगता है बल्कि किसी अच्छे काम को उलझाने में महारत हासिल हो चुकी है। काम के घंटे सरकार ने तय किये हैं, लेकिन कोई अधिकारी इस भीत्रडतंत्र में कार्य संस्कृति के अनुरूप कार्य करता है तो उसे अनकल्चर्ड अधिकारी सनकी, तुनकमिजाज और यहां तक की 'अरे वह तो पागल है ' की संज्ञा देकर जनता में बदनाम किया जाता है। आखिर किसी ने यह जानने की कोशिश की इतनी आराम तलब नौकरी को लात मारकर आईएएस जनसेवा में क्यों चले जा रहे हैं।
आखिर क्या कारण रहे कि इतनी सुविधा और अधिकार संपन्न ओहदे को छोत्रडकर आईएएस जनसेवा मेें चले गए और वहां पर संतोषी सदा सुखी का जीवन भी जी रहे हैं। स्वाभाविक है कि जनसेवा ओहदे पर बैठकर भी की जा सकती है लेकिन इन्हेें कहीं न कहीं ऐसा लगा कि फाइलों की अत्रडंगेबाजी उनके इस कार्य मे रोत्रडे ही नहीं अटकाएगी बल्कि न चाहते हुए भी कई ऐसे निर्णयों का अपरोक्ष रूप से भागीदार बनना पत्रडेगा जिसके लिए उनका जमीर इजाजत नहीं देता है। अपने समय के सक्त एवं ईमानदार आईएएस रहे बीडी शर्मा (ब्रम्हदेव शर्मा) नर्मदा बचाओ आंदोलन में शरीक होकर डूब प्रभावितों के हकों की लत्रडाई लत्रडते रहे इस दौरान उनकी गिरफतारियां भी हुई, लेकिन यह कार्य करने से उन्हें आत्मसंतोष है। हरीश रावत ने इस ओहदे को छोत्रडकर दूसरा रास्ता चुना। अजय सिंह यादव बेहद ईमानदार और सख्त छवि रखने वाले इस अधिकारी ने बीच में ही आईएएस पद को तिलांजलि दे दी। एक कार्यक्रम में उन्होंने कहा था कि 'मेरा दम घुटता था अब मैं स्वतंत्र हूं।' इनकी ही राह पर चले हर्ष मंदर, जिकी रूचि और तैनाती ट्राइबल क्षेत्र में रही इन्होंने भी बीच मेें ही मंत्रालय को नमस्ते कर एक एनजीओ के माध्यम से जनसेवा मेें जुट गए हैं। आखिर क्या कारण है कि इस उच्चश्रेणी के ओहदे को पाने के लिए लोग अपना सर्वस्व दांव पर लगा देते हैं, लेकिन इस पद पर आने के बाद न जाने किन कारणों से उन्हें विरक्ति हो जाती है। इन कारणों की खोजबीन कर उसका हल ढूंढना होगा वरना वह दिन दूर नहीं कि जब इस ओर कोई आना नहीें चाहेगा लेकिन अभी के अधिकांश अधिकारी इसलिए नौकरी छोत्रड रहे हैं कि उन्हें मोटी तनख्वाह में विदेशों में पत्रढाना है या फिर बहुराष्ट्रीय कंपनियों मेें ऊँचे ओहदे पर जाना है। ऐसे भी उदाहरण हैं जिन अधिकारियों ने अपने स्वर्णिमकाल मेें जिस बत्रडी कंपनी का वर्क कल्चर से हटकर काम किया है बाद मेें उसी कंपनी में आईएएस की नौकरी छोत्रडकर वह अधिकारी दिखाई दिया। कोई पत्रढाई के नाम पर गायब, तो कोई बंदा रिसर्च के नाम पर ऐश कर रहा है। इन्हें कोई कुछ नहीं बोलता, क्योंकि ऐसा बताया जाता है कि आईएएस की कमी है। आश्चर्य की बात यह है कि प्रशासनिक सुधार के नाम पर जितने भी काम हुए हैं उनका तो एक-एक करके अंत हो गया है। मध्यप्रदेश के प्रशासनिक अधिकारियों की कार्य करने की जिम्मेदारी और निपटान के लिए समय सीमा तय है। इसको लेकर समय-समय पर कमेटियां भी बनी हैं और उसके निर्देशों का पालन कैसे हुआ है यह प्रदेश की बदतर प्रशासनिक व्यवस्था बता रही है। काम किसी का विलंब से न हो और निर्बाध गति से हो इसके लिए आईएएस प्रशिक्षण की मातृ संस्था मसूरी से भी अधिकारियों की टीम आ चुकी है, लेकिन हम नहीं सुधरेंगे की तर्ज पर टीम के निर्देश हवा में उत्रडा दिए गए। किसी भी फाईल का निपटान करने के लिए व्यवहारिक रूप से ती स्तरीय व्यवस्था लागू है लेकिन हालात यह है कि प्रदेश मेें पांच और छह स्तरीय प्रणाली से काम चलाया जा रहा है। नतीजा फाईल निपटान में देरी और लंबित फाईलों का अंबार लगना स्वाभाविक है। जहां तक टेञफलॉजी की बात है, तो प्रदेश के आईएएस से दूसरे प्रदेश के अधिकारी इसका भरपूर उपयोग कर रहे है। यहां लेपटॉप और कम्प्यूटर तो ले लिए गए लेकिन उसका सही रूप से उपयोग करने के बजाय कोर्ट बाबू की तरह चेटिंग करने के काम आ रहा है। लेपटॉप खरीदने में राज्य सरकार को चूना लगा वह अलग से। यहां के आईएएस नियम कायदे और समय से काम करने के बजाया अपनी कुर्सी बचाने के लिए क्या उद्योगपति और क्या उल्टा-सुल्टा करने में लगे हुए हैं। इस समझौतावादी प्रवृति ने इनके काम करने के जुनून को मार दिया है। मसूरी और मंत्रालय की ट्रेनिंग मेें जमीन आसमान का अंतर है। मंत्रालय के कामकाज करने के तरीके को देखकर यही कहा जा सकता है कि चलती चाकी देकर दीया कबीरा रोय। मध्यप्रदेश इतना भुगत चुका हे कि प्रशासनिक सुधार करने में पसीने आ रहे हैं। अब फाइलों को निपटाने के लिए विकेन्द्रीकरण की बात की जा रही है, फिलहाल तो आलम यह है कि फाईल में मुद्दे छोटे हों या बत्रडे, सभी मंत्री की टेबल से होकर गुजर रहे हैं। इन्हें प्रमुख सचिव स्तर के अधिकारी भी निपटा सकते हैं, लेकिन काम करने की दबगंता अपने-अपने स्वार्थो के चलते मर चुकी है, अधिकारी कब आयेगा और कब जाएगा और कब छुट्टी मनाएगा। इसके लिए मापदंड तय है लेकिन इन मापदंडो का पालन कौन कर रहा है इस वर्क कल्चर को देखकर तो शायद यही कहा जा सकता है कि कोई भी नहीं। छुट्टियों के मामले में यह लोग स्कूली बच्चों से आगे हैं। वर्ष के अंतिम माह में लंबी छुट्टी पर जाने का अंग्रेजियत रिवाज है, जो बदस्तूर जारी है। बीच में एकाध कोई प्रशासनिक मुखिया नियम कायदे के आते हैं तो लंबी छुट्टी पर रोक तो लग जाती है लेकिन बहानों की गंगा में डूबकी लगाकर नया बहाना हाथ में थमाया और चलते बने।
ऐन-केन प्रकारेण धन पाने की लालस ने अधिकारी की कार्य संस्कृति को मार दिया है। हालात यह हो गई कि वह चाहे मध्यप्रदेश हो या यूं कहिए कि सूबेदार अपने विवेक को ताले में बंद रखकर उनकी बनाई हुई राह पर चलता है। ऐसे में कौन अधिकारी मूर्ख होगा जो मुखिया को मुखिया मानकर व्यवहार करेगा। जब मुखिया की हालत वैसाखियों पर चलने जैसी हो जाए तब कौन इन अधिकारियों से हिसाब मांगेगा। जिस जनता के टैक्स से इन अधिकारियों की मोटी तनख्वाह निकलती है उनके काम करने में फाईल या तो मिलती नहीं है या फाईल इतनी मोटी हो जाती है कि उसका कि उसका निराकरण कोई जन भी नहीं कर सकता है। उपसचिव, सचिव और न जाने कितने सचिवों की एक जानलेवा शृंखला रावण की मुंडी की तरह एक दूसरे से जुत्रडी हुई है। सार्वजनिक शौचालय के काम भी इन मुंडियों के हस्ताक्षर के बिना पूरा नहीं होता है। ऐसे में कोई मुंडी बीच में से गायब हो जाए, तो मामला पेंडिंग। अब लंबित मामले को और लंबित करने की कला भी इनके ही पास है झट एक जिज्ञासा वाला प्रश्न लिखा और फाईल नीचे रख दी। फाईल जिस गति से आई थी उसी गति से सद्गति को प्राप्त हो जाती है और उसके मरने की खबर किसी को भी लगती नहीं है। लेकिन थैलीशाहों की फाईल पर नौकरशाहों की नजर ही नहीें होती है, बल्कि नजारे इनायत भी होती है। किसी जमीन का उपयोग बदलना हो या हाईराइज बिल्ंडिग की परमिशन, जंगल से खेत खेत से जंगल और कालानाइजर्स बंधुओ के काम के लिए एक नहीं दस-दस बार केबिनेट बैठ जाएगी। बार-बार अधिकारी वही फाईल मीटिंग में लेकर आएगा जिसका सौदा पट चुका है। इन सौदों की भनक तक नहीं लगती और क्या निर्णय लिए गए वह जानना तो आम आदमियों के लिए दूर की कौत्रडी है। लेकिन ऐसे में किसी मूंगफली बेचने वाले का लोन मंजूर होता है या किसी के इलाज के लिए सरकारी खजाने से पैसे निकलते हैं तो बाजार में दौंडी पीट-पीटकर सुनो....सुनो.... चिल्लाया जाता है। थैलीशाहों के नाजायज काम को जायज करते समय दौंडी पीटी जाती है ऐसा कभी सुनाई नहीं दिया। वह तो कुछ विभीषण रहते हैं जो दूसरे खेमे में बात फैलाकर रायता ढोलने में कामयाब हो जाते हैं। वरना आम आदमी तो आज भी तहसीलदार के दफतर में घुसने के लिए चपरासी से जुगत भित्रडाते हुए अक्सर दिखाई देता है। ऐसे में एक सवाल फिर खत्रडा होता है कि इस सूरत को कौन बदलेगा। सार्वजानिक जीवन मेें पत्रढे लिखों का धीरे-धीरे टोटा हो रहा है और यह टोटा ही राज्य का असली विकास की टोटी बंद किए हुए है। शिक्षित मुखिया आईएएस जमात से उनकी ही भाषा में बात करने वाला होता है तो सूबा अपने आप तरक्की करता है और जन्नोमुखी काम होते हैं। इसके उदाहरण है डी.पी.मिश्रा, अर्जुनसिंह, वीरेन्द्र कुमार सखलेचा, सुंदरलाल पटवा जिन्होंने अपने विवेक के घोत्रडे को किसी आईएएस के अस्तबल में बांधा नहीं है बल्कि अपने हिसाब से चाबूक लेकर इन अधिकारियों की समय-समय पर खबर ली है और नतीजा आज सामने है कि इनके कार्यकाल को आम और खास दोनों जमात याद रखती है। वैसे देखा जाए तो सन् 1993 से लेकर अभी तक आईएएस मंडली किसी न किसी विक्रम के कांधे पर बेताल की तरह चिपकी हुई है और उसे मालूम है कि विक्रम को उलझाकर रखेंगे तो पेत्रड पर उल्टा लटकने की बारी नहीं आएगा।
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