रविवार, 7 फ़रवरी 2016
70 फीसदी बच्चों के पेट में आज भी पल रहा कुपोषण
विनोद उपाध्याय
कुपोषण के मामले में मध्यप्रदेश पिछड़े कहे जाने वाले राज्य बिहार से आगे निकल गया है। ग्रामीण मप्र के करीब 70 फीसदी बच्चे खून की कमी से जूझ रहे हैं। शहरी इलाकों के भविष्य का भी हाल अच्छा नहीं है और यहां का आंकड़ा भी 66 फीसदी से ज्यादा है। अगर शहरी और ग्रामीण मप्र का औसत देखें तो आधी से अधिक आबादी के रगों में आवश्यक मात्रा से कम खून है। यह खुलासा इंटरनेशनल इंस्टीटयूट फार पापुलेशन साइंस डीम्ड यूनिवर्सिटी मुंबई की सर्वे रिपोर्ट से हुआ है। यह सर्वे इंस्टीट्यूट द्वारा नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के तहत किया गया था, जिससे साफ है के सेहत के मामले में मप्र सरकार की वर्षों से की जा रही सोशल इंजीनियरिंग धराशायी हो गई है।
खून की कमी की सबसे खतरनाक स्थिति महिलाओं और बच्चों में है। सर्वे में शामिल किए गए 6 से 59 माह की उम्र के बच्चों में ग्रामीण क्षेत्र में 69.9 प्रतिशत बच्चों में रक्त आवश्यक मात्रा 11 ग्राम से कम पाई गई है, जबकि शहरी क्षेत्र के बच्चों का यह औसत 66.3 है। अगर इसकी तुलना हम बिहार से करें तो वहां के शहरी क्षेत्र के 58.8 और ग्रामीण के 64 फीसदी बच्चों में रक्ताल्पता की स्थिति है।
पुरुषों की हालत यथावत
फैमिली हैल्थ को लेकर दस साल बाद किए गए इस सर्वे में पुरुषों की सेहत में यथास्थिति के संकेत मिले हैं। बच्चों और महिलाओं की तुलना में पुरुषों के सामने खून को लेकर संकट कम है। आंकड़ों के अनुसार शहरी क्षेत्र के 21.4 प्रतिशत और ग्रामीण इलाकों के 27.7 फीसदी पुरुष एनीमिया से घिरे पाए गए। इस तरह एक चौथाई पुरुष इस समस्या से जूझ रहे हैं। 2005-06 के सर्वे में भी पुरुषों के रक्ताल्पता का स्तर एक चौथाई ही पाया गया था।
सबसे बड़ा संकट महिलाओं पर
एनीमिया को लेकर सर्वाधिक संकट में महिलाएं हैं। हैरानी की बात तो यह है कि सामान्य और गर्भवती महिलाओं के सेहत में ज्यादा अंतर नहीं है। सामान्य महिलाओं में ग्रामीण क्षेत्र की 53.7 एवं शहरी क्षेत्र में 49.7 प्रतिशत में खून की कमी पाई गई है। गर्भवती महिलाओं के किए गए सर्वे में ग्रामीण क्षेत्र की 56.4 और शहरी क्षेत्र की गर्भवती महिलाओं में से 49.2 रक्ताल्पता की समस्या से संघर्ष कर रही हैं। इससे यह भ्रम दूर हो जाता है कि गर्भवती महिलाओं में खून की समस्या अधिक जटिल होती है। भारत में कुपोषण पर करोड़ों रुपये खर्च होने के बावजूद इसमें कोई कमी नहीं आ रही है और कुपोषण आज भी एक गंभीर समस्या बनी हुई है। महिला बाल विकास और स्वास्थ्य विभाग के माध्यम से कुपोषित बच्चों के लिए अनेक योजनाओं का क्रियान्वयन करने के बाद भी कुपोषण से जुझने वाले बच्चों की संख्या में ज्यादा कमी नहीं आई है। भारत में खाद्य पदार्थों की कोई कमी नहीं है, लेकिन इसके बावजूद देश में कुपोषण चिंता की बात है। इसका मतलब कि जरूरतमंद लोगों को खाद्य पदार्थ और केंद्र सरकार द्वारा स्वास्थ्य से जुड़ी संचालित योजनाओं का लाभ नहीं मिल पा रहा है।
स्वास्थ्य को लेकर जारी आंकड़ों के अनुसार भारत में पांच साल से नीचे के 38.7 प्रतिशत बच्चों का कद उम्र के हिसाब से छोटा है। 19.8 प्रतिशत बच्चे(सामान्य से कम वजन और छोटा कद) कमजोर हैं और वहीं 42.4 प्रतिशत बच्चों का वजन सामान्य से भी कम है। भारत में 40 वर्षों से चल रहा राष्ट्रीय शिशु स्वास्थ्य प्रोग्राम दुनिया की बड़ी योजनाओं में शामिल है। इस पर हम नाज भी करते हैं। अगर हम देखें, तो एक दशक में इस योजना के खर्च में 200 प्रतिशत तक की बढ़ोत्तरी हुई है। उसके बावजूद भी कुपोषित बच्चों की संख्या में कोई कमी नहीं आ रही है। अभी भी देश में पांच वर्ष से कम उम्र के 40 लाख बच्चे कुपोषित हैं। यह आंकड़े भारत पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन (पीएचएफआई) के भारत में पोषण सुरक्षा के लिए स्वास्थ्य रिपोर्ट 2015 पर आधारित है।
पीएचएफआई ने रैपिड सर्वे ऑन चिल्ड्रेन नामक शोध के जरिए कपोषित बच्चों के स्वास्थ्य पर होने वाले सार्वजनिक खर्चे के प्रभाव का अध्ययन किया। अध्ययन के अऩुसार पीने के पानी की कमी, गरीबी, स्वास्थ्य सुविधाओं, सांस्कृतिक प्रथाओं और आय की असमानता भी कुपोषण के मुख्य कारण हैं। कुपोषण की वजह से बच्चों की होने वाली मौतों पर स्वास्थ्य पत्रिका लैंसेट जनरल के शोध के अनुसार विश्वस्तर पर भारत में बच्चों की होने वाली मौतों में 21 प्रतिशत बच्चे पांच साल से कम उम्र के हैं।
केंद्र सरकार ने दो दशक में स्वास्थ्य पर होने वाले केवल पोषक तत्व, समग्र विकास, गर्भवती महिलाओं के स्वास्थ्य पर होने वाले खर्चों में संरचनात्मक रूप से बदलाव किए हैं। लेकिन 2001-2002 और 2004-2005 के बीच सरकार ने बच्चों के स्वास्थ्य पर होने वाले खर्चों को लेकर कोई बड़े बदलाव नहीं किए थे। केंद्र सरकार 1975 से एकीकृत बाल विकास योजना के नाम से फ्लैगशिप प्रोग्राम चला रही है। दुनिया में बच्चों की देखभाल और विकास के लिए चलने वाली बड़ी योजनाओं में से यह एक है। केंद्र सरकार के इस योजना से पिछले 40 साल में 6 साल तक के 82.9 मिलियन बच्चों को लाभ पहुंचा है। केंद्र सरकार की एकीकृत बाल विकास योजना ही केवल तीन दशकों तक बच्चों के स्वास्थ्य और समग्र विकास के लिए थी। सरकार ने देखा कि इस योजना से कोई सकारात्मक बदलाव सामने नहीं आ रहे हैं, तो बच्चों के स्वास्थ्य और समग्र विकास के लिए 2005 में राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन नाम की एक और योजना शुरू की। वर्ष 2013 में राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन योजना को बदलकर राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन कर दिया गया, जिससे ग्रामीण क्षेत्रों में विशेष रूप से कमजोर वर्ग के लोगों के लिए सुलभ, सस्ती और गुणवत्ता रहित स्वास्थ्य सेवाएं प्रदान की जा सकें। साथ ही इस योजना को प्रजनन और बाल स्वास्थ्य के नाम से भी जाना जाता है।
केंद्रीय स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्री जेपी नड्डा ने पीएचएफआई की रिपोर्ट जारी करते हुए कहा कि भारत महत्वपूर्ण मुद्दों पर प्रतिबद्ध है और कुपोषण उन्मूलन के लिए लडऩे वाले सभी देशों के साथ काम करने के लिए तैयार है। जेपी नड्डा ने कहा है कि बच्चों के छोटे कद, कमजोरी और सामान्य से कम वजन को लेकर राज्यों के अलग-अलग आकड़े हैं। इसको देखते हुए स्थानीय तौर पर पोषण संबंधी स्वास्थ्य नीतियों में महत्वपूर्ण सुधार करना जरूरी है। कुछ राज्यों में सामान्य से कम वजन वाले बच्चों की संख्या उच्चतम अनुपात में है, जैसे कि झारखंड में 42 प्रतिशत है, तो वहीं बिहार में 37 प्रतिशत। यह कम आय वाले देशों के बराबर है, जैसे तिमोर लिस्टे(45 प्रतिशत) और नाइजऱ(37 प्रतिशत)। उसी प्रकार हम स्वस्थ बच्चों की बात करें, तो केरल के 19 प्रतिशत और गोवा के 22 प्रतिशत बच्चे स्वस्थ हैं। दोनों राज्यों के स्वस्थ बच्चे मध्यम कमाई करने वाले देशों मालदीव और बेलीज के बराबर हैं।
कुपोषण के मामले में दक्षिण एशिया में भारत की सबसे बुरी हालत है। भारत में कुपोषण से पांच साल से कम उम्र में मरने वाले बच्चों की वजह है ग्रामीण क्षेत्रों में बच्चों को संतुलित आहार न मिलना, घरों के आसपास सफाई न होना, पीने का साफ पानी न मिलना, अधिक और लगातार बच्चे पैदा करने से मां का कमजोर होना। बच्चों की कुपोषण की वजह से मरने का एक कारण ग्रामीण क्षेत्रों में भूखमरी भी है। जब मोदी सरकार आई, तो एक आशा जगी कि यह कुपोषण के लिए कुछ करेगी। लेकिन इस सरकार ने स्वास्थ्य बजट में भारी कटौती कर दी। मोदी सरकार ने फरवरी 2015 में आर्थिक हालत में सुधार लाने के लिए ढांचागत निवेश को बढ़ाया और समाज कल्याण निवेश में कटौती किया। समाज कल्याण क्षेत्र में कटौती से भारत में कुपोषण के प्रयासों को कमजोर करने के लिए भारत की आलोचना भी हुई। अगर दुनिया में दस में से चार कुपोषित बच्चे भारत में ही हैं, ऐसे में कुपोषण से लड़ाई कैसे लड़ी जाएगी?
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