मध्यप्रदेश में महिलाओं और बच्चों के समग्र विकास के लिए जिम्मेदार महिला एवं बाल विकास विभाग मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का सबसे लाडला विभाग है। अपने लाडले विभाग पर मुख्यमंत्री की मेहरबानियां भी जमकर बरसती है। जिसका फायदा उठाकर इस विभाग के मंत्री से लेकर पलायनवादी अफसरों के भ्रष्टाचार ने इस विभाग को खोखला बना दिया है। यह केवल हमारा आंकलन नहीं , बल्कि खुद मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की व्यथा भी है। आंकड़े भी तो यही बता रहे हैं कि मध्यप्रदेश में पिछले पांच साल में लगभग छह लाख बच्चे कुपोषण और बीमारियों से मर गए, लेकिन राज्य सरकार पर इसका कोई असर नहीं हुआ है। सबसे दर्दनाक पहलु यह है कि इन शिशुओं को बचाने के लिए विधानसभा ने जो बजट सरकार को दिया था वह भी सरकार ने खर्च नहीं किया। मप्र में शिशु मृत्यु दर देश में सबसे अधिक है और इंटरनेशनल फूड रिसर्च इंस्टीटय़ूट की रिपोर्ट कहती है कि मध्यप्रदेश भूख के मुंहाने पर खड़ा है।
मध्यप्रदेश में सरकार की जनोपयोगी योजनाएं किस तरह मंत्रियों, नेताओं और अफसरों की लालसा भ्रष्टाचार की शिकार हो रही हैं, इसका नजारा महिला एवं बाल विकास विभाग के बजट और उससे होने वाली खरीददारी तथा परिणामों को देखकर सहज में अनुमान लगाया जा सकता है। भ्रष्टाचार में लिप्त अपने मंत्रियों और अधिकारियों की कारगुजारियों से व्यथित शिवराज सिंह का विक्षोभ और गुस्सा हाल ही में राजधानी स्थित रविन्द्र भवन में उस समय देखने को मिला, जब अभी तक वातानुकूलित कमरे में बैठ कर महिला एवं बच्चों के सर्वांगिण विकास के लिए योजनाएं बनाने वाली विभागीय मंत्री रंजना बघेल ने रविन्द्र भवन में कुपोषण से मुक्ति पाने की योजना बनाने के लिए बैठक आयोजित कर विभाग की पारदर्शिता दिखाने का प्रहसन किया तो मुख्यमंत्री ने इस दिखावे पर अपना आपा खो दिया। हालांकि उन्होंंने मंत्री महोदया को तो शब्दों के माध्यम से कुछ नहीं कहा लेकिन उनके सामने ही विभाग की पोल खोल डाली। उन्होंने कहा कि मैं कुपोषण के बचाव के लिए इतना पैसा दे रहा हूं, फिर भी हालात इतने खराब क्यों है? सारा पैसा कहां जा रहा है? मुख्यमंत्री के इस संवेदनशील रूख को देखकर जिम्मेदारियों के प्रति उपेक्षा बरतने के टाइप्ड हो चुके अधिकारी भी सन्न रह गए। दरअसल आंकड़ों और दूसरी जानकारियों के पहाड़ों में उच्च अधिकारी जनप्रतिनिधि को ऐसा उलझाते हैं कि अक्सर जनप्रतिनिधि समझ नहीं पाते कि इनके नीचे छिपा सच क्या है। मुख्यमंत्री ने पूरी गंभीरता से अधिकारियों की जिम्मेदारियों को तय किया। उन्हें बताया कि आखिर वे किस लिए अपनी सेवाएं दे रहे हैं। मुख्यमंत्री को कहना पड़ा कि जो लोग वेतन की बात कर रहे हैं उन्हें नौकरी छोंड़ देनी चाहिए। यह एक मुखिया कि व्यथा कि हद है। जब उसे कहना पड़े कि आप अगर ठीक से काम नहीं कर सकते तो नौकरी छोंड दें। इसका निहितार्थ यही है कि नौकरी सिर्फ वेतन नहीं होती है यह लोकतांत्रिक व्यवस्था में सेवा, कर्तव्य और जिम्मेदारी मिला-जुला रूप है। हालांकि जो प्रश्न मुख्यमंत्री ने अपने आक्रोशित भाषण में उठाया है वही प्रश्न जनता की ओर जनप्रतिनिधियों के लिए भी उठाए जा सकते हैं। आखिर क्या कारण है कि मुख्यमंत्री भी स्वयं तब स्थितियों का आंकलन कर रहे हैं। जब उन्हें आंकड़ो के बारे में बताया जा रहा है। क्या इसकी जानकारी समय-समय पर दूसरे स्त्रोंतो से नहीं मिल रही थी। या नहीं दी जा रही थी। सवालों से अधिक यह मामला जिम्मेदारी को वहन करने का है। मुख्यमंत्री और संबंधित विभाग के मंत्री अपनी जिम्मेदारियों को पूरी शक्ति से अधिकारियों और मैदानी अमले तक अगर प्रेषित नहीं कर सकते हैं तो यह असफलताएं उनका पीछा नहीं छोड़ सकती हैं। वैसे भी देखा जाए तो महिला एवं बाल विकास विभाग कमाई का सबसे आसान माध्यम माना जाता है। अब तक इस विभाग में जो मंत्री रहा है वह केवल कमाई में ही लिप्त रहा है, चाहे शासन कांग्रेस का हो या भाजपा का।
मुख्यमंत्री की इस वेदना को काश विभागीय मंत्री महोदया पहले समझ सकती तो उन्हें तथा उनके अधिकारियों को भरी सभा में नीचा नहीं देखना पड़ता। लेकिन सरकार की तरफ से मिल रहे बेपनाह बजट को बेवजह खरीदी की आड़ में खात्मा लगाने में व्यस्त मंत्री महोदया और आलाधिकारी यह भूल गए कि भले ही वह सरकारी कागजों पर मुख्यमंत्री को बरगला सकते हैं लेकिन हकीकत का कोई न कोई तो पीछा कर रहा है। आज स्थिति यह है कि प्रदेश में कुपोषण से हो रही मौतों ने शिवराज सिंह चौहान की आंखें खोल दी हैं। क्योंकि मप्र में महिला एवं बाल विकास विभाग को इन बच्चों को बचाने के लिए महिलाओं एवं बच्चों को पोषण आहार के लिए जो बजट 2001 में 22 करोड़ रुपए मिलता था, वह बढ़कर 348 करोड़ तक पहुंच गया है, लेकिन इस विभाग में भ्रष्टाचार किस कदर हावी है, यह पिछले दिनों आयकर विभाग के छापे के दौरान देखने मिला। इस विभाग की प्रमुख सचिव टीनू जोशी के घर से तीन करोड़ रुपए नगद बरामद किए गए। महिला एवं बच्चों के पोषण आहार के बजट पर दलालों की तीखी नजर रहती है। बेशक सरकार ने पोषण आहार का काम मप्र एग्रो इंडस्टी को सौंपा है, लेकिन वहां भी दलाल पहुंच गए हैं और उन्होंने एग्रो से मिलकर यही राशि हड़पने की कवायद शुरू कर दी है।
पिछले दिनों झाबुआ में एक के बाद एक 40 बच्चों की कुपोषण से हुई मौत के बाद जब केन्द्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्री कृष्णा तीरथ ने क्षेत्र का दौरा कर स्थिति का जायजा लिया तब मुख्यमंत्री को इसकी खबर लगी। लेकिन मुख्यमंत्री करें भी तो क्या? गर्भवती महिलाओं के लिए आने वाले केन्द्र व राज्य के बजट पर आला अफसरों और दलालों की गिद्ध दृष्टि लगी हुई है। महिला एवं बाल विकास विभाग की मंत्री करोड़ों खर्च कर अपना महल बनाने में व्यस्त हैं वहीं प्रमुख सचिव (पूर्व) के बिस्तरों से आयकर विभाग करोड़ों रुपए बरामद कर रहा है। कुपोषण एवं गंभीर बीमारियों से पीडि़त बच्चों के लिए आवंटित बजट को राज्य सरकार खर्च नहीं करना चाहती और नतीजे सामने हैं - पांच साल में लगभग छह लाख बच्चों की मौत। मौत का यह आंकड़ा केवल उन बच्चों का है जो अपना पहला जन्मदिन भी नहीं मना सके, यानि एक वर्ष से कम उम्र में ही मौत के शिकार हो गए। एक से चार वर्ष बच्चों की बात की जाए तो प्रति हजार बच्चों पर 94 बच्चे भी कुपोषण व बीमारियों के कारण मौत के शिकार हो रहे हैं। यह आंकड़े किसी को भी विचलित कर सकते हैं। लेकिन राज्य सरकार जबरन अपनी योजनाओं का ढोल पीटने में लगी हुई है।
उपरोक्त आंकड़े भी हमारे नहीं है बल्कि मप्र के स्वाथ्यमंत्री अनूप मिश्रा ने पिछले दिनों कांग्रेस के महेन्द्र सिंह कालूखेड़ा के प्रश्र के जबाव में इन्हें प्रस्तुत करते हुए बताया है कि 1 अप्रेल 2005 से 31 मार्च 2009 तक पिछले चार साल में मप्र में कुपोषण एवं उससे होने वाली बीमारियों के कारण 1 लाख 22 हजार 422 शिशुओं की मौत हुई है। स्वास्थ मंत्री ने इन मौतों का जिलेवार ब्यौरा भी दिया है। लेकिन क्या यह आंकड़े सही है? क्योंकि राज्य के स्वास्थ मंत्री ने स्वीकर किया है कि मप्र में प्रति एक हजार बच्चों के जन्म लेने पर 70 शिशुओं की मौत हो जाती है। यानि मप्र में शिशु मृत्यु दर 70 है, जो कि पूरे देश में सबसे अधिक है। स्वास्थ मंत्री के इस दावे को सही माना जाए तो मप्र में 1 मार्च 2005 से 1 जनवरी 2010 तक 5 लाख 91 हजार 204 बच्चों की मौत हो चुकी है। क्योंकि सरकारी आंकड़ों के अनुसार उक्त अवधि में 84 लाख 45 हजार 806 प्रसव हुए हैं।
मप्र में शिशुओं बचाने के लिए राज्य विधानसभा ने वर्ष 2005-06 में 11.13 करोड़ रुपए का बजट दिया था, लेकिन राज्य सरकार केवल 27.65 लाख रुपए ही व्यय कर पाई। इसी प्रकार वर्ष 2006-07 में 14.26 करोड़ मंजूर किए थे, लेकिन 4.15 करोड़ ही खर्च हुए। वर्ष 2007-08 में 10.79 करोड़ का बजट स्वीकृत हुआ लेकिन सरकार ने केवल 4.45 करोड़ ही व्यय किए। ऐसे में मध्यप्रदेश में कुपोषण कैसे रुक सकता है। हालांकि महिला एवं बाल विकास विभाग की हकीकत अब मुख्यमंत्री के सामने आ गई है। देखना यह है कि वह विभाग में व्याप्त भ्रष्टाचार पर किस तरह लगाम लगाते हैं।
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