रविवार, 14 फ़रवरी 2016
सोमवार, 8 फ़रवरी 2016
68,90,00,00,00,000 का सपना कब होगा अपना
ऐसी सरकारी कोशिशों से कैसे हो सकेगा उद्योगों का विस्तार!
बड़ों ने दिखाया सरकार को ठेंगा, छोटों को सरकार ने ठगा
भोपाल। जापान-दक्षिण कोरिया की दस दिनी यात्रा से लौटने के बाद मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने आंकड़ें परोसते हुए दावा किया है कि भोपाल-इंदौर मेट्रो के साथ ही प्रदेश के उद्योगों को भी जापानी और दक्षिण कोरियाई उद्योगपति गति देंगे। लेकिन यह कितनी हकीकत और कितना फसाना होगा यह तो आने वाला समय बताएगा। क्योंकि आपको तो याद होगा, ठीक एक साल पहले अक्टूबर में ही इंदौर में आयोजित ग्लोबल इन्वेस्टर्स समिट के समापन अवसर पर यह खबर आई की देश और विदेश के उद्योगपतियों ने प्रदेश में 6.89 लाख करोड़(6890000000000) रुपए के निवेश प्रस्ताव दिए हैं तो सब गदगद हो गए। सात करोड़ की जनसंख्या वाले इस प्रदेश के हर एक बाशिंदे को लगा कि इसमें से कम से कम 98,428 रूपए की अंश पूंजी तो उसके हिस्से में आ सकती है, लेकिन जिन बड़े घरानों ने हमें यह सपना दिखाया था उन्होंने सरकार को ठेंगा दिखा दिया है। वहीं दूसरी तरफ छोटे उद्योगपति प्रदेश में निवेश के लिए दर-दर भटक रहे हैं, लेकिन उन्हें तव्वजो नहीं दी जा रही। ऐसे में सवाल उठता है कि ऐसी सरकारी कोशिशों से कैसे हो सकेगा उद्योगों का विस्तार!
एक उद्योगपति की नजर से देखा जाए तो मध्यप्रदेश में उद्योगों के लिए जरूरी पानी, ऊर्जा, कनेक्टिविटी, भूमि, प्रतिभा और विश्वास है। इसी के बल पर शिवराज सिंह चौहान मध्यप्रदेश को देश की अर्थ-व्यवस्था का ड्राइविंग फोर्स बनाना चाहते है। वे अपनी इसी सोच के साथ प्रदेश में औद्योगिकीकरण को बढ़ावा देने के लिए पिछले 9 साल से निरंतर प्रयास कर रहे हैं। लेकिन नौकरशाही के अडिय़ल रवैए और उद्योगपतियों की नाफरमानी के कारण प्रदेश में औद्योगिक विकास तेजी से नहीं हो पा रहा है।
365 दिन में न अंबानी आए न अडानी
इंदौर ग्लोबल इन्वेस्टर्स समिट 2014 के पहले जितने भी समिट हुए थे उनके बार में कहा जाता था कि केवल कागजी एमओयू करके उद्योगपति भूल जाते हैं कि उन्होंने क्या वादा किया है। इसलिए इंदौर ग्लोबल इन्वेस्टर्स समिट 2014 में एमओयू के साथ ही उद्योगपतियों से घोषणा कराई गई की वे मप्र में कितना निवेश करना चाहते हैं। प्रदेश में निवेश की उम्मीदों को परवान चढ़ाने वाली ग्लोबल इंवेस्टर्स समिट का एक साल पूरा हो गया। समिट में निवेश के वादों के साथ एक लाख से ज्यादा को रोजगार का सपना दिखाया गया था, लेकिन वादे अभी अधूरे हैं। समिट में मंच से निवेश के लिए देश के बड़े औद्योगिक घरानों ने ऐलान किया था। औद्योगिक हस्तियां भी पलटकर दोबारा नहीं आई। इंदौर में समिट में 3 हजार से ज्यादा समूह ने 5.89 लाख करोड़ का वादा किया था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मौजूदगी में मंच से बड़े औद्योगिक घरानों ने निवेश का भरोसा दिलाया था, लेकिन कोई भी समूह 365 दिन में नहीं आया है।
अनिल अंबानी-रिलायंस एडीजी ग्रुप ने सीमेंट, कोल, पॉवर और टेलीकॉम प्रोजेक्ट में 60 हजार करोड़ के निवेश की घोषणा की थी। पहले समूह ने धीरूबाई यूनिवर्सिटी के लिए अचारपुरा में जमीन ली थी। इस प्रोजेक्ट से हाथ खींच लिए। अब इंदौर में समूह ने निवेश के लिए 300 जमीन मांगी है। रिलायंस ग्रुप डिफेंस मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर में प्रवेश करने की तैयारी में है। उन्होंने मप्र सरकार को रक्षा संयंत्र उत्पाद में 5000 करोड़ रुपए के निवेश का प्रस्ताव दिया है। वह मप्र में बंदूक-तोप का कारखाना खोलना चाहते हैं। मप्र में अभी रक्षा संयत्र उत्पाद बनाने वाले दो संयंत्र जबलपुर और इटारसी में आयुध निर्माण कारखाना हैं। इंदौर में रिलायंस के निवेश के बाद यह रक्षा संयत्र उत्पाद का पहला निवेश निजी क्षेत्र का होगा। उल्लेखनीय है कि भारत अभी डिफेंस सेक्टर पर लगभग 40 अरब डॉलर सालाना खर्च करता है। इस रकम का लगभग 40 प्रतिशत यानी 16 अरब डॉलर नए संयत्र और उत्पादों की खरीदारी पर खर्च होता है। वर्तमान में डिफेंस की लगभग 60 प्रतिशत खरीदारी विदेश से होती है। उद्योग विभाग के प्रमुख सचिव मोहम्मद सुलेमान के अनुसार अनिल अंबानी ग्रुप ने डिफेंस सेक्टर में निवेश करने के लिए हमसे 300 एकड़ जमीन मांगी है। हमने उन्हें इंदौर, धार, ग्वालियर और शिवपुरी में जमीनें दिखाई हैं। इंदौर के एसईजेड में वे अपना निवेश करेंगे। अब देखना यह है कि अंबानी कि यह योजना भी कागजी तो नहीं साबित होती है। वहीं मुकेश अंबानी के रिलायंस इंडस्ट्रीज ने उर्जा और आईटी के क्षेत्र में 20 हजार करोड़ के निवेश का कहा था। होशंगाबाद में जमीन देखी गई थी। बाद में पहल नहीं की गई। अब आईटी में कंपनी ने इंदौर में आने का मन बनाया है।
वादा मप्र से और काम छत्तीसगढ़ में
अडानी समूह के गौतम अडानी ने मप्र में वेयर हाउसिंग और लॉजिस्टिक के क्षेत्र में 20 हजार करोड़ के निवेश का वादा किया था। समूह ने अभी तक निवेश के लिए कोई कदम नहीं उठाया है। जबकि एक साल पहले समूह ने ग्वालियर और जबलपुर में उद्योग का कहा गया था। लेकिन समूह मप्र में की गई घोषणाओं को भूल गया है और छत्तीसगढ़ में सक्रिय हो चुका है। अंबिकापुर जिले के पासा कोल ब्लाक से कंपनी द्वारा कोयला उत्खनन कर गुजरात भेजा जा रहा है। हाल ही में कंपनी ने रायगढ़ जिला में स्थित कोरबा वेस्ट पावर प्लांट को खरीदा है, प्लांट तक कोयला आपूर्ति करने की कवायद भी शुरू कर दी गई है। उल्लेखनीय है कि अभी हाल ही में अडानी ग्रुप ने बड़वानी के खजूरी ग्राम में 1000 करोड़ रुपए का नया निवेश विंड एनर्जी प्लांट में करने की बात कही थी, लेकिन उसका भी अता-पता नहीं है। इसी तरह फ्यूचर ग्रुप के किशोर बियाणी ने फूड पार्क के क्षेत्र में दो हजार करोड़ रुपए निवेश का कहा था। ग्रुप की तरफ से बड़े फूड बाजार की योजना भी थी, लेकिन अभी तक निवेश नहीं आया है। इससे दस हजार लोगों को रोजगार मिल सकता था। एस्सार ग्रुप के शशि रूइया ने चार हजार करोड़ से कोल व बीपीओ सेक्टर के लिए हा करने के बाद कुछ नहीं किया। कोल सेक्टर के लिए सिंगरौली और उससे लगे इलाकों में जमीन मांगी गई है। फिलहाल प्रोजेक्ट आने के आसार नहीं है। एस्सेल ग्रुप के सुभाष चंद्रा ने मध्यप्रदेश में 50 हजार करोड़ रुपए का निवेश 6 परियोजना में करने वाले थे। इसमें प्रदेश के पांच शहर को स्मार्ट सिटी के रूप में विकसित करने तथा हैल्थ और वैलनेस प्रोजेक्ट शामिल हैं। लेकिन उसके बाद से एस्सेल ग्रुप गायब हो गया है। समिट में पेप्सी और कोका कोला कंपनी ने निवेश का ऐलान किया था। पेप्सी ने ग्वालियर के मालनपुर में बाटलिंग प्लांट लगाने के लिए 50 एकड़ और कोका कोला ने होशंगाबाद में प्लांट के लिए 110 एकड़ जमीन मांगी थी। दोनों प्रस्ताव अटके हैं। भोपाल में छह हजार करोड़ की लागत से इलेक्ट्रानिक फेब प्लांट का दावा अमेरिकी कंपनी मेसर्स क्रिकेट सेमीकण्डक्टर ने किया था। प्लांट में इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों में लगने वाली माइक्रोचिप बनना है। ऐसे ही 600 करोड़ के निवेश का अमेरिकी कंपनी ब्लूमबर्ग साइंटिफिक वेयर हाउस क्षेत्र में करने आई थी। दोनों कंपनी जमीन देखने के बाद नहीं आई है।
जेपी ग्रुप ने सबसे अधिक दिखाए हवाई सपने
इन सभी औद्योगिक घरानों ने मप्र के साथ जो किया सो किया लेकिन प्रदेश को जेपी ग्रुप ने सबसे अधिक हवाई सपने दिखाया है। जेपी ग्रुप के संस्थापक जयप्रकाश गौड़ ने भोपाल में सेमी कंडक्टर मेन्यूफेक्चरिंग यूनिट लगाने को कहा था। लेकिन कंपनी की तरफ से प्रोजेक्ट से किनारा कर लिया गया है। अब कंपनी सीमेंट के सेक्टर में भी कोई निवेश नहीं करना चाह रही है। जेपी ग्रुप के जयप्रकाश गौर ने समिट में कहा था कि उनका समूह मध्यप्रदेश में 35 हजार करोड़ रुपए का निवेश करेगा। जिसमें सीमेंट प्लांट, रीवा में स्मार्ट सिटी, टीवी चैनल तथा हिन्दी समाचार-पत्र शामिल है। लेकिन पिछले 40 साल से मप्र में कार्य कर रहे समूह ने प्रदेश में निवेश से मुंह मोड़ लिया है। इसके पीछे मुख्य वजह यह बताई जा रही है की समूह लगातार कर्ज में डूबता जा रहा है। अभी हाल ही में जेपी समूह को बड़ा झटका देते हुए केयर रेटिंग्स ने जयप्रकाश एसोसिएट्स की ऋण रेटिंग घटाकर डिफॉल्ट कर दी है। बुनियादी ढांचा क्षेत्र में कारोबार करने वाली जेपी एसोसिएट्स तय समय पर अपने गैर-परिवर्तनीय डिबेंचर्स की रकम चुकाने में असफल रही। इसके बाद ही इसकी रेटिंग में कटौती की गई है। आईसीआईसीआई बैंक के नेतृत्व में निजी क्षेत्र के बैंकों समेत कई बैंकों ने कंपनी को ऋण दे रखा है। केयर ने कहा कि कंपनी का वित्तीय प्रदर्शन खराब होने और आस्तियों की बिक्री से रकम प्राप्त करने में हो रही देरी के साथ ही ऋण प्रबंधन प्रक्रिया के कारण कंपनी का नकदी प्रवाह प्रभावित हुआ है। इसी वजह से कंपनी समय पर अपना ऋण नहीं चुका पा रही है। आंकड़ों के अनुसार जयप्रकाश एसोसिएट्स पर कुल 60,000 करोड़ रुपए का ऋण बकाया है, जबकि वैश्विक बैंक यूबीएस ने वित्त वर्ष 2015 के लिए समूह की कुल देनदारी 96,000 करोड़ रुपए रहने का अनुमान लगाया है। उधर, प्रदेश में निवेश में हो रही देरी के बारे में ट्राइफेक के एमडी डीपी आहूजा का कहना है कि निवेश की प्रकिया लंबी चलती है। ज्यादातर बड़े समूहों से संवाद चल रहा है। कई कंपनियां आने को तैयार है। कुछ बड़े समूह जल्द ही प्रदेश में आमद देंगे।
मंजूरी की प्रकिया लंबी
समिट में मप्र सरकार ने आश्वासन दिया था कि समिट में प्राप्त निवेश प्रस्तावों के आधार पर रोडमैप बनाया जाएगा। प्रत्येक निवेशक के साथ एक अधिकारी को जोड़कर सिंगल डोर व्यवस्था से स्वीकृतियां दिलाई जाएंगी। मध्यप्रदेश में ईज ऑफ बिजनेस डूइंग पर रिपोर्ट तैयार कर देश के सामने रखेंगे। निवेशकों के विश्वास को मध्यप्रदेश सरकार टूटने नहीं देगी। अपने वादे के मुताबिक सरकार ने सिंगल विंडो सिस्टम बनाया था। ट्राइफेक की वेबसाइट पर ऑनलाइन रजिस्ट्रेशन के बाद ट्राइफेक को खुद इसे अमल में लाना था। औद्योगिक घरानों से समन्वय करना था, लेकिन सिस्टम पूरी तरह फेल हो चुका है। अब भी ऐसी जटिल प्रकिया है कि किसी भी उद्योग को डालने की प्रकिया एक साल में नहीं हो पाती है। विभागों में समन्वय नहीं है। उद्योगपतियों की सुविधा के लिए किए जाने वाले दावे और वादे खोखले साबित हो रहे हैं। हाल ये हैं कि भोपाल, इंदौर, ग्वालियर, जबलपुर के आसपास औद्योगिक क्लस्टर्स में कॉमन फैसिलिटी सेंटर्स (सीएफसी) तक शुरू नहीं किया जा सका है। जबकि इसकी बातें 2012 से चल रही हैं। करीब तीन साल बाद भी वो क्लस्टर्स तक स्थापित नहीं हो सके, जहां सीएफसी शुरू होना है। अंदाजा लगाया जा सकता है कि उद्योगों के विस्तार को लेकर सरकारी कोशिशें कितनी सफल या विफल साबित हो रही हैं। निवेशकों को रिझाने के लिए मप्र शासन ने उद्योगपतियों को कई तरह की सुविधाएं देने की बात तो की, लेकिन इनमें से काफी कम पर शासन खुद खरा उतर पाया। इंदौर और इसके आसपास बनाए जा रहे औद्योगिक क्लस्टर्स में कॉमन फैसिलिटी सेंटर्स (सीएफसी) शुरू करने की योजना बनाए करीब दो साल बीत गए हैं, लेकिन इस दिशा में कोई काम नहीं हो पाया। उद्यमियों को सुविधा देने वाली इन सेंटर्स की योजना बनाते समय काफी वाहवाही बटोरी गई थी, लेकिन अब करीब दो साल बाद अधिकारी यह तक नहीं बता पा रहे हैं कि सेंटर्स कब तक शुरू हो सकेंगे।
उद्योग और उद्यमियों को बढ़ाने में मिलेगी मदद
अधिकारी इस बात को खुद स्वीकार कर रहे हैं कि सीएफसी के शुरू होने के बाद उद्योग और उद्यमियों, दोनों को आगे बढ़ाने में मदद मिलेगी। इंदौर, ग्वालियर के आसपास सभी प्रकार के उद्योगों में विस्तार की काफी संभावनाएं हैं और सीएफसी इसमें बेहद महत्वपूर्ण साबित हो सकता है। सीएफसी के लिए 60 करोड़ रुपए की योजना बनाई गई है। इसके शुरू होने के बाद उद्योगों में विस्तार होगा। इसकी मदद से सूक्ष्म, लघु के साथ बड़े उद्योग स्थापित करने वाले लोगों के लिए भी प्रशिक्षण लेने और उत्पाद तैयार करने की सुविधा होगी। कई लोग ऐसे होते हैं जो निवेश की क्षमता के साथ ही उद्योगों को शुरू करने की चाह भी रखते हैं, लेकिन उचित मार्गदर्शन नहीं मिलने के कारण शुरुआत नहीं कर पा रहे। इसी तरह के लोगों को प्रशिक्षण देने और क्षमताओं का विस्तार करने के लिए इन सेंटर्स की शुरुआत की जाना है, लेकिन एकेवीएन अब तक कोई बड़ा कदम नहीं उठा पाया है।
इंदौर के आसपास क्लस्टर्स ही तैयार नहीं...
प्रदेश की औद्योगिक राजधानी इंदौर के आसपास नमकीन, फार्मा, अपेरल आदि इंडस्ट्रियल क्लस्टर्स तैयार होने हैं। इन्हीं क्लस्टर्स में सीएफसी बनाए जाना हैं। मगर अब तक क्लस्टर्स भी तैयार नहीं हो सके हैं। अधिकारियों का कहना है कि पहले क्लस्टर्स शुरू करने पर जोर दिया जा रहा है। यहां कंपनियां आने के बाद सीएफसी की कोशिशें शुरू होंगी। इधर उद्योगपतियों का मानना है कि सीएफसी के लिए कंपनियों और क्लस्टर्स का इंतजार नहीं किया जाना चाहिए। सीएफसी से नए उद्यमियों को प्रशिक्षण लेने और अपना प्रोडक्ट लॉन्च करने का मौका मिलेगा। इंडस्ट्री समय के साथ तरक्की कर सकेगी।
जापान-दक्षिण कोरिया को न्योता यहां की कंपनी को अनुमति का इंतजार
सरकार प्रदेश में उद्योग लगाने के लिए जापान-दक्षिण कोरिया के उद्योगपतियों को न्योता दे रही है, वहीं प्रदेश उद्योगपतियों को निवेश की अनुमति नहीं मिल पा रही है। अभी हाल ही में इंदौर के समीप ही गंगवाल फ्लोर फूड्स एलएलपी 100 करोड़ का निवेश करने को तैयार है, लेकिन अनुमतियों के लिए पांच माह से भटक रही है। स्थानीय अफसरों द्वारा की जा रही आनाकानी पर ट्राईफेक के एमडी ने भी आपति दर्ज कराई है। कंपनी द्वारा ग्लोबल इन्वेस्टर्स समिट में हातोद के समीप ग्राम मुरखेड़ा में फूड प्रोसेसिंग यूनिट लगाने के लिए करार किया था। इसके लिए जमीन का डायवर्शन, लेआउट प्लॉन एप्रुवल, भवन निर्माण अनुज्ञा व अन्य आवश्यक अनुमतियां दी जाना है। कंपनी द्वारा आवेदन करने के पांच माह बीत गए, लेकिन आवेदनों पर कार्रवाई आगे नहीं बढ़ रही है।
उद्योग क्षेत्र के रखरखाव का खर्च बढ़ा
औद्योगिक क्षेत्र के रखरखाव का खर्च अब बढ़ गया है। प्रदेश शासन के निर्देश पर उद्योग विभाग ने औद्योगिक भूमि पर संचालित हो रहे लघु उद्योगों से पहले से 10 गुना संधारण शुल्क वसूल करने की तैयारी कर ली है। महाकोशल उद्योग संघ ने इसका विरोध किया है। संघ ने कहा है कि प्रदेश का औद्योगिक विकास सुनिश्चित करने मुख्यमंत्री ने 'मेक इन एमपीÓ का नारा दिया है। प्रदेश में उद्योगपतियों को बढ़ाने तरह-तरह की योजनाएं लागू करने के प्रयास हो रहे हैं। वहीं शासन के कुछ विभाग मुख्यमंत्री की मंशा पर पानी फेरने में जुटे हैं। हाल ही में नगर निगम प्रशासन उद्योगपतियों से भारी संपत्तिकर वसूलने का प्रयास किया। तो अब उद्योग विभाग ने लघु उद्योगों से एक फीसदी के बजाए अब 10 गुना संधारण शुल्क वसूली करने को तैयार है। इस तरह उद्योगपतियों पर दोहरी मार पड़ेगी और आर्थिक बोझ बढऩे से व्यापार भी छिन जाएगा। महासचिव डीआर जैसवानी ने कहा है कि वरिष्ठ अधिकारी वास्तविक स्थितियों से अनजान होकर, उद्योगपतियों से चर्चा किए बिना ही निर्णय कर लेते हैं। जबकि एकतरफा निर्णयों का उद्योगों के विकास पर विपरीत असर होता है। महाकोशल उद्योग संघ ऐसे निर्णयों का खुले मंच पर आकर विरोध करेगा।
नटरॉक्स परियोजना अधर में
प्रदेश के पीथमपुर औद्योगिक क्षेत्र में खुलने वाली डिजिटल ऑटो परीक्षण परियोजना के खटाई में पडऩे के कारण मध्यप्रदेश सरकार पर तीन हजार करोड़ रुपये का वित्तीय भार पड़ सकता है। नटरॉक्स परियोजना नाम से स्थापित होने वाली इस विशाल ईकाइ में ऑटोमोबाइल्स उद्योग के उत्पादों का परीक्षण करने के लिए ऑटो ट्रेक से लेकर तमाम तरह की लैब और परीक्षण इकाईयां स्थापित की जानी थी। मध्यप्रदेश सरकार ने अगस्त 2005 में इस परियोजना के लिए 1669 हैक्टेयर जमीन उपलब्ध कराई थी। उस समय 1718 करोड़ रुपये की लागत वाली इस परियोजना में नटरॉक्स की स्थापना पर 450 करोड़ रुपये खर्च होने का अनुमान लगाया गया था। यह भी अभिकल्पना थी कि एक बार विकसित हो जाने के बाद यह प्रोजेक्ट ऑटो उद्योग से अतिरिक्त निवेश पाने में सफल रहेगा लेकिन इस महत्वकांक्षी परियोजना को पूरा करने में हुई 5 वर्ष की देरी ने अब मध्यप्रदेश सरकार को तीन हजार करोड़ रुपये के घाटे की कगार पर खड़ा कर दिया है। परियोजना पर राज्य सरकार ने 351 करोड़ रुपये (भूमि अधिग्रहण पर) पहले ही खर्च कर दिये हैं किंतु 4143 एकड़ जमीन के कुछ हिस्से में ही काम हो पाया है बाकी हिस्सा खाली और बेकार पड़ा हुआ है। दिनों-दिन होती देरी के कारण राज्य सरकार के हाथ-पैर फूल रहे हैं क्योंकि जिन किसानों और भू मालिकों की जमीन का अधिग्रहण राज्य सरकार ने किया था वे कोर्ट की शरण में जा चुके हैं। जिला अदालत ने सरकार से गैर सिंचित भूमि के लिए 30 लाख 57 हजार और सिंचित भूमि के लिए 48 लाख 92 हजार प्रति हैक्टेयर की दर से राशि उन किसानों को देने का कहा है जिनकी जमींने अधिकृत की गई हैं। ये जमीने जिनका आकार 1412 हैक्टेयर के करीब है 10 गांवों की कृषि भूमि है जिनसे 160 परिवारों को विस्थापित भी किया गया है। 256.3 हैक्टेयर जमीन सरकारी है।
कुल मिलाकर 615.91 करोड़ रुपये 1014.55 हैक्टेयर सिंचित और 390.87 हैक्टेयर गैर सिंचित भूमि के लिए कोर्ट के आदेश के बाद देने थे। लेकिन किसानों ने इस हर्जाने की रकम से असहमति जताते हुए इंदौर में हाईकोर्ट की बैंच में अपील कर दी। इसके बाद हाईकोर्ट ने सिंचित भूमि के लिए 1 करोड़ 4 लाख और असिंचित भूमि के लिए 69 लाख 89 हजार प्रति हैक्टेयर की दर से हर्जाना देने का आदेश दिया है। इसका अर्थ यह हुआ कि मध्यप्रदेश सरकार को 1336 करोड़ 88 लाख रुपये का हर्जाना किसानों को देना होगा। यही नहीं यदि भूमि अधिग्रहण, पुर्नवास और पुर्नस्थापन अधिनियम 2013 का पालन किया गया तो प्रोजेक्ट पाँच वर्ष तक अपूर्ण रहने की स्थिति में जमीनों को उनके वास्तविक मालिकों को लौटाना होगा। मतलब दोहरा घाटा। मध्यप्रदेश के उद्योग विभाग के सूत्रों का कहना है कि 90 प्रतिशत जमीन अनुपयोगी पड़ी हुई है। यदि इस पर काम प्रारंभ हुआ तो अगले तीन वर्ष काम पूर्ण होने में लगेंगे। इस प्रकार 5 वर्ष तो यूं ही बीत जायेंगे। उद्योग विभाग के आयुक्त वीएल कान्ताराव कहते हैं कि सरकार सुप्रीम कोर्ट में यह मुकदमा हारती है तो यह एक बड़ी लायबिलिटी साबित होगी। यदि नाटरॉक्स जमीन वापस लौटा दे तो कम से कम उस जमीन पर नई औद्योगिक इकाईयां डालकर कुछ पैसा कमाया जा सकता है। खास बात यह है कि यह जमीन मध्यप्रदेश सरकार ने उद्योगों को बढ़ावा देने की नीति के तहत मात्र 100 रुपये में नटरॉक्स को मुहैया कराई थी और अब इन सातों परियोजनाओं की लागत बढ़कर 3827.30 करोड़ रुपये तक पहुँच चुकी है। जहां तक केन्द्र सरकार का प्रश्न है वहां कछुआ चाल से काम हो रहा है। इंदौर का पीथमपुर औद्योगिक क्षेत्र ऑटोमोबाइल और ऑटो कंपोनेंट के निर्माण के लिए एशिया के डेट्रोइट नाम से विख्यात है। पीथमपुर इलाके में फोर्ड मोटर्स और आयशर जैसी कंपनियों ने भी इकाईयां स्थापित की हुई हैं। इस तरह के 6 प्रोजेक्ट सारे देश में लगने थे। पीथमपुर प्रोजेक्ट वर्ष 2010 में ही पूरा होना था लेकिन 5 साल निकल चुके हैं एक कदम भी आगे नहीं बढ़े। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने केन्द्रीय भारी उद्योग मंत्री अनंत गीते से इस वर्ष जून में मुलाकात करके 1669 हैक्टेयर में से 1125 एकड़ जमीन लौटाने की मांग की थी। नटरॉक्स के एक वरिष्ठ अधिकारी का कहना है कि केन्द्रिय भारी उद्योग मंत्रालय ने अतिरिक्त हर्जाने से संबंधित मामले की पड़ताल के लिए एक समिति नियुक्त की है। इस समिति ने राज्य सरकार को 1125 एकड़ अनुपयोगी जमीन लौटाने की अनुशंसा की है। यह प्रस्ताव केन्द्रीय कैबिनेट के समक्ष अनुमोदन के लिए लंबित है। मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने इस परियोजना की गति बढ़ाने का निवेदन भी किया है। परियोजना में 700 लोगों को सीधे रोजगार मिलेगा। पीथमपुर के अलावा चेन्नई, मनेसर, सिलचर, अराई, रायबरेली और अहमद नगर में भी इसी तरह के प्रोजेक्ट खुलने हैं। सवाल यह है कि यदि सरकार को जमीन लौटानी पड़ी तो जो भी खर्च हुआ है उसकी जिम्मेदारी किसके माथे आयेगी। मध्यप्रदेश में कई औद्योगिक घरानों ने भी बड़ी क्षेत्रफल की जमीने ले रखी हैं जिन्हें अब वापस लौटाया जा रहा है। सरकार इनवेस्टर्स मीट कराती है, लाखों करोड़ रुपये के एमओयू पर दस्तखत किये जाते हैं, लेकिन ढाक के वही तीन पात। जमीन पर कहीं भी काम होता दिखाई नहीं पड़ता। यही हाल रहा तो मध्यप्रदेश देश के औद्योगिक नक्शे पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराने में सफल नहीं हो सकेगा।
कारोबार के लिए सुगम राज्यों में मप्र पांचवे स्थान पर
एक तरफ तो मध्यप्रदेश सरकार उद्योग को बढ़ावा देने के नाम पर इन्वेटर्स मीट का आयोजन कर निवेश के लिए जुनून की हद तक प्रयास कर रही है वही दूसरी तरफ सरकारी लालफीताशाही के कारण कई प्रोजेक्ट 5-5 वर्षों से लटक रहे हैं। इससे सरकार के तमाम प्रयासों पर पानी फिर रहा है। इसी का परिणाम है कि कारोबार के लिए सुगम राज्यों में हम छतीसगढ़ और झारखंड से भी पिछड़े हैं। भाजपा शासित गुजरात उद्योग-व्यवसाय के लिहाज से सुगमता वाले राज्यों की सूची में गुजरात शीर्ष पर है। यानी गुजरात में उद्योग-व्यवसाय लगाना-चलाना सबसे आसान है। देश के राज्यों में कारोबार में सुगमता पर पहली बार जारी अपनी तरह की इस को विश्व बैंक ने तैयार किया गया है। इस रैंकिंग में भाजपा शासित राज्य शीर्ष पांच में से चार स्थानों पर काबिज हैं। भाजपा के सहयोगी तेलुगूदेशम पार्टी (टीडीपी) शासित आंध्र प्रदेश दूसरे स्थान पर रहा। इनके बाद क्रमश: झारखंड, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान का स्थान है। ये सभी राज्य भाजपा शासन वाले हैं।
3,20,00,00,000 खर्च के बाद मप्र को मिले 3 आईएएस
कोचिंग का धंधा है चंगा: सालाना कमाई 1220 करोड़ से अधिक
देश की शीर्ष नौकरशाही में मप्र का योगदान सबसे कम
इस कारण बिगड़ रहा परिणाम
- मप्र में सर्विस परीक्षा का माहौल नहीं।
- आबादी मुख्यत: कृषि और व्यापार क्षेत्र में संलग्न है। इस बारे में नहीं सोचते।
- जौखिम उठाने की शक्ति नहीं।
- बिहारियों से जैसा जुझारूपन और संघर्ष नहीं।
- प्रशासनिक शक्ति के प्रति आकर्षण नहीं है।
- सिविल सर्विस की तैयारी के अच्छे संस्थान नहीं।
- बच्चों में सोच की कमी, प्रारंभिक परीक्षा में 90 प्रतिशत केवल अनुभव के लिए बैठते हैं।
- प्रदेश में एमपी बोर्ड और कॉलेजों में पढ़ाया जाने वाले सिलेबस से सिविल सर्विस परीक्षाओं में मदद नहीं मिल रही।
- 10वीं में तय हो जाने वाला यूपीएससी का टारगेट ग्रेजुएशन और इंजीनियरिंग के बाद तय हो रहा है।
- अच्छे शिक्षकों की कमी है। तैयारी का माहौल नहीं मिलने से उम्मीदवार बाहर जा रहे हैं।
(आईएएस अधिकारी एवं विशेषज्ञों से चर्चा के अनुसार)
भोपाल। आपको जानकार आश्चर्य होगा की मप्र तेजी से एजुकेशन हब बनता जा रहा है। उत्तर प्रदेश, बिहार, पं. बंगाल, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश, छत्तीसगढ़ आदि राज्यों के छात्र यहां आकर इंजीनियरिंग, डॉक्टरी या अन्य विषयों में उच्च शिक्षा लेकर देशी-विदेशी संस्थानों और सरकारी नौकरियों में बड़े ओहदे पर जा रहे हैं। जबकि मप्र सरकार से मिले समर्थन-सहयोग और 3,20,00,00,000 रूपए कोचिंग में सालाना खर्च करने के बाद भी यहां के औसतन तीन-चार परीक्षार्थी ही आईएएस बन रहे हैं। दरअसल, मप्र देशभर के कोचिंग संस्थानों के लिए कमाई का सबसे बड़ा केंद्र बनता जा रहा है। आलम यह है कि प्रदेश की राजधानी भोपाल, इंदौर, जबलपुर और ग्वालियर में तो जितने स्कूल और कॉलेज नहीं है उससे ज्यादा यहां कोचिंग संस्थान है। मप्र में कोचिंग का धंधा कितना फायदेमंद है इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि यहां के किसी भी कोचिंग संस्थानों में प्रवेश पाना भी अपने आप में बड़ी सफलता है।
प्रदेश में मप्र की सरकार राज्य को बीमारू से विकासशील राज्य बनाने का दावा कर रही है और कई क्षेत्रों में ग्रोथ के आंकड़े सामने रखे जा रहे हैं लेकिन इस विकास के प्रकाश का भारतीय प्रशासन में मप्र के लोगों की भागीदारी की बदतर स्थिति पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा है। वर्ष 2014 बैच के लिए देशभर से जिन 260 युवकों को चयन आईएएस के लिए हुआ उनमेंं मप्र से केवल तीन उम्मीदवार देवाशिश मुखर्जी, मनीष कुमार गुप्ता और आरके मिश्रा ही आईएएस में चयनित हो पाए। यहीं नहीं वर्ष 2013 में भी तीन ही उम्मीदवार आईएएस बनने में सफल हो पाए थे जबकि मप्र से छोटे हरियाणा, राजस्थान, दिल्ली, महाराष्ट्र और इसी श्रेणी के अन्य राज्यों से बड़ी संख्या में उम्मीदवारों का चयन इस सेवा के लिए हुआ। प्रदेश में हर साल सिविल सेवा प्रारंभिक परीक्षा में मप्र से करीब 30-32 हजार उम्मीदवार शामिल होते हैं। इससे पहले के सालों में भी इसी के आसपास उम्मीदवारों की संख्या रही है। इनमें से करीब 15 से 20 प्रतिशत ही प्रारंभिक परीक्षा में चयनित होकर मुख्य परीक्षा तक पहुंचते हैं। मुख्य परीक्षा के नतीजों बाद मप्र के अभ्यर्थियों की संख्या एक प्रतिशत भी नहीं बचती।
एक बार फिर दांव पर प्रतिष्ठा
संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) ने 12 अक्टूबर को सिविल सेवा प्रारंभिक परीक्षा 2015 का परिणाम घोषित कर दिया। कुल 15008 परीक्षार्थियों को मुख्य परीक्षा के लिए सफल घोषित किया गया है। इस बार रिकॉर्ड 9 लाख 45 हजार 908 उम्मीदवारों ने परीक्षा के लिए आवेदन किया था, जिसमें से तकरीबन 4.63 लाख उम्मीदवार 23 अगस्त को हुई प्रारंभिक परीक्षा में बैठे थे। मुख्य परीक्षा 18 दिसंबर 2015 से होगी। लेकिन इस बार भी सबकी निगाह मप्र के परीक्षार्थियों पर है। क्योंकि आबादी में छटवां और क्षेत्रफल के हिसाब से देश का दूसरा सबसे बड़ा राज्य हमारा मध्यप्रदेश एक साल में तीन आईएएस से ज्यादा नहीं पाता है। देश की शीर्ष नौकरशाही में मप्र का योगदान सबसे कम है। मप्र से हर साल हजारों उम्मीदवार सिविल सर्विस की प्रारंभिक परीक्षा में बैठते हैं लेकिन हजारों की यह संख्या सिलेक्शन तक पहुंचते-पहुंचते औसतन तीन से आगे नहीं बढ़ पाती।
प्रदेश का कमजोर सिलेबस मुख्य कारण
मप्र में यूपीएससी संस्थानों द्वारा प्रति छात्र एक लाख रूपया सालाना लिया जाता है। प्रदेश में औसतन 32 हजार छात्र इस परीक्षा की तैयारी करते हैं। इस तरह प्रदेश में यूपीएससी की परीक्षा में पास होने के लिए प्रदेश के छात्र करीब 3,20,00,00,000 रूपए कोचिंग में ही खर्च कर दिए जाते हैं। अगर वर्ष 2014 के परीक्षा परिणाम पर नजर डालें तो परिणाम इस बार प्रदेश के लिए काफी खराब रहा। सिविल सर्विस परीक्षा में हर साल 30 से 35 सफल उम्मीदवारों के नाम सामने आते रहे हैं, लेकिन इस बार संख्या 15 पर सिमट गई। इनमें से केवल 3 ही आईएएस में चयनीत हुए बाकी अन्य सेवाओं के लिए चयनीत हुए। देश की शीर्ष नौकरशाही में मप्र का योगदान सबसे कम होने के कारणों की पड़ताल की गई तो पता लगा कि स्कूल और कॉलेज स्तर का सिलेबस इस स्तर का नहीं है कि सिविल सर्विस परीक्षा में उम्मीदवारों को फायदा मिले। दोयम दर्जे की शिक्षा व्यवस्था है यहां। ऐसे स्कूल, कॉलेज और यूनिवर्सिटी हैं जिनमें टीचर ही नहीं। एक टीचर पूरा विभाग को चला रहा है। ऐसे में यहां का छात्र कैसे किसी राष्ट्रीय परीक्षा में आ सकता है। छात्र होनहार हैं लेकिन उन्हें सही मार्गदर्शन नहीं मिलता। इसी वजह से न आईआईटी में, न कैट में, न सिविल सर्विस जैसी परीक्षाओं में चयन हो पाता है। पूरा दोष शिक्षा व्यवस्था है। और सबसे बड़ी बात सिविल सर्विस के लिए चलने वाली कोचिंग क्लासेस को तो बंद कर देना चाहिए। यहीं बच्चों में भटकाव शुरू हो जाता है।
एक बड़ा कारण यह भी बताया जा रहा है कि यहां सिविल सर्विस परीक्षाओं की तैयारी करने वाले ज्यादातर अभ्यर्थी इंजीनियरिंग या ग्रेजुएशन के बाद आ रहे हैं, जबकि यूपी-बिहार में 10वीं से ही छात्र टारगेट बना लेते हैं। कुछ समय से पंजाब और तमिलनाडु से भी सिलेक्शन बढ़ा है। इस बार इंदौर से यूपीएससी में सफल हुए उम्मीदवारों का भी मानना है कि प्रदेश में उच्च स्तर की प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी के लिए उम्मीदवारों को सही मार्गदर्शन नहीं मिल रहा है। प्रदेश में लगातार सिलेक्शन गिरने का बड़ा कारण अच्छा माहौल नहीं मिल पाना और उच्च स्तर पर पढ़ाने के लिए शिक्षक भी नहीं हैं इसलिए ज्यादातर छात्र बाहर जा रहे हैं। चयनित उम्मीदवार अखिल पटेल का मानना है कि दिल्ली की यूनिवर्सिटी का सिलेबस सिविल सर्विस परीक्षाओं की तैयारी में मदद करता है, जबकि प्रदेश का सिलेबस सीमित है। वहीं एक्सपट्र्स का मानना है कि अब जाकर यूपीएससी और एमपी पीएससी के पैटर्न में समानता आना शुरू हुई है।
एंबीशन अकादमी के संचालक राहुल शर्मा कहते हैं कि हमारे यहां उतनी जागरूकता नहीं है। दूसरी वजह यह भी है कि हमारे यहां शिक्षा का स्तर उतना अच्छा नहीं है। हमारे यहां के सिलेबस सिविल सर्विसेज के सिलेबस से मैच नहीं खाते। केरल, तमिलनाडू जैसे राज्यों में सरकार ऐसे बच्चों की फीस भी चुकाती हैं, हमारे यहां भी ऐसी व्यवस्था है लेकिन व्यवहारिक रूप से उसमें खामियां हैं। सरकार ने अपने खुद के कुछ केंद्र चला रखे हैं जहां बच्चों को तैयारी कराई जाती है लेकिन इनका स्तर पर अच्छा नहीं है। हमने सरकार से कहा था कि इन्हें पीपीपी मोड में निजी क्षेत्रों को दे लेकिन कोई विचार नहीं हुआ। हमारे यहां के बच्चे दिल्ली जाकर तैयारी करते हैं और वहीं का पता डालते हैं, यह भी एक कारण है।
यूनिक आईएएस अकादमी के संचालक गौरव मारवाह कहते हैं कि निश्चित तौर पर अभी हमारे यहां सिविल सर्विस को लेकर ज्यादा जागरूकता नहीं है। दूसरा बड़ा कारण यह भी है कि हमारे बच्चों का बेस बहुत मजबूत नहीं है। मप्र की कॉलेज एजूकेशन में बहुत सुधार की जरूरत है। दक्षिणी राज्यों के कॉलेजों की तरह। सरकारी योजना इसलिए फेल हैं कि वहां स्कूल के लेक्चर पढ़ा रहे हैं। आज एक भी बच्चा इन योजनाओं के लाभ से सिलेक्ट नहीं हुआ। मप्र से चयन का आंकड़ा इसलिए भी कम है कि कई बच्चे बाहर पढ़ाई करते हैं, वहीं का पता भी देते हैं।
मप्र की ये योजनाएं भी बेअसर
मध्यप्रदेश में पिछड़े वर्ग के उम्मीदवारों के लिए सिविल सेवा परीक्षा प्रोत्साहन योजना लागू है। इस योजना का उद्देश्य पिछड़े वर्ग के उम्मीदवारों को सिविल सेवा परीक्षाओं के विभिन्न स्तरों पर सफलता प्राप्त करने के लिए प्रोत्साहन स्वरूप वित्तीय सहायता प्रदान करना है। विद्याथिर्यों को संघ लोक सेवा आयोग की प्रारम्भिक परीक्षा उत्तीर्ण होने पर 25 हजार रुपये, मुख्य परीक्षा उत्तीर्ण करने पर 50 हजार रुपये तथा साक्षात्कार उपरांत चयन होने पर 25 हजार की राशि दी जाती है।
प्रदेश में अनुसूचित जाति एवं जनजाति के उम्मीदवारों के लिए भी इसी तरह की योजना लागू है। इस योजना में प्रदेश में संभागीय मुख्यालयों पर परीक्षा पूर्व प्रशिक्षण केंद्र संचालित किए जाते हैं। इसके अलावा इन वर्गों के उम्मीदवारों को परीक्षा की तैयारी के लिए निजी कोचिंग संस्थानों में पढ़ाई के लिए फीस की प्रतिपूर्ति की जाती है लेकिन नियमों की जटिलता के कारण चुनिंदा उम्मीदवार भी इसका लाभ नहीं उठा पा रहे। भारत की कुल जनसंख्या में से 20.3 प्रतिशत आबादी मप्र में निवास करती है। आबादी के मप्र देश में छटवें नंबर है। ऊपर के पांच राज्यों में उत्तरप्रदेश, महाराष्ट्र, बिहार, पश्चिम बंगाल और आंधप्रदेश हैं। मप्र से ज्यादा आईएएस देने वाले राज्य केरल, राजस्थान, हरियाणा, तमिलनाडू, दिल्ली, कर्नाटक की आबादी की मप्र से बहुत कम है।
राजस्थान में 6 साल में बने 111 आईएएस
मध्यप्रदेश की ही तरह कभी पिछड़ा माना जाने वाला राजस्थान अब देश को आईएएस अफसर देने में आगे निकल रहा है। पिछले छह सालों में ही राजस्थान से 111 आईएएस अफसरों का सलेक्शन हो चुका है। यानी कुल चयनित अफसरों में से 11 फीसदी राजस्थान से हैं। यह उपलब्धि इसलिए भी अहम है क्योंकि कभी राजस्थान से सालाना छह या सात आईएएस अफसर ही चयनित हो पाते थे। पिछले साल हुई सिविल सेवा परीक्षा में प्रदेश से 18 आईएएस सलेक्ट हुए। उससे पिछले साल यानी 2013 में तो आंकड़ा 28 तक पहुंच गया था। बहरहाल, पिछले साल देशभर से 180 आईएएस को केन्द्रीय कार्मिक मंत्रालय ने हाल ही कैडर अलॉट किया है। राजस्थान से सलेक्ट 18 में से दो आईएएस को होम कैडर मिला है। 2014 में राजस्थान से 18 आईएएस चयनित हुए। जबकि केरल से आठ, उत्तरप्रदेश से 16, बिहार से 8, कर्नाटक से 11, आंध्रप्रदेश से 17 आईएएस चयनित हुए। ये वो राज्य हैं जिनका सिविल सेवा परीक्षाओं में सबसे ज्यादा दबदबा रहता है। 2014 में सर्वाधिक 25 आईएएस तमिलनाडु से चयनित हुए। वहीं मध्यप्रदेश से मात्र 3 आईएएस ही चयनीत हुए। इसी तरह 2013 में राजस्थान से 28 आईएएस चयनित हुए। यानी कुल स्ट्रेंथ का 15.55 फीसदी। इससे राजस्थान यूपी, बिहार, दिल्ली और दक्षिणी राज्यों के बराबर आकर खड़ा हो गया। वहीं मप्र में इस साल भी 3 ही प्रत्याशी आईएएस के लिए चयनीत हुए। दरअसल, राजस्थान सरकार ने न केवल अपने सिलेबस में बदलाव किया है बल्कि वहां इसके लिए माहौल भी बनाया गया है, जबकि मप्र में अभी ऐसा कोई कदम नहीं उठाया गया है।
मप्र में यूपी, बिहार, राजस्थान का दबदबा
यूपीएससी में मप्र के छात्रों के खराब प्रदर्शन का नतीजा यह हो रहा है कि यहां यूपी, बिहार, राजस्थान, महाराष्ट्र के मूल निवासी आईएएस की संख्या बढ़ती जा रही है। वर्तमान समय में डायरेक्ट आईएएस के मामले में प्रदेश में उत्तर प्रदेश के मूल निवासी आईएएस की संख्या अधिक है। वहीं मप्र के मूल निवासी डायरेक्ट आईएएस जहां 53 हैं वहीं प्रमोटी 80 के करीब हैं। वह भी उस स्थिति में जब प्रदेश में पिछले कई साल से राप्रसे अफसरों को आईएएस अवार्ड नहीं मिल रहा है। इस साल भी केंद्रीय कार्मिक एवं प्रशिक्षण मंत्रालय (डीओपीटी) द्वारा राप्रसे से आईएएस की डीपीसी का फार्मूला बदले जाने से दावेदार राप्रसे अफसरों को आईएएस अवार्ड फिलहाल अटक गया है। डीओपीटी का कहना है कि मार्च 2014 तक की सभी अफसरों की सीआर (गोपनीय प्रतिवेदन) भेजें। दरअसल आधा दर्जन अफसर ऐसे हैं, जिन्होंने इन वर्षों की सीआर नहीं लिखवाई है। इनमें रवि डफरिया, आरपी भारतीय, अमर सिंह बघेल, शैलबाला मार्टिन, ललित दाहिमा और गोपाल डाड के नाम शामिल हैं। जब तक सभी अफसरों की सीआर दिल्ली नहीं भेजी जाती, तब तक राप्रसे से आईएएस की डीपीसी नहीं होगी। सबसे बड़ी बात है कि इनमें कुछ अधिकारी ऐसे हैं, जिन पर विभागीय जांच लंबित है। ऐसे में उन्हें पता है कि उनका आईएएस में चयन नहीं होगा। यही वजह है कि इन अफसरों ने अब तक अपनी सीआर नहीं लिखवाई है। कार्मिक विभाग भी इसी बात को लेकर परेशान है। कारण कि जब तक संबंधित व्यक्ति स्वयं अपनी सीआर लिखवाने के लिए प्रयास नहीं करेगा, तब तक उनकी सीआर नहीं लिखी जा सकेगी। उल्लेखनीय है कि राप्रसे अफसरों को आईएएस में पदोन्न्त करने के लिए तीन वर्षों 2012, 2013 और 2014 की डीपीसी एक साथ किया जाना है। इसमें 20 अफसरों को आईएएस अफसर बनने का मौका मिलेगा। कार्मिक विभाग ने आईएएस अवार्ड के लिए वर्ष के हिसाब से अफसरों के जोन तैयार किए हैं। हालांकि आईएएस में पदोन्नत होने का मौका सिर्फ 1992 बैच तक के अफसरों को ही मिलने की संभावना है।
बड़े उद्योग में तब्दील हुआ कोचिंग का धंधा
अर्थव्यवस्था का तेज रफ्तार से विकास, भू-मंडलीकरण के चलते भारत में तेजी से बढ़ा विदेशी निवेश और मध्यवर्ग की आय में हुई बढ़ोत्तरी ने देश में शिक्षा के प्रति गंभीर रूझान पैदा किया है। इसकी स्वाभाविक वजह भी है, देश के लगभग सभी क्षेत्रों में पेशेवरों की मांग में नाटकीय बढ़ोत्तरी हुई है। इस सबके चलते चाहे देश के बड़े-बड़े महानगर हों या मझोले शहर अथवा कस्बे, हर जगह बरसाती कुकुरमुत्तों की तरह कोचिंग सेंटर खुल गए हैं। पैदा हुए अनन्त अवसरों को हासिल करने के लिए ये कोचिंग सेंटर एक किस्म की गारंटी के रूप में भी देखे जा रहे हैं। यह अलग बात है कि इसमें थोड़ी सच्चाई है तो बड़ा हिस्सा महज खूबसूरत अफसाने का है। बहरहाल, इससे कोचिंग के कारोबार को कोई खास फर्क नहीं पड़ता। सफलता की दर चाहे जो भी हो, लेकिन यह हकीकत है कि पिछले एक दशक के भीतर मप्र में कोचिंग का कारोबार धीरे-धीरे एक व्यवस्थित कारोबार का रूप ले लिया है। हाल ही में एसोसिएटेड चैम्बर्स ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्रीज (एसोचैम) द्वारा कराए गए एक अध्ययन सर्वे के मुताबिक मप्र में कोचिंग का व्यवस्थित कारोबार 1220 करोड़ रुपए के सालाना टर्नओवर से ऊपर पहुंच गया है।
सिर्फ ज्यादातर मध्यवर्गीय परिवार के शिक्षा के प्रति बढ़े रूझान और अवसरों को हासिल करने की ललक का ही परिणाम नहीं है कोचिंग का भारी-भरकम कारोबार, बल्कि इसके पीछे कुछ आधारभूत अधिसंरचनात्मक कमियां भी हैं। जैसा कि एसोचैम के अध्यक्ष सज्जन जिंदल कहते हैं, भारत में तकरीबन 1 करोड़ 20 लाख छात्र उच्चतर शिक्षा के लिए नामांकन कराते हैं। लेकिन देश में पर्याप्त शिक्षकों का अभाव है। शिक्षक महज 3.5 लाख ही हैं। यही नहीं, पिछले कुछ सालों से बोर्ड की परीक्षाओं में पास होने के लिए भी मां-बाप के साथ-साथ बच्चे भी गंभीर हो रहे हैं। इन सब वजहों से देश में बड़ी तादाद में शिक्षकों की जरूरत बढ़ी है, जिसकी भरपाई ये कोचिंग सेंटर कर रहे हैं। और भी कई वजहें हैं कोचिंग केन्द्रों के तेजी से एक व्यवस्थित कारोबार में तब्दील होने की। दरअसल संचार सुविधाओं और प्रौद्योगिकी के बेहतर होने की वजह से अब पढऩे-लिखने के तमाम गैर-पारंपरिक माध्यम भी तेजी से लोकप्रिय हो रहे हैं, जैसे- डिस्टेंस लर्निंग तथा ऑनलाइन एजुकेशन। इस कारण भी कोचिंग सेंटर्स की मांग बढ़ी है, क्योंकि बिना फिजिकली क्लास अटेंड किए पढ़ाई के दौरान जो कमियां महसूस होती हैं, उनकी भरपाई ये कोचिंग केन्द्र कराने का दावा करते हैं। वैसे कोचिंग सेंटर्स के इस तरह शहर-दर-शहर, कस्बे-दर-कस्बे फैलने के पीछे हमारी शिक्षा व्यवस्था में कुछ नीतिगत खामियां हैं। मप्र के एक वरिष्ठ आईएएस कहते हैं कि 70 के दशक तक देश में कोचिंग सेंटर नहीं हुआ करते थे या यूं कहें कि इस तरह कोचिंग सेंटर्स का देश में जाल नहीं फैला था। व्यक्तिगत रूप से ही ट्यूशन पढ़ाने वाले कुछ अध्यापक या अपनी पढ़ाई का खर्चा निकालने के लिए कमजोर आय वर्ग के छात्रों का ही यह पेशा हुआ करता था।
लेकिन जब देश में इंजीनियरिंग और मेडिकल कॉलेजों में दाखिला पाने वालों की तादाद वहां उपलब्ध सीटों के मुकाबले कई गुना ज्यादा बढ़ गयी, तो दाखिला नीति में एक व्यापक परिवर्तन हुआ और परीक्षाओं के जरिए दाखिला मिलने लगे, जबकि इसके पहले तक महज मेरिट के आधार पर छात्रों को मेडिकल तथा इंजीनियरिंग कॉलेजों में एडमिशन मिल जाते थे। 90 के दशक में जब भारतीय अर्थव्यवस्था का उदारीकरण शुरू हुआ और विकास की रफ्तार भी तेज हुई, तो कई क्षेत्रों में पेशेवरों की मांग अचानक बढऩे लगी। यही नहीं, पिछले दो दशकों में विभिन्न क्षेत्रों में हुए व्यापक तकनीकी विकास के चलते दर्जनों किस्म के नए अवसर उभर कर सामने आए हैं जिसमें सबसे बड़ा क्षेत्र है कंप्यूटर और इनफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी का। 80 के दशक तक जहां इस क्षेत्र में महज कुछ हजार लोगों को रोजगार हासिल था, वहीं आज प्रत्यक्ष तौर पर 40 लाख से भी ऊपर और अप्रत्यक्ष तौर पर लगभग 1 करोड़ लोगों को आईटी क्षेत्र में रोजगार हासिल है और इसका सालाना का टर्नओवर बढ़कर 40 अरब डॉलर के आसपास पहुंच गया है।
अर्थव्यवस्था में 8 फीसदी से ऊपर की तेजरफ्तार विकास दर ने सभी क्षेत्रों के लिए बड़े पैमाने पर पेशेवरों की मांग पैदा कर दी है। दूसरी तरफ लगभग 25 करोड़ की आबादी वाला भारतीय मध्यवर्ग आज अपनी शिक्षा और कॅरिअर के लिए किसी भी हद तक खर्च करने को तैयार है। इस सबका नतीजा यह निकला है कि पिछले तीन दशकों में तमाम नए तकनीकी और प्रबंधन संस्थानों के खुलने के बावजूद इन संस्थानों में प्रवेश चाहने और पाने वालों की संख्या में भारी अंतर बढ़ता जा रहा है। दो दशक पहले तक जहां देश भर की तकरीबन 8 हजार इंजीनियरिंग सीटों के लिए मुश्किल से 45 से 50 हजार के बीच में छात्र जोर-आजमाइश करते थे, वहीं आज 16 से 20 हजार सरकारी या उच्च प्रतिष्ठा वाले इंजीनियरिंग संस्थानों के लिए 8 से 9 लाख के बीच छात्र जोर-आजमाइश करते हैं। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि एक-एक सीट के लिए कितने-कितने उम्मीदवार होते हैं। दरअसल अवसरों की भरमार और इन अवसरों के लिए तैयार कराने वाले संस्थानों के सीमित होने की वजह से ही कोचिंग कारोबार में बेतहाशा उछाल आया है।
देश के कई शहरों की आज पहचान ही कोचिंग केन्द्र के रूप में होने लगी है, जैसे कोटा। कोटा संभवत: देश का अकेला वह शहर है जिसने अपने कोचिंग सेंटर्स की बदौलत न सिर्फ पूरे देश में भौगोलिक पहचान बनायी है बल्कि नए युग के नालंदा के रूप में प्रतिष्ठा हासिल की है। शायद कोटा के अलावा देश में कोई दूसरा ऐसा छोटा शहर नहीं होगा जहां उत्तर, दक्षिण, पूरब, पश्चिम यानी देश के हर हिस्से के छात्र महज कोचिंग लेने के लिए वहां आते हों। सुदूर दक्षिण से केरल, तमिलनाडु, आन्ध्र प्रदेश, पूरब में उड़ीसा, बिहार, पश्चिम बंगाल, उत्तर पूर्व में मणिपुर, मेघालय, पश्चिम से मुंबई, गुजरात, उत्तर से जम्मू, मध्य से जबलपुर, भोपाल यानी देश का कोई ऐसा कोना नहीं है जहां से छात्र कोटा महज कोचिंग लेने के लिए न आते हों। यूं तो देश के बड़े-बड़े विश्वविद्यालय जैसे दिल्ली, बनारस, इलाहाबाद, लखनऊ, मुंबई, चेन्नई और हैदराबाद में भी देश के अलग-अलग हिस्सों से छात्र पढऩे के लिए आते-जाते हैं, लेकिन कोटा जैसे किसी दूसरे शहर में पूरे देश के छात्र नहीं मिलते। कोटा में मौजूद ये नामचीन कोचिंग सेंटर ही हैं जिन्होंने इसे इंजीनियरिंग और मेडिकल संस्थानों में दाखिले का गेटवे बना दिया है। कोटा के मशहूर कोचिंग सेंटर्स में कॅरिअर प्वाइंट, इनसाइट दासवानी, चैतन्य कोचिंग संस्थान, एनएन कॅरिअर और बंसल कोचिंग ने पूरे देश में अपना नाम बनाया है।
इंदौर में कोचिंग लघु उद्योग बना
कोटा के बाद मप्र के कई शहरों ने अपने आपको कॅरिअर लांचर के रूप में स्थापित किया है। इनमें इंदौर के बाद अब इस कतार में भोपाल, जबलपुर और ग्वालियर भी पूरी तैयारी के साथ शामिल हो गए हैं। इंदौर में तो यह एक लघु उद्योग ही है। इंदौर में लगभग 250 से ज्यादा देश के विभिन्न हिस्सों के कोचिंग सेंटर्स की शाखाएं और यहां के निजी कोचिंग केन्द्र हैं। यहां मप्र ही नहीं देश के विभिन्न शहरों के छात्र विभिन्न स्तरों की पढ़ाई व विभिन्न परीक्षाओं की तैयारी करते हैं। यहां कोचिंग केन्द्रों के चलते हजारों लोगों को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तौर पर रोजगार मिला हुआ है। लेकिन खेद की बात है कि राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगी परीक्षाओं में यहां के छात्रों का प्रदर्शन निराशाजनक रहा है। हालांकि देश के बड़े कोचिंग सेंटर्स के रूप में अभी भी दिल्ली और चेन्नई जैसे शहरों का कोई मुकाबला नहीं है। लेकिन ये इतने बड़े शहर हैं और यहां इतने बड़े और विविधता वाले उद्योग हैं कि उन सबके बीच कोचिंग एक प्रमुख उद्योग के रूप में अपनी पहचान नहीं बना पाता। जबकि हकीकत यही है कि देश के कोचिंग कारोबार की राजधानी दिल्ली ही है। क्वालिटी के लिहाज से भी और क्वांटिटी के लिहाज से भी।
जिस तरह से दिनोंदिन कोचिंग का यह कारोबार भारी-भरकम आकार ग्रहण करता जा रहा है, उसको देखते हुए बड़े कार्पोरेट खिलाडिय़ों का इसकी तरफ आकर्षित होना स्वाभाविक ही है। वैसे सत्यम कंप्यूटर्स और एनआईआईटी जैसी बड़ी कार्पोरेट कंपनियां पहले से ही एक क्षेत्र विशेष में मौजूद हैं। अब जो खबर है उसके मुताबिक रिलायंस, विप्रो जैसी कंपनियां भी इस क्षेत्र में एक बड़ी रूपरेखा के साथ कूदने जा रही हैं। हालांकि यह अभी शुरुआती दौर की ही खबरें हैं, लेकिन इस उद्योग में भविष्य के लिए जो शानदार संभावनाएं दिख रही हैं, उसके चलते यह तय है कि आज नहीं तो कल कोचिंग कारोबार में बड़े कार्पोरेट खिलाड़ी अवश्य दिखायी देंगे।
इधर, इंदौर में यूपीएससी की कोचिंग संचालक के खिलाफ धोखाधड़ी का मामला दर्ज हुआ है। बताया जा रहा है कि ओशो आईएएस एकेडमी का संचालक कोचिंग पर ताला डालकर फरार होने की तैयारी में है। छात्रों की शिकायत पर पुलिस ने कोचिंग संचालक के खिलाफ मामला दर्ज कर लिया है। छात्रों का कहना है कि उनकी कोचिंग का संचालक जमा की गई फीस को लेकर फरार होने वाला है। लिहाजा उनके पैसे रिफंड कराए जाएं। उन्होंने बताया कि इस कोचिंग में करीब 60 छात्र प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करते हैं और कोचिंग ने हर स्टूडेंट से एक लाख रूपए फीस के तौर पर लिया है। यह कोचिंग कुछ महीने पहले ही खुली है। छात्रों का कहना है कि एक महीने तक कोचिंग सही ढंग से चली, लेकिन अब एकाएक सभी टीचर कोचिंग छोड़ कर जाने लगे हैं। ऐसे में जब छात्रों की पढ़ाई प्रभावित हुई, तो उन्होंने कोचिंग के मैनेजर से बात की। कोचिंग के मैनेजमेंट ने शुरू में तो छात्रों की बातों का गोल-मोल जवाब दे दिया, लेकिन जब छात्रों ने थोड़ी सख्ती दिखाई तो उन्होंने कह दिया कि कोचिंग का मालिक कोचिंग बंद करने जा रहा है। जिसके बाद छात्रों ने अपनी फीस वापस मांगी, लेकिन कोचिंग के मैनेजमेंट ने किसी भी स्टूडेंट की फीस रिफंड करने से मना कर दिया।
यहां भी आसान नहीं है दाखिला
भले कोचिंग केन्द्र पैसा कमाने का जरिया हों, भले यह सपना दिखाकर अच्छी-खासी कमाई कर रहे हों, लेकिन यह भी तय है कि प्रतिष्ठित कोचिंग केन्द्रों में हर किसी का दाखिला आसान नहीं है। दिल्ली, कोटा यहां तक कि इंदौर और भोपाल में भी कई प्रतिष्ठित कोचिंग सेंटर हैं, जहां हर छात्र एडमिशन पाना चाहता है भले ही इनकी फीस दूसरे सेंटर्स के मुकाबले दोगुनी ही क्यों न हो। लेकिन ये सेंटर सभी छात्रों को एडमिशन नहीं दे पाते। एक तो व्यवस्थागत मजबूरी है और दूसरी बात साख का भी सवाल है। ये प्रतिष्ठित कोचिंग सेंटर अपने यहां अच्छे छात्रों को ही एडमिशन देते हैं ताकि वे सफल हों और इससे इन केन्द्रों की प्रसिद्घि भी बरकरार रहे। इसके लिए ये कोचिंग सेंटर प्रवेश हेतु एंटेंस एग्जाम लेते हैं और उसमें सफल छात्रों को ही एडमिशन देते हैं। एक कोचिंग संचालक का कहना है कि कोचिंग केन्द्रों की फीस अलग-अलग पाठ्यामों, परीक्षाओं और शहरों पर निर्भर करती है। साथ ही कोचिंग सेंटर के नाम और प्रतिष्ठा से भी फीस में फर्क पड़ता है। बहरहाल, दिल्ली में जहां मेडिकल और इंजीनियरिंग की तैयारी कराने वाले औसत कोचिंग सेंटर सालाना 75 से 80 हजार रुपए फीस लेते हैं, वहीं इलाहाबाद में यह फीस 40 हजार, कोटा में 45 से 50 हजार, इंदौर में 30 से 35 हजार और कानपुर तथा लखनऊ में 35 से 40 हजार के बीच रह जाती है। इसी तरह अलग-अलग परीक्षाओं की तैयारी और पाठ्यामों के लिए औसत फीस ली जाती है। सबसे ज्यादा आईआईटी, पीएमटी, सीपीएमटी, एमसीए, एमबीए, सिविल सर्विसेज, यूजीसी नेट, एमएसजी/सीपीओ/ एमएससी/रेलवे तथा हाईस्कूल और इंटरमीडिएट (10जमा2) के बोर्ड एग्ज़ाम्स की कोचिंग होती है। कोचिंग का कारोबार दिखने में तो सिर्फ परीक्षाओं और शिक्षा से जुड़ा कारोबार ही लगता है, लेकिन हकीकत यह है कि यह बहुउद्देश्यीय और बहुस्तरीय कारोबार की नींव रखता है। जिन भी शहरों में बड़े पैमाने पर कोचिंग केन्द्र खुले हैं, वहां खाने-पीने के सामानों की बिक्री, किराए के आवासों की मांग और इसी तरह की दूसरी तमाम जरूरत की चीजों की मांग बढ़ जाती है जिससे कोचिंग के साथ टिफिन बॉक्स और हॉस्टल उद्योग भी तेजी से फलता-फूलता है।
अंबानी और अडानी का मायाजाल...
मप्र में फैलाया जाल राजस्थान को कर रहे मालामाल
6.89 लाख करोड़ का सपना कब होगा अपना
ऐसी सरकारी कोशिशों से कैसे हो सकेगा उद्योगों का विस्तार!
भोपाल। मप्र में पिछले 9 साल से सरकार देशी-विदेशी कंपनियों के निवेश के लिए पलक-पावड़े बिछाए हुए है, लेकिन निवेशक मप्र को केवल चारागाह की तरह उपयोग कर रहे हैं। इसका प्रमाण यह है कि प्रदेश में लगातार निवेश की घोषणा करने के बाद भी देश के तीन बड़े औद्योगिक समूह बीते वित्त वर्ष 2014-15 में राजस्थान को मालामाल कर गए। एक के बाद एक तीन बड़े घरानों- अडानी, अंबानी और टाटा ने राजस्थान सरकार के साथ न केवल एमओयू पर हस्ताक्षर किए, बल्कि काम भी शुरू कर दिया है। इनके लिए मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे 2 साल पहले सत्ता संभालने के बाद से प्रयासों में जुटी थी। इनसे होने वाला निवेश पूरे वित्त वर्ष के बजट के लगभग बराबर पहुंच गया है। तीनों समूह सोलर पार्क और स्वास्थ्य सहित कई परियोजनाओं पर 1.10 लाख करोड़ रुपए का निवेश कर रहे हैं। राज्य के बजट के लिहाज से यह खासी बड़ी रकम है। वित्त वर्ष 2014-15 में राजस्थान का बजट करीब 1.31 लाख करोड़ रुपए का रहा। खास बात यह है कि एक महीने में ही इतना बड़ा निवेश दो-तीन घरानों ने कभी नहीं किया। वहीं दूसरी तरफ आलम यह है कि इंदौर में 8 से 10 अक्टूबर 2014 को आयोजित ग्लोबल इन्वेस्टर्स समिट में निवेश की घोषणा करने के बाद ये घराने मप्र को भूल-सा गए हैं। जानकारों का कहना है कि हमारी कोशिशें ही कागजी रही हैं, इसलिए निवेशक भी खनापूर्ति करके चले गए। ज्ञातव्य है कि इंदौर ग्लोबल इन्वेस्टर्स समिट के समापन अवसर पर यह खबर आई की देश और विदेश के उद्योगपतियों ने प्रदेश में 6.89 लाख करोड़ रुपए के निवेश प्रस्ताव दिए हैं तो सब गदगद हो गए। सात करोड़ की जनसंख्या वाले इस प्रदेश के हर एक बाशिंदे को लगा कि इसमें से कम से कम 98,428 रूपए की अंश पूंजी तो उसके हिस्से में आ सकती है, लेकिन जिन बड़े घरानों ने हमें यह सपना दिखाया था उन्होंने सरकार को ठेंगा दिखा दिया है। वहीं दूसरी तरफ छोटे उद्योगपति प्रदेश में निवेश के लिए दर-दर भटक रहे हैं, लेकिन उन्हें तव्वजो नहीं दी जा रही। ऐसे में सवाल उठता है कि ऐसी सरकारी कोशिशों से कैसे हो सकेगा उद्योगों का विस्तार!
एक उद्योगपति की नजर से देखा जाए तो मध्यप्रदेश में उद्योगों के लिए जरूरी पानी, ऊर्जा, कनेक्टिविटी, भूमि, प्रतिभा और विश्वास है। इसी के बल पर शिवराज सिंह चौहान मध्यप्रदेश को देश की अर्थ-व्यवस्था का ड्राइविंग फोर्स बनाना चाहते है। वे अपनी इसी सोच के साथ प्रदेश में औद्योगिकीकरण को बढ़ावा देने के लिए पिछले 9 साल से निरंतर प्रयास कर रहे हैं। लेकिन नौकरशाही के अडिय़ल रवैए और उद्योगपतियों की नाफरमानी के कारण प्रदेश में औद्योगिक विकास तेजी से नहीं हो पा रहा है।
365 दिन बाद अंबानी तो नए प्रस्ताव लेकर
इंदौर ग्लोबल इन्वेस्टर्स समिट 2014 के पहले जितने भी समिट हुए थे उनके बार में कहा जाता था कि केवल कागजी एमओयू करके उद्योगपति भूल जाते हैं कि उन्होंने क्या वादा किया है। इसलिए इंदौर ग्लोबल इन्वेस्टर्स समिट 2014 में एमओयू के साथ ही उद्योगपतियों से घोषणा कराई गई की वे मप्र में कितना निवेश करना चाहते हैं। प्रदेश में निवेश की उम्मीदों को परवान चढ़ाने वाली ग्लोबल इंवेस्टर्स समिट का एक साल पूरा हो गया। समिट में निवेश के वादों के साथ एक लाख से ज्यादा को रोजगार का सपना दिखाया गया था, लेकिन वादे अभी अधूरे हैं। समिट में मंच से निवेश के लिए देश के बड़े औद्योगिक घरानों ने ऐलान किया था। औद्योगिक हस्तियां भी पलटकर दोबारा नहीं आई। इंदौर में समिट में 3 हजार से ज्यादा समूह ने 5.89 लाख करोड़ का वादा किया था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मौजूदगी में मंच से बड़े औद्योगिक घरानों ने निवेश का भरोसा दिलाया था, लेकिन अधिकांश समूह 365 दिन में नहीं आए है। अनिल अंबानी-रिलायंस एडीजी ग्रुप के चेयरमेन अनिल अंबानी ने सीमेंट, कोल, पॉवर और टेलीकॉम प्रोजेक्ट में 60 हजार करोड़ के निवेश की घोषणा की थी। इसी कड़ी में समूह ने धीरूबाई यूनिवर्सिटी के लिए अचारपुरा में जमीन ली थी। लेकिन कुछ दिन बाद इस प्रोजेक्ट से हाथ खींच लिए। अब करीब एक साल बाद अनिल अंबानी स्वयं मप्र आए और मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान से मुलाकात कर 46 हजार करोड़ रूपए के नए निवेश का प्रस्ताव दिया है। यह निवेश रक्षा, सूचना प्रौद्योगिकी, इलेक्ट्रॉनिक्स मैनयुफैक्चरिंग और ऊर्जा के क्षेत्र में किया जाएगा। समूह ने भोपाल में रोटरी विंग हेलीकॉप्टर निर्माण इकाई स्थापित करने का भी निर्णय लिया है। लेकिन इस अवसर पर अनिल अंबानी से किसी ने यह पूछने की कोशिश नहीं की की एक साल पहले उन्होंने जो घोषणा की थी, उसका क्या हुआ? अब देखना यह है कि अनिल अंबानी कि यह योजना भी कागजी तो नहीं साबित होती है। ऐसा इसलिए कहा जा रहा है कि मप्र में निवेश की घोषणा करने के बाद अनिल अंबानी की कंपनी रिलायंस पावर न राजस्थान में 50 हजार करोड़ रुपए का निवेश किया है। छोटे भाई के साथ बड़े भाई ने भी मप्र को केवल सपना ही दिखाया है। मुकेश अंबानी के रिलायंस इंडस्ट्रीज ने उर्जा और आईटी के क्षेत्र में 20 हजार करोड़ के निवेश का कहा था। होशंगाबाद में जमीन देखी गई थी। बाद में पहल नहीं की गई।
वादा मप्र से और काम छत्तीसगढ़ और राजस्थान में
अडानी समूह के गौतम अडानी ने मप्र में वेयर हाउसिंग और लॉजिस्टिक के क्षेत्र में 20 हजार करोड़ के निवेश का वादा किया था। समूह ने अभी तक निवेश के लिए कोई कदम नहीं उठाया है। जबकि एक साल पहले समूह द्वारा ग्वालियर और जबलपुर में उद्योग लगाने को कहा गया था। लेकिन समूह मप्र में की गई घोषणाओं को भूल गया है और छत्तीसगढ़ में सक्रिय हो चुका है। अंबिकापुर जिले के पासा कोल ब्लाक से कंपनी द्वारा कोयला उत्खनन कर गुजरात भेजा जा रहा है। हाल ही में कंपनी ने रायगढ़ जिला में स्थित कोरबा वेस्ट पावर प्लांट को खरीदा है, प्लांट तक कोयला आपूर्ति करने की कवायद भी शुरू कर दी गई है। वहीं वहीं अडानी ग्रुप ने राजस्थान में 10 हजार मेगावॉट क्षमता की सौर ऊर्जा परियोजनाएं लगाने का काम शुरू कर दिया है, जबकि इसके लिए सरकार के साथ एमओयू मई 2015 में किया गया था। कंपनी इस परियोजना में 40 हजार करोड़ रुपए का निवेश कर रही है।
उल्लेखनीय है कि अभी हाल ही में अडानी ग्रुप ने बड़वानी के खजूरी ग्राम में 1000 करोड़ रुपए का नया निवेश विंड एनर्जी प्लांट में करने की बात कही थी, लेकिन उसका भी अता-पता नहीं है। इसी तरह फ्यूचर ग्रुप के किशोर बियाणी ने फूड पार्क के क्षेत्र में दो हजार करोड़ रुपए निवेश का कहा था। ग्रुप की तरफ से बड़े फूड बाजार की योजना भी थी, लेकिन अभी तक निवेश नहीं आया है। इससे दस हजार लोगों को रोजगार मिल सकता था।
एस्सार ग्रुप के शशि रूइया ने चार हजार करोड़ से कोल व बीपीओ सेक्टर के लिए हा करने के बाद कुछ नहीं किया। कोल सेक्टर के लिए सिंगरौली और उससे लगे इलाकों में जमीन मांगी गई है। फिलहाल प्रोजेक्ट आने के आसार नहीं है। एस्सेल ग्रुप के सुभाष चंद्रा ने मध्यप्रदेश में 50 हजार करोड़ रुपए का निवेश 6 परियोजना में करने वाले थे। इसमें प्रदेश के पांच शहर को स्मार्ट सिटी के रूप में विकसित करने तथा हैल्थ और वैलनेस प्रोजेक्ट शामिल हैं। लेकिन उसके बाद से एस्सेल ग्रुप गायब हो गया है। समिट में पेप्सी और कोका कोला कंपनी ने निवेश का ऐलान किया था। पेप्सी ने ग्वालियर के मालनपुर में बाटलिंग प्लांट लगाने के लिए 50 एकड़ और कोका कोला ने होशंगाबाद में प्लांट के लिए 110 एकड़ जमीन मांगी थी। दोनों प्रस्ताव अटके हैं। भोपाल में छह हजार करोड़ की लागत से इलेक्ट्रानिक फेब प्लांट का दावा अमेरिकी कंपनी मेसर्स क्रिकेट सेमीकण्डक्टर ने किया था। प्लांट में इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों में लगने वाली माइक्रोचिप बनना है। ऐसे ही 600 करोड़ के निवेश का अमेरिकी कंपनी ब्लूमबर्ग साइंटिफिक वेयर हाउस क्षेत्र में करने आई थी। दोनों कंपनी जमीन देखने के बाद नहीं आई है।
जेपी ग्रुप ने सबसे अधिक दिखाए हवाई सपने
इन सभी औद्योगिक घरानों ने मप्र के साथ जो किया सो किया लेकिन प्रदेश को जेपी ग्रुप ने सबसे अधिक हवाई सपने दिखाया है। जेपी ग्रुप के संस्थापक जयप्रकाश गौड़ ने भोपाल में सेमी कंडक्टर मेन्यूफेक्चरिंग यूनिट लगाने को कहा था। लेकिन कंपनी की तरफ से प्रोजेक्ट से किनारा कर लिया गया है। अब कंपनी सीमेंट के सेक्टर में भी कोई निवेश नहीं करना चाह रही है। जेपी ग्रुप के जयप्रकाश गौर ने समिट में कहा था कि उनका समूह मध्यप्रदेश में 35 हजार करोड़ रुपए का निवेश करेगा। जिसमें सीमेंट प्लांट, रीवा में स्मार्ट सिटी, टीवी चैनल तथा हिन्दी समाचार-पत्र शामिल है। लेकिन पिछले 40 साल से मप्र में कार्य कर रहे समूह ने प्रदेश में निवेश से मुंह मोड़ लिया है। इसके पीछे मुख्य वजह यह बताई जा रही है की समूह लगातार कर्ज में डूबता जा रहा है। अभी हाल ही में जेपी समूह को बड़ा झटका देते हुए केयर रेटिंग्स ने जयप्रकाश एसोसिएट्स की ऋण रेटिंग घटाकर डिफॉल्ट कर दी है। बुनियादी ढांचा क्षेत्र में कारोबार करने वाली जेपी एसोसिएट्स तय समय पर अपने गैर-परिवर्तनीय डिबेंचर्स की रकम चुकाने में असफल रही। इसके बाद ही इसकी रेटिंग में कटौती की गई है। आईसीआईसीआई बैंक के नेतृत्व में निजी क्षेत्र के बैंकों समेत कई बैंकों ने कंपनी को ऋण दे रखा है। केयर ने कहा कि कंपनी का वित्तीय प्रदर्शन खराब होने और आस्तियों की बिक्री से रकम प्राप्त करने में हो रही देरी के साथ ही ऋण प्रबंधन प्रक्रिया के कारण कंपनी का नकदी प्रवाह प्रभावित हुआ है। इसी वजह से कंपनी समय पर अपना ऋण नहीं चुका पा रही है। आंकड़ों के अनुसार जयप्रकाश एसोसिएट्स पर कुल 60,000 करोड़ रुपए का ऋण बकाया है, जबकि वैश्विक बैंक यूबीएस ने वित्त वर्ष 2015 के लिए समूह की कुल देनदारी 96,000 करोड़ रुपए रहने का अनुमान लगाया है। उधर, प्रदेश में निवेश में हो रही देरी के बारे में ट्राइफेक के एमडी डीपी आहूजा का कहना है कि निवेश की प्रकिया लंबी चलती है। ज्यादातर बड़े समूहों से संवाद चल रहा है। कई कंपनियां आने को तैयार है। कुछ बड़े समूह जल्द ही प्रदेश में आमद देंगे।
कथित उद्योगपति सिर्फ जमीन हथियाना चाहते हैं
प्रदेश कांग्रेस के मुख्य प्रवक्ता केके मिश्रा ने प्रदेश में निवेश को लेकर एक बार फिर राज्य सरकार पर आरोप लगाए हैं। मिश्रा ने कहा है कि सीएम शिवराज सिंह चौहान देश-दुनिया के उद्योगपतियों को प्रदेश में निवेश का न्यौता दे रहे हैं। उद्योगपति घोषणा भी करते हैं, लेकिन निवेश के नाम पर कुछ नहीं होता। सीएम की विदेश यात्राएं झूठे प्रचार का माध्यम हैं क्योंकि विदेशी पूंजी निवेश केंद्र सरकार का विषय है। ऐसा करके सीएम प्रदेश की जनता को छल रहे हैं।मिश्रा ने राज्य सरकार पर आरोप लगाते हुए कहा कि मप्र में निवेश के नाम पर कथित उद्योगपति सिर्फ जमीन हथियाना चाहते हैं। इससे बड़े-बड़े उद्योगपति भी शामिल हैं। राज्य में कई बार ग्लोबल इन्वेस्टर्स समिट हो चुके हैं, उनमें निवेश को लेकर जितनी भी घोषणाएं हुईं आधी भी पूरी नहीं हो पाई हैं।
उल्लेखनीय है कि समिट में मप्र सरकार ने आश्वासन दिया था कि समिट में प्राप्त निवेश प्रस्तावों के आधार पर रोडमैप बनाया जाएगा। प्रत्येक निवेशक के साथ एक अधिकारी को जोड़कर सिंगल डोर व्यवस्था से स्वीकृतियां दिलाई जाएंगी। मध्यप्रदेश में ईज ऑफ बिजनेस डूइंग पर रिपोर्ट तैयार कर देश के सामने रखेंगे। निवेशकों के विश्वास को मध्यप्रदेश सरकार टूटने नहीं देगी। अपने वादे के मुताबिक सरकार ने सिंगल विंडो सिस्टम बनाया था। ट्राइफेक की वेबसाइट पर ऑनलाइन रजिस्ट्रेशन के बाद ट्राइफेक को खुद इसे अमल में लाना था। औद्योगिक घरानों से समन्वय करना था, लेकिन सिस्टम पूरी तरह फेल हो चुका है। अब भी ऐसी जटिल प्रकिया है कि किसी भी उद्योग को डालने की प्रकिया एक साल में नहीं हो पाती है। विभागों में समन्वय नहीं है। उद्योगपतियों की सुविधा के लिए किए जाने वाले दावे और वादे खोखले साबित हो रहे हैं। हाल ये हैं कि भोपाल, इंदौर, ग्वालियर, जबलपुर के आसपास औद्योगिक क्लस्टर्स में कॉमन फैसिलिटी सेंटर्स (सीएफसी) तक शुरू नहीं किया जा सका है। जबकि इसकी बातें 2012 से चल रही हैं। करीब तीन साल बाद भी वो क्लस्टर्स तक स्थापित नहीं हो सके, जहां सीएफसी शुरू होना है। अंदाजा लगाया जा सकता है कि उद्योगों के विस्तार को लेकर सरकारी कोशिशें कितनी सफल या विफल साबित हो रही हैं। निवेशकों को रिझाने के लिए मप्र शासन ने उद्योगपतियों को कई तरह की सुविधाएं देने की बात तो की, लेकिन इनमें से काफी कम पर शासन खुद खरा उतर पाया। इंदौर और इसके आसपास बनाए जा रहे औद्योगिक क्लस्टर्स में कॉमन फैसिलिटी सेंटर्स (सीएफसी) शुरू करने की योजना बनाए करीब दो साल बीत गए हैं, लेकिन इस दिशा में कोई काम नहीं हो पाया। उद्यमियों को सुविधा देने वाली इन सेंटर्स की योजना बनाते समय काफी वाहवाही बटोरी गई थी, लेकिन अब करीब दो साल बाद अधिकारी यह तक नहीं बता पा रहे हैं कि सेंटर्स कब तक शुरू हो सकेंगे।
उद्योग और उद्यमियों को बढ़ाने में मिलेगी मदद
अधिकारी इस बात को खुद स्वीकार कर रहे हैं कि सीएफसी के शुरू होने के बाद उद्योग और उद्यमियों, दोनों को आगे बढ़ाने में मदद मिलेगी। इंदौर, ग्वालियर के आसपास सभी प्रकार के उद्योगों में विस्तार की काफी संभावनाएं हैं और सीएफसी इसमें बेहद महत्वपूर्ण साबित हो सकता है। सीएफसी के लिए 60 करोड़ रुपए की योजना बनाई गई है। इसके शुरू होने के बाद उद्योगों में विस्तार होगा। इसकी मदद से सूक्ष्म, लघु के साथ बड़े उद्योग स्थापित करने वाले लोगों के लिए भी प्रशिक्षण लेने और उत्पाद तैयार करने की सुविधा होगी। कई लोग ऐसे होते हैं जो निवेश की क्षमता के साथ ही उद्योगों को शुरू करने की चाह भी रखते हैं, लेकिन उचित मार्गदर्शन नहीं मिलने के कारण शुरुआत नहीं कर पा रहे। इसी तरह के लोगों को प्रशिक्षण देने और क्षमताओं का विस्तार करने के लिए इन सेंटर्स की शुरुआत की जाना है, लेकिन एकेवीएन अब तक कोई बड़ा कदम नहीं उठा पाया है।
इंदौर के आसपास क्लस्टर्स ही तैयार नहीं...
प्रदेश की औद्योगिक राजधानी इंदौर के आसपास नमकीन, फार्मा, अपेरल आदि इंडस्ट्रियल क्लस्टर्स तैयार होने हैं। इन्हीं क्लस्टर्स में सीएफसी बनाए जाना हैं। मगर अब तक क्लस्टर्स भी तैयार नहीं हो सके हैं। अधिकारियों का कहना है कि पहले क्लस्टर्स शुरू करने पर जोर दिया जा रहा है। यहां कंपनियां आने के बाद सीएफसी की कोशिशें शुरू होंगी। इधर उद्योगपतियों का मानना है कि सीएफसी के लिए कंपनियों और क्लस्टर्स का इंतजार नहीं किया जाना चाहिए। सीएफसी से नए उद्यमियों को प्रशिक्षण लेने और अपना प्रोडक्ट लॉन्च करने का मौका मिलेगा। इंडस्ट्री समय के साथ तरक्की कर सकेगी।
जापान-दक्षिण कोरिया को न्योता यहां की कंपनी को अनुमति का इंतजार
सरकार प्रदेश में उद्योग लगाने के लिए जापान-दक्षिण कोरिया के उद्योगपतियों को न्योता दे रही है, वहीं प्रदेश उद्योगपतियों को निवेश की अनुमति नहीं मिल पा रही है। अभी हाल ही में इंदौर के समीप ही गंगवाल फ्लोर फूड्स एलएलपी 100 करोड़ का निवेश करने को तैयार है, लेकिन अनुमतियों के लिए पांच माह से भटक रही है। स्थानीय अफसरों द्वारा की जा रही आनाकानी पर ट्राईफेक के एमडी ने भी आपति दर्ज कराई है। कंपनी द्वारा ग्लोबल इन्वेस्टर्स समिट में हातोद के समीप ग्राम मुरखेड़ा में फूड प्रोसेसिंग यूनिट लगाने के लिए करार किया था। इसके लिए जमीन का डायवर्शन, लेआउट प्लॉन एप्रुवल, भवन निर्माण अनुज्ञा व अन्य आवश्यक अनुमतियां दी जाना है। कंपनी द्वारा आवेदन करने के पांच माह बीत गए, लेकिन आवेदनों पर कार्रवाई आगे नहीं बढ़ रही है।
उद्योग क्षेत्र के रखरखाव का खर्च बढ़ा
औद्योगिक क्षेत्र के रखरखाव का खर्च अब बढ़ गया है। प्रदेश शासन के निर्देश पर उद्योग विभाग ने औद्योगिक भूमि पर संचालित हो रहे लघु उद्योगों से पहले से 10 गुना संधारण शुल्क वसूल करने की तैयारी कर ली है। महाकोशल उद्योग संघ ने इसका विरोध किया है। संघ ने कहा है कि प्रदेश का औद्योगिक विकास सुनिश्चित करने मुख्यमंत्री ने 'मेक इन एमपीÓ का नारा दिया है। प्रदेश में उद्योगपतियों को बढ़ाने तरह-तरह की योजनाएं लागू करने के प्रयास हो रहे हैं। वहीं शासन के कुछ विभाग मुख्यमंत्री की मंशा पर पानी फेरने में जुटे हैं। हाल ही में नगर निगम प्रशासन उद्योगपतियों से भारी संपत्तिकर वसूलने का प्रयास किया। तो अब उद्योग विभाग ने लघु उद्योगों से एक फीसदी के बजाए अब 10 गुना संधारण शुल्क वसूली करने को तैयार है। इस तरह उद्योगपतियों पर दोहरी मार पड़ेगी और आर्थिक बोझ बढऩे से व्यापार भी छिन जाएगा। महासचिव डीआर जैसवानी ने कहा है कि वरिष्ठ अधिकारी वास्तविक स्थितियों से अनजान होकर, उद्योगपतियों से चर्चा किए बिना ही निर्णय कर लेते हैं। जबकि एकतरफा निर्णयों का उद्योगों के विकास पर विपरीत असर होता है। महाकोशल उद्योग संघ ऐसे निर्णयों का खुले मंच पर आकर विरोध करेगा।
नटरॉक्स परियोजना अधर में
प्रदेश के पीथमपुर औद्योगिक क्षेत्र में खुलने वाली डिजिटल ऑटो परीक्षण परियोजना के खटाई में पडऩे के कारण मध्यप्रदेश सरकार पर तीन हजार करोड़ रुपये का वित्तीय भार पड़ सकता है। नटरॉक्स परियोजना नाम से स्थापित होने वाली इस विशाल ईकाइ में ऑटोमोबाइल्स उद्योग के उत्पादों का परीक्षण करने के लिए ऑटो ट्रेक से लेकर तमाम तरह की लैब और परीक्षण इकाईयां स्थापित की जानी थी। मध्यप्रदेश सरकार ने अगस्त 2005 में इस परियोजना के लिए 1669 हैक्टेयर जमीन उपलब्ध कराई थी। उस समय 1718 करोड़ रुपये की लागत वाली इस परियोजना में नटरॉक्स की स्थापना पर 450 करोड़ रुपये खर्च होने का अनुमान लगाया गया था। यह भी अभिकल्पना थी कि एक बार विकसित हो जाने के बाद यह प्रोजेक्ट ऑटो उद्योग से अतिरिक्त निवेश पाने में सफल रहेगा लेकिन इस महत्वकांक्षी परियोजना को पूरा करने में हुई 5 वर्ष की देरी ने अब मध्यप्रदेश सरकार को तीन हजार करोड़ रुपये के घाटे की कगार पर खड़ा कर दिया है। परियोजना पर राज्य सरकार ने 351 करोड़ रुपये (भूमि अधिग्रहण पर) पहले ही खर्च कर दिये हैं किंतु 4143 एकड़ जमीन के कुछ हिस्से में ही काम हो पाया है बाकी हिस्सा खाली और बेकार पड़ा हुआ है। दिनों-दिन होती देरी के कारण राज्य सरकार के हाथ-पैर फूल रहे हैं क्योंकि जिन किसानों और भू मालिकों की जमीन का अधिग्रहण राज्य सरकार ने किया था वे कोर्ट की शरण में जा चुके हैं। जिला अदालत ने सरकार से गैर सिंचित भूमि के लिए 30 लाख 57 हजार और सिंचित भूमि के लिए 48 लाख 92 हजार प्रति हैक्टेयर की दर से राशि उन किसानों को देने का कहा है जिनकी जमींने अधिकृत की गई हैं। ये जमीने जिनका आकार 1412 हैक्टेयर के करीब है 10 गांवों की कृषि भूमि है जिनसे 160 परिवारों को विस्थापित भी किया गया है। 256.3 हैक्टेयर जमीन सरकारी है।
कुल मिलाकर 615.91 करोड़ रुपये 1014.55 हैक्टेयर सिंचित और 390.87 हैक्टेयर गैर सिंचित भूमि के लिए कोर्ट के आदेश के बाद देने थे। लेकिन किसानों ने इस हर्जाने की रकम से असहमति जताते हुए इंदौर में हाईकोर्ट की बैंच में अपील कर दी। इसके बाद हाईकोर्ट ने सिंचित भूमि के लिए 1 करोड़ 4 लाख और असिंचित भूमि के लिए 69 लाख 89 हजार प्रति हैक्टेयर की दर से हर्जाना देने का आदेश दिया है। इसका अर्थ यह हुआ कि मध्यप्रदेश सरकार को 1336 करोड़ 88 लाख रुपये का हर्जाना किसानों को देना होगा। यही नहीं यदि भूमि अधिग्रहण, पुर्नवास और पुर्नस्थापन अधिनियम 2013 का पालन किया गया तो प्रोजेक्ट पाँच वर्ष तक अपूर्ण रहने की स्थिति में जमीनों को उनके वास्तविक मालिकों को लौटाना होगा। मतलब दोहरा घाटा। मध्यप्रदेश के उद्योग विभाग के सूत्रों का कहना है कि 90 प्रतिशत जमीन अनुपयोगी पड़ी हुई है। यदि इस पर काम प्रारंभ हुआ तो अगले तीन वर्ष काम पूर्ण होने में लगेंगे। इस प्रकार 5 वर्ष तो यूं ही बीत जायेंगे। उद्योग विभाग के आयुक्त वीएल कान्ताराव कहते हैं कि सरकार सुप्रीम कोर्ट में यह मुकदमा हारती है तो यह एक बड़ी लायबिलिटी साबित होगी। यदि नाटरॉक्स जमीन वापस लौटा दे तो कम से कम उस जमीन पर नई औद्योगिक इकाईयां डालकर कुछ पैसा कमाया जा सकता है। खास बात यह है कि यह जमीन मध्यप्रदेश सरकार ने उद्योगों को बढ़ावा देने की नीति के तहत मात्र 100 रुपये में नटरॉक्स को मुहैया कराई थी और अब इन सातों परियोजनाओं की लागत बढ़कर 3827.30 करोड़ रुपये तक पहुँच चुकी है। जहां तक केन्द्र सरकार का प्रश्न है वहां कछुआ चाल से काम हो रहा है। इंदौर का पीथमपुर औद्योगिक क्षेत्र ऑटोमोबाइल और ऑटो कंपोनेंट के निर्माण के लिए एशिया के डेट्रोइट नाम से विख्यात है। पीथमपुर इलाके में फोर्ड मोटर्स और आयशर जैसी कंपनियों ने भी इकाईयां स्थापित की हुई हैं। इस तरह के 6 प्रोजेक्ट सारे देश में लगने थे। पीथमपुर प्रोजेक्ट वर्ष 2010 में ही पूरा होना था लेकिन 5 साल निकल चुके हैं एक कदम भी आगे नहीं बढ़े। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने केन्द्रीय भारी उद्योग मंत्री अनंत गीते से इस वर्ष जून में मुलाकात करके 1669 हैक्टेयर में से 1125 एकड़ जमीन लौटाने की मांग की थी। नटरॉक्स के एक वरिष्ठ अधिकारी का कहना है कि केन्द्रिय भारी उद्योग मंत्रालय ने अतिरिक्त हर्जाने से संबंधित मामले की पड़ताल के लिए एक समिति नियुक्त की है। इस समिति ने राज्य सरकार को 1125 एकड़ अनुपयोगी जमीन लौटाने की अनुशंसा की है। यह प्रस्ताव केन्द्रीय कैबिनेट के समक्ष अनुमोदन के लिए लंबित है। मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने इस परियोजना की गति बढ़ाने का निवेदन भी किया है। परियोजना में 700 लोगों को सीधे रोजगार मिलेगा। पीथमपुर के अलावा चेन्नई, मनेसर, सिलचर, अराई, रायबरेली और अहमद नगर में भी इसी तरह के प्रोजेक्ट खुलने हैं। सवाल यह है कि यदि सरकार को जमीन लौटानी पड़ी तो जो भी खर्च हुआ है उसकी जिम्मेदारी किसके माथे आयेगी। मध्यप्रदेश में कई औद्योगिक घरानों ने भी बड़ी क्षेत्रफल की जमीने ले रखी हैं जिन्हें अब वापस लौटाया जा रहा है। सरकार इनवेस्टर्स मीट कराती है, लाखों करोड़ रुपये के एमओयू पर दस्तखत किये जाते हैं, लेकिन ढाक के वही तीन पात। जमीन पर कहीं भी काम होता दिखाई नहीं पड़ता। यही हाल रहा तो मध्यप्रदेश देश के औद्योगिक नक्शे पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराने में सफल नहीं हो सकेगा।
कारोबार के लिए सुगम राज्यों में मप्र पांचवे स्थान पर
एक तरफ तो मध्यप्रदेश सरकार उद्योग को बढ़ावा देने के नाम पर इन्वेटर्स मीट का आयोजन कर निवेश के लिए जुनून की हद तक प्रयास कर रही है वही दूसरी तरफ सरकारी लालफीताशाही के कारण कई प्रोजेक्ट 5-5 वर्षों से लटक रहे हैं। इससे सरकार के तमाम प्रयासों पर पानी फिर रहा है। इसी का परिणाम है कि कारोबार के लिए सुगम राज्यों में हम छतीसगढ़ और झारखंड से भी पिछड़े हैं। भाजपा शासित गुजरात उद्योग-व्यवसाय के लिहाज से सुगमता वाले राज्यों की सूची में गुजरात शीर्ष पर है। यानी गुजरात में उद्योग-व्यवसाय लगाना-चलाना सबसे आसान है। देश के राज्यों में कारोबार में सुगमता पर पहली बार जारी अपनी तरह की इस को विश्व बैंक ने तैयार किया गया है। इस रैंकिंग में भाजपा शासित राज्य शीर्ष पांच में से चार स्थानों पर काबिज हैं। भाजपा के सहयोगी तेलुगूदेशम पार्टी (टीडीपी) शासित आंध्र प्रदेश दूसरे स्थान पर रहा। इनके बाद क्रमश: झारखंड, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान का स्थान है। ये सभी राज्य भाजपा शासन वाले हैं।
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रविवार, 7 फ़रवरी 2016
महेश्वर परियोजना बनी मप्र सरकार के गले की फांस
कंगाल सरकार परियोजना पूरी करने कहां से लाएगी 2200 करोड़
देश की सबसे सस्ती परियोजना लापरवाही से बन गई सफेद हाथी
भोपाल। करीब 1,25000 करोड़ के कर्ज में डूबी मप्र सरकार के पास सूखे से बर्बाद हुए किसानों को मुआवजा देने तक के लिए भी पैसे नहीं हैं कि उस पर महेश्वर जलविद्युत परियोजना को पूरा करने का भार आ गया है। दरअसल, नर्मदा नदी पर निर्माणाधीन निजीकृत महेश्वर जलविद्युत परियोजना से निर्माणकर्ता एजेंसी एस कुमार्र्स को हटाने का निर्णय लिया गया है। अब प्रदेश और केंद्र सरकार इस परियोजना को नियंत्रित करेंगी। महत्वपूर्ण घटनाक्रम में प्रदेश सरकार द्वारा गठित उच्च स्तरीय समिति की रिपोर्ट के बाद यह निर्णय लिया गया है। उल्लेखनीय है कि एस कुमार्र्स को तीन माह का अल्टीमेटम देकर पुनर्वास व काम में प्रगति दिखाने को कहा गया था, लेकिन वह इस काम में खरी नहीं उतर सकी। पिछले 30 साल से सरकार इस योजना से बिजली उत्पादन होने का ख्वाब देख रही थी, लेकिन करीब 2760 करोड़ रूपए इस परियोजना के निर्माण पर खर्च करने के बाद भी यह परियोजना अधूरी पड़ी है। जानकारों का कहना है कि महेश्वर जल विद्युत परियोजना पर अब तक करीब 2760 करोड़ रुपए खर्च हो चुके हंै। करीब 2200 करोड़ रूपए की जरूरत पुनर्वास और मशीनरी आदि के लिए और है। ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर कंगाली के दौर से गुजर रही प्रदेश सरकार इतनी बड़ी रकम कहां से लाएगी? उल्लेखनीय है कि बिच्छू डॉट कॉम ने 9 अप्रैल 2015 के अंक में महेश्वर जल विद्युत परियोजना में हुई देरी और घपले-घोटाले का खुलासा .... 2800 करोड़ स्वाहा, न बिजली मिली, न पानी ... शीर्षक से किया था।
उल्लेखनीय है कि खरगोन जिले में नर्मदा नदी पर 1985 में महेश्वर जल विद्युत बांध परियोजना शुरू हुई थी। महेश्वर जलविद्युत परियोजना, ओंकारेश्वर बहुउद्देशीय परियोजना से लगभग 40 किमी दूर खरगोन जिले में मंडलेश्वर के निकट नर्मदा नदी पर स्थित है। इस परियोजना के अन्तर्गत 35 मीटर ऊंचाई एवं 10475 मीटर लम्बा कांक्रीट बांध बनाया जाना है। दांए किनारे पर स्थित तटबंध सहित इसके उत्प्लाव की लम्बाई क्रमश: 1554 मीटर एवं 492 मीटर है एवं दांए तट पर 400 मेगावॉट की विद्युत क्षमता (40 मेगावॉट विद्युत क्षमता की 10 यूनिटें) का जल विद्युत गृह बनाना प्रस्तावित है। परियोजना के लिए जनवरी, 1994 में भारत-सरकार के पर्यावरण एवं वन मंत्रालय की स्वीकृति तथा केन्द्रीय विद्युत परियोजना की तकनीकी आर्थिक स्वीकृति प्राप्त कर लिए जाने के पश्चात इस परियोजना को पूर्ण किए जाने के कार्य श्री महेश्वर जलविद्युत निगम लिमिटेड नामक निजी कम्पनी को सौंप दिए गए। इसके लिए नवम्बर, 1994 में मध्य प्रदेश विद्युत मण्डल द्वारा एक विद्युत क्रय समझौते पर हस्ताक्षर किए गए। दिसम्बर, 1996 में परियोजना के पूर्व की प्राक्कलन राशि रुपए 465.63 करोड़ को संशोधित कर रुपए 1569 करोड़ आंकी गई है। वर्ष 2006 के मूल्य स्तर पर किए मूल्यांकन पर परियोजना की कुल लागत रू 2760 करोड़ आंकी गई थी, जो अब अब बढ़कर करीब 5,000 करोड़ पहुंच गई है। 400 मेगावाट की इस परियोजना की शुरूआत में ही सरकार ने एस कुमार्र्स को इस परियोजना के निर्माण की जो जिम्मेदारी दी थी, उसका खामियाजा सरकार को लगातार भुगतना पड़ रहा है। आलम यह है कि निर्माण के लिए 30 साल में अब तक 4 निर्माण एजेंसियां बदल गई। 2760 करोड़ रुपए खर्च हुए लेकिन अभी तक न तो बिजली का उत्पादन शुरू हो सका और न ही खेतों को पानी मिल रहा है। परियोजना की लागत बढऩे और इसमें हो रहे घपले-घोटाले की वजह से परियोजना को कर्ज भी नहीं मिल रहा है। इसलिए यह परियोजना अधर में लटकी हुई है। अब जब 465 करोड़ रुपए की यह योजना बढ़कर करीब 5,000 करोड़ की हो गई है, तब जाकर सरकार की नींद खुली है और उसने इस परियोजना से निर्माणकर्ता एजेंसी एस कुमार्र्स को हटाने का निर्णय लिया है।
नर्मदा बचाओ आंदोलन प्रमुख आलोक अग्रवाल ने बताया कि परियोजना के गतिरोध दूर करने के लिए नवंबर 2014 में प्रदेश सरकार ने अतिरिक्त मुख्य सचिव (वित्त) की अध्यक्षता में एक उच्च स्तरीय समिति का गठन किया था। समिति ने 2 मई 2015 को प्रस्तुत रिपोर्ट में परियोजना को लेकर 3 विकल्प सुझाए। इसके तहत परियोजनाकर्ता एस कुमार्र्स को 600 करोड़ रुपए की पूंजी जुटाने या 1100 करोड़ रुपए के ऋण की व्यवस्था 3 महीने में करने को कहा गया। यदि यह संभव न हो तो एस कुमार्र्स को हटाकर केंद्र व राज्य सरकार पूंजी निवेश कर परियोजना की मालकियत व संपूर्ण नियंत्रण अपने हाथ में लें। यदि यह भी संभव न हो तो परियोजना को रद्द कर दिया जाए। हाल ही में 8 सितम्बर 15 को परियोजना में पैसा लगा रही वित्तीय संस्थाओं और बैंकों की बैठक में स्पष्ट किया गया कि 2 अगस्त 2015 तक 3 महीने पूरे होने पर भी परियोजनाकर्ता एस.कुमार्र्स द्वारा पैसे की व्यवस्था न होने के कारण उसे परियोजनाकर्ता से हटाकर अब सरकार द्वारा परियोजना को अपने नियंत्रण में लेने की कारवाई प्रारंभ कर दी गई है। अब परियोजनकर्ता स्वयं केंद्र व राज्य सरकार होगी। सरकार का ही परियोजना पर पूरा नियंत्रण होगा। नर्मदा आन्दोलन ने इस निर्णय का स्वागत करते हुए मांग की है कि परियोजना को आगे बढ़ाने के पहले बिजली की दरों व प्रभावितों के पुनर्वास के बारे में ठोस निर्णय लें।
चार साल में ही कंपनी ने कर दिए थे हाथ खड़े
यह जानकर आपको आश्चर्य होगा कि महेश्वर बांध परियोजना का काम सिर्फ चार साल ही चला। 1993 में मप्र सरकार द्वारा निजीकरण लागू किए जाने के बाद यह परियोजना एस कुमार्र्स के हाथों में पहुंची। 1996-97 में एमओयू साइन होने के बाद काम शुरू हुआ, लेकिन 2001 में निर्माण कंपनी एस. कुमार्स ने वित्तीय कमजोरी की वजह से कार्य रोक दिया था। परंतु 2001 से 2005 तक काम बंद रहा। 2005 में पॉवर फाईनेंस कार्पोरेशन की अगुवाई में कुछ और समूहों और राज्य शासन ने मिलकर इसका काम शुरू करवाया, जो 2011 तक चला। इस दौरान 10 में से तीन टर्बाइन स्थापित कर बिजली उत्पादन की तैयारियां शुरू कर दी गई थी। इन तीन टर्बाइन से ही 120 मेगावाट बिजली उत्पादन शुरू किया जा सकता है, लेकिन इसके बाद परियोजना फिर उलझ गई। इस परियोजना में राज्य शासन ने पॉवर फाइनेंस कॉर्पोरेशन को केवल 400 करोड़ की काउंटर गारंटी दी है, जबकि पॉवर फाइनेंस कॉर्पोरेशन, रूरल इंजीनियरिंग कॉर्पोरेशन, हुडको, स्टेट बैंक ऑफ इंडिया, देना बैंक, जीआईसी और एलआईसी का पैसा लगा है। पॉवर कॉर्पोरेशन ने इसका एक ग्रुप बना रखा है।
एस कुमार्स के कारण सबसे सस्ती परियोजना हो गई महंगी
महेश्वर जल विद्युत परियोजना जब शुरू हुई थी तो वह देश की सबसे सस्ती परियोजना थी। लेकिन निर्माण एजेंसी एस कुमार्स की लापरवाही से यह परियोजना देश की सबसे महंगी परियोजना हो गई है। राहत और पुनर्वास में हुई देरी के साथ-साथ वित्तीय अनियमितताओं से घिरी इस परियोजना को सबसे अधिक एस. कुमार्र्स ने नुकसान पहुंचाया है। इसके पीछे मुख्य वजह है- इस परियोजना की निर्मात्री कंपनी एस कुमार्र्स की नीयत। उल्लेखनीय है कि खरगौन जिले में बन रही महेश्वर जल विद्युत परियोजना निजीकरण के तहत कपड़ा बनाने वाली कम्पनी एस. कुमार्र्स को दी गई थी। 1986 में केन्द्र एवं राज्य से मंजूर होने वाली महेश्वर परियोजना को शुरू में लाभकारी माना गया था और उसकी लागत महज 465 करोड़ रुपए ही थी जो अब बढ़कर 4,000 करोड़ हो गई है। सरकार ने बाद में 1992 में इस परियोजना को एस कुमार्र्स नामक व्यावसायिक घराने को सौंप दिया। उसी समय से यह कंपनी परियोजना से खिलवाड़ करती रही। बावजूद इसके एस कुमार्र्स समूह पर राज्य सरकार फिदा रहा। मध्यप्रदेश राज्य औद्योगिक विकास निगम के करोड़ों के कर्ज में डिफाल्टर होने के बावजूद सरकार ने महेश्वर हाइडल पॉवर प्रोजेक्ट के लिए पॉवर फाइनेंस कॉर्पोरेशन के पक्ष में कंपनी की ओर से सशर्त काउंटर गारंटी दी गई और बाद में इसे शिथिल करवा कर सरकार की गारंटी भी ले ली गई। उसने इंटर-कॉर्पोरेट डिपॉजिट (आईसीडी) स्कीम का कर्ज भी नहीं चुकाया। यह मामला मप्र विधानसभा में भी उठ चुका है।
राज्य शासन ने एस. कुमार्स गु्रप को इंटर-कॉर्पोरेट डिपॉजिट के तहत दिए गए 84 करोड़ रूपए बकाया होने के बावजूद महेश्वर पॉवर प्रोजेक्ट के लिए 210 करोड़ रूपए की गारंटी क्यों दी थी। महेश्वर पॉवर कार्पोरेशन ने चार सौ करोड़ रूपए के ओएफसीडी बाण्ड्स जारी करने के लिए कंपनी के पक्ष में पीएफसी की डिफाल्ट गारंटी के लिए काउंटर गारंटी देने का अनुरोध सरकार से किया गया था। तीस जून 2005 को सरकार ने कंपनी के प्रस्ताव का सशर्त अनुमोदन कर दिया। इसमें शर्त यह थी कि गारंटी डीड का निष्पादन बकाया राशि के पूर्ण भुगतान का प्रमाण-पत्र प्राप्त होने के पश्चात ही किया जाए। 13 सितम्बर 2005 को इस शर्त को शिथिल करते हुए सरकार ने केवल समझौता आधार पर ही मान्य करने का अनुमोदन कर दिया। इस समझौता योजना के तहत एमपीएसआईडीसी ने 23 सितम्बर 2005 को सूचना दी कि समझौता होने से विवाद का निपटारा हो गया है। बस इसी आधार पर महेश्वर हाइडल पॉवर कॉर्पोरेशन ने काउंटर गारंटी का निष्पादन कर दिया। अनुमोदन के बाद एस. कुमार्र्स की एकमुश्त समझौता नीति के अंतर्गत समझौते की शर्तों में संशोधन किया गया था, जिनका न पालन और न ही पूर्ण राशि का भुगतान किया गया। एक मुश्त समझौते के उल्लंघन के बाद एस. कुमार्स ने दुबारा एकमुश्त समझौते के लिए आवेदन किया गया। आईसीडी के 85 करोड़ के कर्ज के एकमुश्त समझौता योजना के तहत भुगतान के लिए 77 करोड़ 37 लाख रूपए एस कुमार्स को चुकाना थे। इसमें से कंपनी ने 22 करोड़ 9 लाख रुपए चुकाए। शेष राशि के चेक बाउंस हो गए। इसके लिए न्यायालय में प्रकरण चल रहा है। इस संबंध में प्रदेश सरकार द्वारा विधानसभा में जानकारी दी गई है कि एस. कुमार्र्स के साथ एमपीएसआईडीसी के विवाद का निपटारा हो गया है जबकि अभी विवाद बरकरार है। विभागीय अधिकारी बताते हैं कि एमपीएसआईडीसी के साथ एस कुमार्र्स ने समझौता किया था, जिसके अनुरूप भुगतान नहीं हुआ। साठ करोड़ से अधिक की राशि की वसूली बाकी है। नर्मदा बचाओ आंदोलन के सदस्य आलोक अग्रवाल बताते हैं कि 2005 में हमने महेश्वर विद्युत परियोजना को फौरन रद्द करने की मांग की थी। हमने रिजर्व बैंक से कहा था कि वह महेश्वर परियोजना के हालात की जांच सीबीआई से कराए।
पुनर्वास और मशीनरी आदि के लिए चाहिए 2200 करोड़
महेश्वर जल विद्युत परियोजना के अंतर्गत पुनर्वास और मशीनरी आदि के लिए करीब 2200 करोड़ रूपए की और जरूरत है। केंद्र सरकार और अन्य एजेंसियों से बांध को 154 मीटर तक भरने की अनुमति मिली है। इतनी ऊंचाई तक तीन टर्बाइन से बिजली बनाई जा सकती है, लेकिन इसके लिए भी करीब 80 करोड़ की जरूरत होगी, ताकि जिन किसानों के खेत के कुछ हिस्से डूब में आ रहे हैं। उन्हें मुआवजा दिया जा सके। जानकारों का कहना है कि तीन टर्बाइन के साथ बिजली उत्पादन में छह माह और 10 टर्बाइन के साथ 400 मेगावाट बिजली उत्पादन में दो वर्ष का समय लगेगा। वह भी तब जब पुनर्वास, विस्थापन सहित अन्य समस्याएं तय समय में दूर कर ली जाए। हालांकि 30 साल में यहां सिर्फ 20 प्रतिशत विस्थापन ही हो पाया है। इस बांध निर्माण से 22 गांव प्रभावित हो रहे हैं। पहले चरण के परीक्षण उत्पादन में ही सुलगांव, पथरड़, मर्दाना, नगावां, अमलाथा, गोगावां और भट्टयाण प्रभावित होंगे। इन गांवों में से कई में अभी तक पुनर्वास ही नहीं हो सका है। कंपनी प्रबंधन की मानें तो पुनर्वास पर 200 करोड़ रुपए पहले ही खर्च किए जा चुके हैं, जबकि पुरानी दर से भी पुनर्वास खर्च को जोड़ा जाए तो 350 करोड़ रुपए से अधिक राशि की जरूरत और है। यही नहीं भू-अर्जन और पुनर्वास को लेकर लागू नए कानून के अनुसार यदि मुआवजा दिया गया तो सरकार को भारी रकम चुकाना होगी। सरकार को डेढ़ से दो हजार करोड़ रुपए विस्थापन पर खर्च करना होंगे। पहले ही वित्तीय संकट के दौर से गुजर रही प्रदेश सरकार के लिए इतनी बड़ी रकम खर्च करना आसान नहीं होगा। खरगोन कलेक्टर नीरज दुबे कहते हैं कि अभी हमें आदेश नहीं मिला है। बांध परियोजना की रिपोर्ट हम लगातार राज्य और केंद्र सरकार को भेजते रहे हैं। फिलहाल पुनर्वास का काफी काम शेष है। आदेश मिलते ही नए अधिकारियों की तैनाती कर कार्य शुरू किया जाएगा। नर्मदा बचाओ आंदोलन के प्रमुखआलोक अग्रवाल ने बताया कि नया भूअर्जन कानून लागू होने से यह खर्च 1500 से 2000 करोड़ रुपए तक होगा जबकि समिति ने माना कि बांध से प्रभावित होने वाले 61 गांवों के 10 हजार परिवारों के पुनर्वास में 979 करोड़ रुपए का खर्च आएगा। आंदोलन लगातार इसी मुद्दे को लेकर 20 सालों से सरकार को चेताता आ रहा है। उल्लेखनीय है कि नर्मदा बचाओ आन्दोलन ने लगभग 20 वर्षों से महेश्वर परियोजना के विषय परियोजना की लाभदायकता और विस्थापितों के पुनर्वास के बारे में गंभीर प्रश्न खड़े किए है। परियोजना की महंगी बिजली, तमाम कैग रिपोर्ट्स के आधार पर परियोजनाकर्ता की वित्तीय अनियमितताएं व हजारों प्रभावितों के भू-अर्जन व पुनर्वास की व्यवस्था के न होने के मुद्दे को हजारों विस्थापितों ने नर्मदा बचाओ आन्दोलन के तहत सालों के सतत संघर्ष से उठाया है।
बिजली की लागत होगी 13 रुपए
बांध पूरा होने के बाद इससे बनने वाली महंगी बिजली कौन खरीदेगा इस पर विचार चल रहा है। प्रदेश सरकार ने निर्माण एजेंसियों को पहले ही स्पष्ट कर दिया है कि वे पांच रुपए 37 पैसे प्रति यूनिट से अधिक महंगी बिजली नहीं खरीदेंगे, जबकि परियोजना की वर्तमान लागत के अनुसार यहां बनने वाली एक यूनिट बिजली की कीमत 12 से 13 रुपए या उससे थोड़ी अधिक होगी। परियोजना को फाइनेंस करने वाली कंपनियां इस विकल्प पर भी विचार कर रही है कि अगले 15 वर्ष तक बिना किसी लाभ के सरकार को उनकी दरों के अनुसार ही बिजली सप्लाय की जाए। उच्च स्तरीय समिति के अनुसार परियोजना की वर्तमान लागत पर बिजली के दाम 12 से 13 रुपए प्रति यूनिट होंगे। इसे ब्याज दर कम करने, पूंजी पर लाभ न लेने आदि प्रयासों के बाद 5.32 रुपए प्रति यूनिट तक लाया जा सकता है, जिसे प्रदेश सरकार स्वीकार कर सकती है। वहीं प्रदेश सरकार ने यह भी कहा कि प्रदेश में बिजली मांग से ज्यादा उपलब्ध है और वह अन्य राज्यों को बिजली बेच रही है। सरकार को बिजली 3.50 रुपए प्रति यूनिट पड़ रही है। समिति ने माना कि यदि सरकार भी परियोजना लेती है तो प्रति यूनिट 2 रुपए के मान से करीब 200 करोड़ रुपए प्रति वर्ष का नुकसान होगा। बिजली दर 3.50 रुपए प्रति यूनिट से ज्यादा तय करना जनहित में नहीं होगा।
एनजीटी ने कहा पहले पुनर्वास फिर बांध में पानी
उधर, महेश्वर परियोजना के संबंध में राष्ट्रीय हरित न्यायाधीकरण नई दिल्ली (एनजीटी) ने एक महत्वपूर्ण फैसला देते हुए कहा है कि महेश्वर बांध में तब तक गेट बंद कर पानी नहीं भरा जा सकता, जब तक कि परियोजना के प्रभावितों का संपूर्ण पुनर्वास न हो जाए। नर्मदा बचाओ आंदोलन के कार्यकर्ता आलोक अग्रवाल ने बताया है कि तत्कालीन परियोजनाकर्ता ने सन 2012 में गलत जानकारी देकर पर्यावरण मंत्रालय से महेश्वर बांध में 154 मीटर तक पानी भरने की अनुमति ले ली थी। इस पर महेश्वर बांध प्रभावित अंतर सिंह और संजय निगम ने एनजीटी में इस अनुमति को चुनौती दी थी। एनजीटी ने सभी पक्षों की सुनवाई के बाद 28 अक्टूबर, 2015 को स्पष्ट आदेश दिया है कि जब तक संपूर्ण पुनर्वास पूरा नहीं हो जाता, तब तक महेश्वर बांध में तय ऊंचाई तक पानी नहीं भरा जा सकता, जब तक पुनर्वास पूरा नहीं हो जाता। साथ ही पुनर्वास पूरा होने के बाद गेट बंद करने के लिए एनजीटी से अनुमति लेनी होगी। अग्रवाल के अनुसार, केंद्र और राज्य सरकार को दिए गए आदेश में न्यायाधीश यूडी साल्वी एवं विशेषज्ञ सदस्य रंजन चटर्जी की खंडपीठ ने कहा है कि मुख्य मुद्दा संबंधित परियोजना से जुड़े पुनर्वास के पूरा होने का है, एक मई 2001 को दी गई पर्यावरणीय मंजूरी के अनुसार, पुनर्वास का काम बांध निर्माण की प्रगति के साथ-साथ चलेगा।
खंडपीठ ने कहा कि वर्तमान में निर्माण का कार्य पूरा हो गया है, लेकिन पुनर्वास के काम में निर्माण के साथ आवश्यक गति नहीं रखी गई है। पुनर्वास का काम न होने का कारण परियोजनाकर्ता द्वारा जिम्मेदार एजेंसी को पैसा न देना है। हम पैसा उपलब्ध कराने के मुद्दे पर न जाते हुए निश्चित रूप से हम अपना आदेश पुन: दोहराना चाहते हैं कि पुनर्वास पूरा किए बगैर बांध के गेट बंद या गिराए नहीं जाएंगे, जिससे क्षेत्र डूब में आए। इस मामले को अनिश्चितकाल के लिए स्थगित करते हैं, पक्षों को छूट दी जाती है कि पुनर्वास का कार्य पूरा हो जाने के बाद वो बांध के गेट बंद करने की अर्जी कर सकते हैं।
प्रभावित याचिकाकर्ताओं की ओर से पैरवी करने वाले अधिवक्ता संजय पारीख ने बताया कि परियोजनाकर्ता लगातार भू-अर्जन और पुनर्वास के लिए आवश्यक राशि उपलब्ध कराने में असफल रहा है। पारीख ने एनजीटी को यह भी बताया कि 154 मीटर तक पानी भरने का आदेश यह झूठ कहकर लिया गया था कि इस ऊंचाई पर 120 मेगावाट बिजली बन सकती है, जबकि ट्रिब्यूनल में प्रस्तुत हाल के दस्तावेजों से स्पष्ट है कि टरबाइन बनाने वाली कंपनी बीएचईएल ने स्पष्ट किया है कि पूर्ण जलाशय स्तर 162.26 मीटर के पहले बिजली बनाना संभव नहीं है। नर्मदा आंदोलन ने एनजीटी के आदेश का स्वागत करते हुए मांग की है कि इस आदेश के बाद सरकार अब नए भू-अर्जन कानून के अनुसार, प्रभावितों का भू-अर्जन कर संपूर्ण पुनर्वास करे।
बॉक्स........
सबसे सस्ती परियोजना यूं बन गई सफेद हाथी
- 1992 में बांध परियोजना के निजीकरण का निर्णय लिया गया
- एस. कुमार्र्स को इसके निर्माण की जिम्मेदारी सौंपी गई, जबकि फाइनेंशियल एजेंसी पॉवर फाइनेंस कॉर्पोरेशन नई दिल्ली बनी।
- 1996-1997 में निर्माण एजेंसी और प्रदेश सरकार के बीच एमओयू साइन हुआ।
- वर्ष 2000 तक इसका कार्य पूरा किए जाने का लक्ष्य था।
- विरोध और अन्य कारणों से 465 करोड़ की इस योजना की लागत साढ़े पांच हजार करोड़ रुपए से भी अधिक हो गई।
- परियोजना में पूरी तरह डूब प्रभावित गांव 13 हंै, जबकि नौ गांव आंशिक डूब प्रभावित हैं।
- 44 गांवो की 873 हेक्टेयर कृषि भूमि इससे प्रभावित हुई है।
- निर्माण कंपनी ने काम बंद किए जाने से पहले 12 गांवों के पुनर्वास का दावा किया, आठ गांव में पुनर्वास कार्य शेष था।
- बांध पूरा होने की स्थिति में प्रदेश को 400 मेगावाट बिजली मिलती।
- बांध के ढाई किमी लंबे पाट पर 27 गेट और 10 उत्पादन इकाइयां स्थापित की जाना थी।
- 162.76 मीटर जलभराव का प्रस्ताव था।
- फिलहाल वन व पर्यावरण मंत्रालय और ग्रीन ट्रिब्यूनल ने 154 मीटर जल भराव की अनुमति ही दी थी।
- सितंबर 2012 में केंद्र सरकार ने महेश्वर जल विद्युत परियोजना को विद्युत उत्पादन के लिए हरी झंडी भी दे दी थी, लेकिन काम शुरू नहीं हो सका।
चहेते दागदारों को क्लीनचीट और प्रमोशन का उपहार
मध्य प्रदेश में पीएमओ के आदेश दरकिनार
400 भ्रष्ट अफसरों को मिल रहा सरकार का साथ
प्रदेश में फेल हुआ केंद्र का भ्रष्ट नौकरशाहों की सफाई का अभियान
भोपाल। पिछले 18 माह से नौकरशाही का चरित्र बदलने की कवायद में जुटी केंद्र सरकार स्वच्छ भारत अभियान के बाद केंद्र अब स्वच्छ नौकरशाही अभियान भी शुरू करने जा रही है। इसके लिए प्रधानमंत्री कार्यालय ने सभी राज्यों से भ्रष्ट नौकरशाहों की सूची मांगी है। कई राज्यों की सूची पहुंच गई है, जिसमें से सरकार की निगाह अभी लगभग 125 अधिकारियों पर है। वहीं मप्र सरकार सूची देने में पिछले छह माह से आज-कल कर रही है। मप्र सरकार के आज-कल के चक्कर आधा दर्जन दागी नौकरशाह रिटायर हो चुके हैं। जबकि आलम यह है कि मप्र के 400 से अधिक अधिकारियों-कर्मचारियों के खिलाफ लोकायुक्त में मामला दर्ज है, वहीं 104 लोग ऐसे हैं जिन्हें न्यायालय से भ्रष्टाचार सहित अन्य मामलों में सजा हो चुकी है, लेकिन वे जमानत लेकर नौकरी कर रहे हैं। ऐसे अफसरों की सूची पीएमओ को भेजने की बजाय प्रदेश सरकार चहेते अफसरों को क्लिनचिट देने में जुट गई है।
छह माह बाद भी नहीं भेजी सूची
भ्रष्टाचार करके भी लम्बे अर्से तक लाभ के पदों पर काबिज रहने वाले नौकरशाहों के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए पीएमओ ने कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग (डीओपीटी) के माध्यम से सभी राज्यों से भ्रष्ट अफसरों की सूची मांगी थी। कई राज्यों ने तो सूची भेज दी है लेकिन मप्र सरकार आनाकानी कर रही है। जब डीओपीटी का इस संदर्भ में पहला पत्र आया था तब राज्य सरकार ने कहा था कि यहां कोई भी ऐसा भ्रष्ट अफसर नहीं है जिसके खिलाफ कार्रवाई करने की अनुशंसा की जाए। उसके बाद दो और पत्र आए लेकिन राज्य सरकार ने जवाद देना मुनासिब नहीं समझा। जबकि इस दौरान नौकरशाही में भ्रष्टाचार को खत्म करने की मुहिम के तहत केंद्र सरकार उन सभी प्रशासनिक अधिकारियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करने की तैयारी कर रही है, जो सालों से अपने पद का दुरुपयोग करते हुए भ्रष्टाचार में लिप्त हैं और अपनी जिम्मेदारियों का अनुपालन नहीं कर रहे हैं, फिलहाल सरकार की निगाह अभी लगभग 125 अधिकारियों पर टिक चुकी है और इनके खिलाफ कार्रवाई की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है। इनमें भारतीय राजस्व सेवा (आईआरएस), भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस), भारतीय पुलिस सेवा (आईपीएस) के अधिकारी शामिल हैं। सबसे बड़ी संख्या भारतीय राजस्व सेवा के अधिकारियों की है, चिन्हित अधिकारियों के नामों की एक सूची राज्य सरकारों के साथ भी साझा की गई है। भ्रष्टाचार में लिप्त इन अधिकारियों के खिलाफ जल्द ही कार्रवाई शुरू की जाएगी। भ्रष्ट अधिकारियों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई करने के साथ ही उन्हें स्वेच्छा से सेवानिवृत्ति लेने के निर्देश दिए जा सकते हैं। यह भी माना जा रहा है कि प्रधानमंत्री कार्यालय जल्द ही इन भ्रष्ट अधिकारियों के खिलाफ डीओपीटी को कार्रवाई करने का आदेश दे सकती है। लेकिन मप्र से सूची नहीं पहुंच पाने के कारण फिलहाल इसमें यहां का एक भी अफसर नहीं है।
पीएमओ के आदेश दरकिनार कर क्लिनचिट
प्रदेश सरकार की भ्रष्टाचार के मामले में जीरो टारलेंस की नीति थोथी साबित हो रही है। ऐसे मामलों में सरकार की रुचि आला अफसरों पर कार्रवाई करने की जगह उन्हें क्लीनचिट देने में ज्यादा रहती है। यही वजह है कि प्रदेश में बीते कुछ सालों में एक दर्जन से अधिक आईएएस अफसरों को ऐसे मामलों में क्लीनचिट दी जा चुकी है। ऐसे ही एक मामले में राज्य सरकार ने भिंड के तत्कालीन कलेक्टर रहे एस सुहैल अली हो हाल ही में क्लीनचिट देकर उन्हें पदोन्नत कर दिया गया है। उन पर नियम विरुद्ध 13 लाख की दरी खरीदी के घोटाले का आरोप था। इसी तरह से एक अन्य आईएएस अफसर रमेश थेटे को भी पत्नी को अपेक्स बैंक से 25 लाख का लोन दिलाने के मामले में सरकार क्लीनचिट देकर पदोन्नत कर चुकी है। आईएएस अफसरों के प्रति राज्य सरकार की मेहरबानी हमेशा से रही है। इस मामले में कुछ अफसरों पर कार्रवाई जरूर अपवाद रही है। जिसमें डॉ. राजेश राजौरा, शशि कर्णावद के मामले शामिल हैं।
आयकर छापे की जद में आए डॉ. राजेश राजौर को न्यायालय से लडऩे के बाद प्रमोशन दिया गया। पहले उनकी डीई क्लीयर की गई और बाद में पीएस के पद पर प्रमोट किया गया। 82 बैच के एसआर मोहंती के खिलाफ एमपीएसआईडीसी मामले में सुप्रीम कोर्ट से राहत मिली हुई है, जबकि इस मामले में एमपी राजन तथा अजय आचार्य की भूमिका कम नहीं आंकी जा सकती, परंतु सरकार ने मोहंती को सशर्त दो प्रमोशन दिए। लालटेन खरीदी घोटाले के आरोपों में फंसी 81 बैच की आईएएस अजिता वाजपेयी पांडे रिटायर हो चुकी हैं, परंतु इनके मामले में पहले तो सरकार ने डीओपीटी अभियोजन की अनुमति मांगी और बाद में क्लीनचिट दे दी, जब डीओपीटी से अभियोजन की अनुमति मिली तो उसे माना नहीं गया। दवा खरीदी घोटाले में लोकायुक्त ने तत्कालीन पीएस एमएम उपाध्याय, अलका उपाध्याय, डॉ. राजेश राजौरा सहित अन्य पर प्रकरण दर्ज किए गए थे, लेकिन बाद में इन्हेें भी लोकायुक्त ने क्लीयर कर दिया। रतलाम के तत्कालीन कलेक्टर रहे विनोद सेमवाल के मामले में उन्हें हाल ही में सुप्रीम कोर्ट से राहत मिली है, मगर सरकार उन्हें जमीन आवंटन मामले में पहले ही क्लीनचिट दे चुकी है जिसके बाद ही प्रमोट किया गया। यही नहीं राज्य सरकार की लापरवाही का ही नतीजा है कि आरोप सिद्ध होने के बाद भी के सुरेश को रिटायर हो गए और उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हो सकी। तत्कालीन प्रमुख सचिव के. सुरेश को रिटायरमेंट के दिन चेन्न्ई पोर्ट के मामले में आरोप पत्र देने के लिए दिल्ली से डीओपीटी के अधिकारी आए थे। आरोप पत्र लेने से इंकार करने पर कार्मिक विभाग ने भोपाल कलेक्टर निशांत बरबड़े के माध्यम से उनके बंगले पर आरोप पत्र चस्पा करवाया था। इधर, आरोप पत्र लेने से पहले ही तत्कालीन प्रमुख सचिव सुरेश दोपहर में ही प्रभार मुक्त हो गए थे। इसके चलते उन्हें आरोप पत्र जारी करने का मामला नियम-कायदों में उलझ गया। इस तरह के मामलों को देखते हुए ही डीओपीटी ने केंद्रीय मंत्रालय और सभी राज्यों को इस मामले में विस्तृत निर्देश जारी किए हैं। उल्लेखनीय है कि इसके पहले तत्कालीन प्रमुख सचिव एमए खान को भी रिटारयमेंट वाले दिन एक साथ 5 मामलों में आरोप पत्र थमाया गया था।
क्लीनचिट पाने वाले अफसर
सीधी के तत्कालीन कलेक्टर सुखवीर सिंह तथा सीईओ चंद्रशेखर बोरकर द्वारा जेट्रोफा का उत्पादन बढ़ाने मनरेगा की राशि से लगभग 60 लाख की राशि से इंजेक्शन खरीदी के मामले में शुरू हुई डीई समाप्त कर प्रमोशन दिया गया, जबकि छिंदवाड़ा के तत्कालीन कलेक्टर निकुंज श्रीवास्तव एवं सीईओ बीएम शर्मा के विरुद्ध 13 करोड़ की गेती-फावड़ा खरीदी मामले में सीबीआई से लेकर केंद्रीय विकास मंत्रालय तक पहुंची शिकायतों के पहले ही क्लीनचिट दे दी गई थी। इसके बाद भिंड के तत्कालीन कलेक्टर एस सुहैल अली को 13 लाख की दरी पूर्व में निर्धारित संस्था की अपेक्षा दूसरी संस्था से खरीदी के मामले में प्रारंभ की गई डीई समाप्त करने के बाद प्रमोशन दिया गया। राज्य प्रशासनिक सेवा से आईएएस बनने के मामले में सुरेंद्र उपाध्याय तथा अरुण कुमार तोमर की डीई समाप्त कर आईएएस प्रमोट किया गया। रमेश थेटे के खिलाफ लोकायुक्त ने उज्जैन के अपर कमिश्नर रहने के दौरान कलेक्टर के आदेश को बदलने के 25 प्रकरणों में मामला दर्ज किया। साथ ही अपेक्स बैंक से 25 लाख का लोन लेने के मामले में जांच शुरू की गई, मगर बाद में क्लीनचिट देकर प्रमोट किया।
कई अफसर ऐसे हैं जिनकी जांच लंबित हैं। राज्य शिक्षा केंद्र में लगभग 9 करोड़ की नियम विरुद्ध खरीदी के आरोपों में फंसे एमके सिंह के विरुद्ध अभी विभागीय जांच लंबित है जिसके कारण 85 बैच के होने पर भी अभी यह सचिव बने हुए हैं। इसके अलावा कुछ गड़बडिय़ों के आरोप में 89 बैच के अधिकारी विनोद कुमार को भी प्रमोट नहीं किया गया है, इनके विरुद्ध भी डीई चल रही है। 98 बैच के आईएएस कामता प्रसाद राही पर भी मनरेगा की राशि में लगभग 16 लाख की गड़बड़ी के आरोपों में डीई चल रही है। जबकि उमरिया के तत्कालीन कलेक्टर रहे एसएस कुमरे के विरुद्ध स्वाईल कंजर्वेसन के लिए निर्धारित बजट से अधिक 6 करोड़ की राशि आवंटन के मामलेे में विभागीय जांच लंबित है, परंतु ये 22 दिसंबर 2010 से चिकित्सा शिक्षा में ही उपसचिव बने हुए हैं और इस दौरान उनके विरुद्ध कई आरोप भी लगे। साथ ही 2000 बैच के सुरेंद्रपाल सिंह सालूजा के विरुद्ध मामला लंबित है। उधर स्टेट प्रोटोकाल अधिकारी रहे आरपी मिश्रा का मामला भी अभी उलझा हुआ है जिसके कारण इन्हें प्रमोशन का लाभ नहीं मिल सका। वहीं सरकार ने अभी तक केवल शशि कर्णावत के खिलाफ कार्रवाई करने का कदम उठाया है। 99 बैच के आईएएस एवं छिंदवाड़ा की तत्कालीन सीईओ शशि कर्णावत के विरूद्ध स्टेशनरी खरीदी में जिला सत्र न्यायालय में आरोप सिद्ध होने के बाद सरकार ने उन्हें निलंबित करने के साथ ही शासकीय सेवा से बर्खास्त करने की अनुशंसा डीओपीटी से की है। न्यायालय ने इनके विरुद्ध जुर्माना भी लगाया। केवल हाईकोर्ट ने जुर्माना कम किया। इन्हें सरकार और न्यायालय के खिलाफ आरोप-प्रत्यारोप लगाने की सजा मिली है।
रिटायरमेंट के बाद राकेश साहनी काट रहे चांदी
बिना टेंडर के हुई 1770 करोड़ रुपए की बिजली खरीदी घोटाले में फंसे प्रदेश के पूर्व मुख्य सचिव राकेश साहनी पर सरकार मेहरबान किसी से छुपी नहीं है। सेवानिवृत्ति के बाद पहले सरकार ने सलाहकार बनाया, फिर राज्य नियामक आयोग के अध्यक्ष के पद पर रहे। जनवरी 2015 में यहां का कार्यकाल पूरा होने के बाद सरकार ने साहनी का दोबारा पुनर्वास करते हुए नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण का अध्यक्ष बना दिया। अब सरकार ने साहनी का वेतन बढ़ाने के लिए नियम बदल दिए। इसके चलते अब उन्हें हर माह 54 की जगह 85 हजार 200 रुपए वेतन मिलेगा। यही नहीं साहनी को उपकृत करने के लिए उनकी सेवा शर्तों में बदलाव किया गया है। जबकि एनवीडीए में चेयरमेन के पद पर साहनी की नियुक्ति पहले से ही विवादों में है। इस संबंध में हाईकोर्ट ने राज्य सरकार से जवाब मांगा है। न्यायाधीश राजेन्द्र मेनन व जस्टिस एके सेठ की युगलपीठ ने एक जनहित याचिका पर हाईकोर्ट ने सरकार से पूछा है कि नियमों के खिलाफ जाकर साहनी की नियुक्ति कैसे की गई है। इस मामले में कोर्ट ने मुख्य सचिव, जल संसाधन के प्रमुख सचिव, एनवीडीए के प्रमुख सचिव को नोटिस जारी कर जवाब मांगा है। याचिकाकर्ता पीजी नाजपांडे ने हाईकोर्ट में दलील दी थी कि मुख्य सचिव के पद से सेवानिवृत्त होने के बाद सरकार ने साहनी को राज्य विद्युत नियामक आयोग का चेयरमेन बनाया था। वे इस पद पर फरवरी 2015 तक रहे। इसके बाद उन्हें एनवीडीए में चेयरमेन बनाया गया है। जबकि विद्युत नियामक अधिनियम 2003 की धारा 89 की उपधारा 5 के तहत नियामक आयोग से सेवानिवृत्त पदाधिकारी को आगामी 2 साल तक किसी ऐसे उपक्रम में नियुक्त नहीं किया जा सकता, जिसका कमर्शियल एक्टिविटी (वाणिज्यिक गतिविधियों) के लिहाज से नियामक आयोग से किसी तरह का जुड़ाव रहा हो। याचिकाकर्ता ने कहा है कि एनवीडीए में इन्द्रा सागर और सरदार सरोवर सहित कई हायड्रल प्रोजेक्टों में बिजली उत्पादन हो रहा है। इनकी दरें नियामक आयोग तय करता है। ऐसी स्थिति में साहनी की नियुक्ति अवैध है।
डीओपीटी ने तरेरी आंख
आईएएस अफसरों के खिलाफ अनुशासनात्मक सहित अन्य मामलों में चल रही जांच को राज्य सरकार द्वारा अपने स्तर पर दबाकर रखने को लेकर डीओपीटी ने गंभीरता से लिया है। डीओपीटी ने सख्त लहजे में कहा है कि राज्य सरकार हर हाल में भ्रष्टाचार के मामले की शुरुआत होने के तीन माह के अंदर डीओपीटी को जानकारी दे। लोकायुक्त, ईओडब्ल्यू सहित अन्य जांच एजेंसी द्वारा यदि किसी आईएएस अफसर के खिलाफ कोई रिपोर्ट दी जाती है तो उसकी जानकारी भी तत्काल डीओपीटी के सिंगल विंडो में तत्काल दी जाए। इस संबंध में डीओपीटी के संचालक दिवाकर नाथ मिश्रा ने मप्र के मुख्य सचिव को पत्र लिखकर कहा है कि अक्सर देखने में आता है कि अफसर के रिटायरमेंट के ऐन पहले उनके खिलाफ विभागीय और अनुशासनात्मक मामलों की जानकारी दी जाती है। इससे उन पर कार्रवाई करने में काफी परेशानी होती है। नियमानुसार यदि किसी अधिकारी को सेवा में रहते हुए आरोप पत्र जारी नहीं किया जाता है तो रिटायरमेंट के बाद उस पर कार्रवाई नहीं की जा सकती है। ऐसी स्थिति से बचने के लिए बेहतर है कि अधिकारी के रिटायरमेंट से एक साल पहले उनके मामलों की जानकारी डीओपीटी को भेज दी जाए। संचालक मिश्रा ने यह भी कहा कि इस तरह के मामलों की हर माह रिपोर्ट भेजने की व्यवस्था भी करें, जिससे संबंधित अधिकारी पर समय रहते कार्रवाई की जा सके। मिश्रा ने कहा है कि यदि किसी अधिकारी की जांच शुरू होने के बावजूद डीओपीटी को जानकारी नहीं भेजी जाती है तो संबंधित अधिकारी के खिलाफ लापरवाही के मामले में कार्रवाई की जाए। राज्य सरकार के एक वरिष्ठ अफसर ने बताया कि कार्रवाई करने के मामले में राज्यों से ज्यादा लापरवाही डीओपीटी के अधिकारी करते हैं। उन्होंने बताया कि बर्खास्त आईएएस जोशी दंपत्ति के मामले में केंद्र सरकार को काफी पहले प्रकरण बनाकर भेजा था, लेकिन उन्हें रिटायरमेंट से एक माह पहले बर्खास्त किया गया। इसी तरह तत्कालीन प्रमुख सचिव के सुरेश के पूरे मामले की जानकारी भी तीन माह पहले भेजी जा चुकी थी, उन्हें भी डीओपीटी ने ठीक रिटायरमेंट वाले दिन आरोप पत्र भिजवाया।
भ्रष्ट अफसरों से सरकार नहीं वसूल पाई 110 करोड़
एक तरफ प्रदेश सरकार जीरो टालरेंस की बात करती है वहीं दूसरी तरफ निर्माण कार्यों और खरीदी के कामों में भ्रष्टाचार कर सरकार को नुकसान पहुंचाने वाले भ्रष्ट अफसरों पर सरकार मेहरबान है। ऐसे अफसरों पर भ्रष्टाचार के आरोप प्रमाणित होने के बाद भी सरकार इनसे 110 करोड़ रुपए की वसूली नहीं कर पाई है। इनसे वसूली के लिए कलेक्टरों को आरआरसी जारी करने के लिए भी सरकार निर्देशित कर चुकी है। भ्रष्टाचार के यह गंभीर मामले लोक निर्माण विभाग, जल संसाधन, लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग, ग्रामीण यांत्रिकी सेवा और विद्युत यांत्रिकी से संबंधित हैं। इनके द्वारा सड़क, भवन, जलाशय समेत अन्य कार्यों में व्यापक अनियमितता की गई है। राज्य शासन के पास पहुंची शिकायतों के बाद जीएडी ने इसकी जांच सीटीई (मुख्य तकनीकी परीक्षक, सतर्कता) से कराई है, जिसमें यह भ्रष्टाचार प्रमाणित हुआ है। सरकार द्वारा भ्रष्टाचार के मामलों में न सिर्फ वसूली के आदेश जारी किए गए हैं बल्कि ऐसे लोगों को जेल की सलाखों तक पहुंचाने के लिए भी समय समय पर निर्देश जारी किए जाते हैं। इसके बावजूद अफसरशाही की मेहरबानी सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुंचा रही है। निर्माण कार्यों की जांच के लिए शासन की प्रमुख एजेंसी सीटीई को जांच के रिकार्ड उपलब्ध नहीं कराने के मामले पहले ही सामने आ चुके हैं। जानकारी के अनुसार, सरकार को सबसे अधिक 88.30 करोड़ रूपए नर्मदा घाटी विकास, लोक निर्माण से विभाग 11.38 और जल संसाधन विभाग 4.71 रूपए वसूलने हैं। लेकिन सरकार भ्रष्टों पर इस कदर मेहरबान है कि उनके खिलाफ कार्रवाई करना तो दूर उनसे वसूली भी नहीं की जा रही है।
जिनके नौ ग्रह बलवान उसके क्या कहने...!
कुछ विशेष प्रकार के लोगों के बारे में कहा जाता है कि उनके नौ ग्रह हर पहर में बलवान रहते हैं और ऐसे लोगों से अच्छे पहलवान भी पंगा लेने में कतराते हैं। लेकिन बलवान नौ ग्रहों के मालिक नौकरशाहों को सरकार भी अपने फायदे का साधन समझती हैं। ऐसे नौकरशाह जिन्होंने साम, दाम, दंड और भेद में श्रेष्ठता के साथ अपनी काबिलियत सिद्ध की है सरकार ने उन्हें हाथों-हाथ लिया है। सेवाकाल में इजाफे का फायदा पाने वाले नौकरशाहों को किसी प्रकार का कोई तनाव नहीं होता है। वे जो कुछ भी करते हैं, वो सरकार को खुश करने के लिए ही तो करते हैं। उनको वेतनवृद्धि, क्रमोन्नति, पदोन्नति, गोपनीय प्रतिवेदन, विभागीय या अन्य कोई जांच, अनुशासनिक कार्रवाई आदि किसी भी तरह की चिंता नहीं सता पाती क्योंकि, सेवाकाल में तो उनके नौ ग्रह और ज्यादा बलवान हो जाते हैं। नौ ग्रह बलवान वाले कुछ नौकरशाहों ने दो-दो बार सेवाकाल में इजाफा करवाने का परचम लहरा के दिखाया भी है। बताया जाता है कि जिन विभागों में बड़े-बड़े काम ठेके पर होते हैं, उन विभागों के बलवान नौकरशाह सरकार को अतिप्रिय होते हैं। इन विभागों में पदस्थापना संबंधी कार्य में बारह मास चांदी कटती रहती है। निचले स्तर के अधिकारी उच्च स्तर के पद पर अतिरिक्त प्रभार लेने के लिए बड़ी भेंट चढ़ाते हैं। प्रतिनियुक्तियों व पदोन्नतियों में भी खासा लेन-देन होता है। तबादले तो दैनिक क्रिया के समान रोजाना चलते रहते हैं, जिनसे प्रतिदिन आवक बनी रहती है। बलवान नौ ग्रह वाले जिन बड़े अधिकारियों ने पदस्थापना संबंधी कार्यों (उच्च पद का अतिरिक्त प्रभार, तबादला, पदोन्नति, प्रतिनियुक्ति आदि) को उद्योग बनाकर तथा अन्य कारनामों से सरकार में बैठे लोगों को खुश किया है, वे फिर से दांव-पेंच दिखाने में जुटे हुए हैं। मजे की बात यह है कि बलवान नौ ग्रहों के मालिक ऐसे नौकरशाहों से उनकी संपत्ति का हिसाब-किताब भी पूछने वाला कोई नहीं होता।
भ्रष्टाचार की कमाई छिपाने में माहिर नौकरशाही
भ्रष्टाचार में लिप्त सरकारी कर्मचारी और अधिकारी काली कमाई छिपाने में माहिर हैं। भ्रष्टाचार पर निगरानी रखने वाली एंटी करप्शन ब्यूरो (एसीबी) भी इस कमाई को उजागर करने में खास कामयाब नहीं हो पाई। यही कारण है कि रंगे हाथ रिश्वत लेने व पद के दुरूपयोग के कई मामले दर्ज करने वाली एसीबी आय से अधिक सम्पत्ति के मामले तलाशने में कमजोर रही। एक वर्ष में ऐसे दो दर्जन मामले ही सामने आ सके हैं। इसके विपरीत जगजाहिर है कि भ्रष्टाचार सरकारी तंत्र में किस कदर छाया हुआ है। आय से अधिक सम्पत्ति का मामला दर्ज करने से पहले एसीबी सम्बंधित अधिकारी की सम्पत्ति की जानकारी जुटाती है। यह भी जुटाया जाता है कि सम्पत्ति कब और किसके नाम से खरीदी गई। इसके बाद उसके वेतन से तुलना की जाती है। एसीबी में वर्ष 2014 में दर्ज 460 मामलों में से इनकी संख्या 26 ही रही। इसके विपरीत रंगे हाथ रिश्वत लेने के मामलों की संख्या बहुत अधिक है। 12 माह में 40 सरकारी विभागों के 262 लोगों को रंगे हाथ पकड़ा गया। इनमें 56 राजपत्रित अधिकारी तो 206 अराजपत्रित अधिकारी शामिल हैं। इसी तरह पद के दुरूपयोग के 26 विभागों के 172 कर्मचारियों के खिलाफ मामले दर्ज किए गए।
जांच में यह तथ्य सामने आया है कि नौकरशाह परिवार के बजाय दूसरों के नाम से जमीन खरीदते हैं। एसीबी से बचने के लिए ही ऐसा किया जाता है। मप्र में कई नौकरशाहों ने ऐसा किया है। प्रदेश के आईएएस अफसरों में से अधिकांश के पास बेपनाह चल और अचल संपत्ति है। हालांकि हर साल जब प्रदेश के आईएएस अफसर अपनी संपत्ति का ब्यौरा देते हैं तो अपनी अधिकांश नामी और बेनामी संपत्ति को छुपा जाते हैं। प्रदेश के नौकरशाह पिछले कई साल से करीब 22,000 क रोड़ की संपत्ति का विवरण छुपा जाते हैं। वर्ष 2013 में पीएमओ ने जब विभिन्न स्रोतों से इसकी जांच कराई तो यह तथ्य सामने आया कि मप्र के अफसर केंद्र और राज्य सरकार ने विभिन्न योजनाओं के लिए मिलने वाले बजट में जमकर घपलाबाजी कर रहे हैं। इन नौकरशाहों ने अपनी अवैध कमाई का बड़ा हिस्सा खेती, रियल स्टेट, बड़ी-बड़ी कंपनियों और ठेकों में निवेश कर रहे हैं। रिपोर्ट के अनुसार भष्ट अफसरों ने प्रदेश की राजधानी भोपाल, इंदौर, होशंगाबाद, ग्वालियर, जबलपुर में खेती की जमीन तो सतना, कटनी, दमोह,छतरपुर और मुरैना में बिल्डर व खनन माफिया के पास करोड़ों रुपए का निवेश किया है। वहीं प्रदेश के बाहर मुंबई, दिल्ली, गुडग़ांव, हिमाचल प्रदेश, ओडिशा, पंजाब, शिमला, असम, आगरा के साथ ही विदेशों में ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका, सिंगापुर, दुबई, मलेशिया, बैंकॉक, कनाडा, लंदन में भी संपत्ति जुटाई है।
वरिष्ठ नौकरशाहों के सेवाकाल की समीक्षा होगी
नौकरशाहों को भारतीय शासन की रीढ़ माना जाता है। यही वजह है कि हर सरकार अपने पसंदीदा और चहेते अफसरों को मनचाहे मंत्रालय और विभागों का मुखिया बनाती है। लेकिन मोदी सरकार के एक ताजा आदेश ने नौकरशाहों की नींद उड़ा दी है। केंद्र सरकार के डीओपीटी ने एक आदेश जारी किया है, जिसके तहत अब वरिष्ठ नौकरशाहों के सेवाकाल की समीक्षा के बाद भ्रष्टाचार में लिप्त तथा निष्क्रिय रहने वाले अधिकारियों को अनिवार्य सेवानिवृति दी जा सकती है। यह कोई नया कानून अथवा आदेश नहीं है, बल्कि सिविल सेवा में इस तरह का प्रावधान पहले से ही है, लेकिन इसका उपयोग नहीं किया जाता है। मोदी सरकार ने तय किया है कि इस नियम को सख्ती से लागू किया जाए। डीओपीटी द्वारा जारी आदेश में ऐसे अफसरों की समीक्षा की जाएगी, जिनकी सेवा को 30 वर्ष पूरे हो चुके हैं या फिर जिनकी उम्र 50 वर्ष हो चुकी हो।
समीक्षा रिपोर्ट में जो अफसर खरा नहीं उतरेगा उसे जनहित में सेवामुक्त कर दिया जाएगा या फिर अनिवार्य सेवानिवृति दे दी जाएगी। इससे उन नौकरशाहों में बेचैनी बढ़ गई है, जो अपने दायित्व का निर्वहन सही तरीके से नहीं कर रहे हैं। गौरतलब है कि विदेश सचिव सुजाता सिंह ने भी पिछले वर्ष सेवानिवृति ले ली थी। इसके बाद इसी साल फरवरी में गृह सचिव अनिल गोस्वामी को भी सारधा घोटाले में दखल की वजह से अपनी कुर्सी गंवानी पड़ी थी। हालांकि यह चिंता भी जताई कि इस आदेश का उपयोग राजनीति के लिए नहीं होना चाहिए। वरना अच्छा काम करने वाले लोगों की सिस्टम में कमी हो सकती है। डीओपीटी ने एक नोटिस जारी किया है कि तीस साल की ड्यूटी या 50 साल की उम्र पार करने के बाद अधिकारी के प्रमोशन के लिए परफॉर्मेंस रिव्यू किया जाएगा और फेल होने पर उनकी छुट्टी कर दी जाएगी। नोटिस के मुताबिक सालाना अप्रेजल में फेल होने पर अधिकारी को तीन महीने का नोटिस देकर रिटायर कर दिया जाएगा। ये नोटिस सभी राज्यों के मंत्रालयों को भेजा गया है। सभी विभागों से ऐसे अधिकारियों की पहचान कर उनके समय से पहले रिटायरमेंट का प्रस्ताव भेजने को भी कहा गया है। नौकरशाहों को ज्यादा जवाबदेह बनाने के लिए हाल ही कैबिनेट सचिव पीके सिन्हा की अध्यक्षता में बैठक हुई थी। इसमें एक ऐसे सिस्टम की बात कही गई थी, जिसके तहत बोझ बन रहे अफसरों की छुट्टी कर दी जाए। विभागों से ऐसे अधिकारियों को अनिवार्य रूप से रिटायरमेंट के लिए मूल नियम एफआर 56-जे के प्रावधानों को लागू करने को कहा गया है।
पूर्व केंद्रीय गृह सचिव आरके सिंह कहते हैं, ये होना आवश्यक है। जिसके बारे में गंभीर शिकायत है उसको निकाला जाए। ये सराहनीय कदम है। इसका फायदा सिस्टम को साफ करने में होगा। इस प्रकार के कदम से जो ईमानदार अफसर हैं उन्हें कोई डर नहीं, लेकिन जो भ्रष्ट हैं उन्हें सोचना होगा। इस नियम के तहत सरकार को ए और बी ग्रेड के ऐसे कर्मचारियों को जनहित में जरूरी होने पर रिटायर करने का पूरा अधिकार है, जो 35 साल की उम्र से पहले सेवा में आए हों और 50 साल की आयु पूरी कर चुके हों। नियमों के मुताबिक, 55 साल की उम्र पार कर चुके सी ग्रेड के किसी भी कर्मचारी को समय से पहले रिटायर किया जा सकता है, लेकिन कार्रवाई तभी की जाएगी जब अधिकारी पर भ्रष्टाचार या अप्रभावी होने का संदेह है। हालांकि इस ओर कार्रवाई सिर्फ उन्हीं अधिकारियों के खिलाफ की जा सकेगी, जिनकी वार्षिक वेतनवृद्धि कुछ साल से रोक दी गई हो और जिन्होंने पांच साल से कोई प्रमोशन नहीं पाया हो।
भ्रष्ट अफसरों की फिर से बनेगी कुंडली
बताया जाता है की डीओपीटी की फटकार के बार प्रदेश सरकार एक बार फिर से भ्रष्ट अफसरों की कुंडली बना रही है, ताकि केंद्र के कड़े रूख के बाद यह जानकारी भेजी जा सके। लोकायुक्त से मिली जानकारी के अनुसार, वर्तमान समय में मप्र में विभिन्न विभागों में कई अफसर सहित 104 लोग ऐसे हैं जिन्हें न्यायालय से भ्रष्टाचार सहित अन्य मामलों में सजा हो चुकी है, लेकिन वे जमानत लेकर नौकरी कर रहे हैं। लोकायुक्त ने इस संदर्भ में मुख्यमंत्री को एक पत्र भी भेजा है और अपने पत्र के साथ 400 ऐसे भ्रष्ट अधिकारियों की सूची भी सौंपी है, जिनके खिलाफ अभियोजन की अनुमति लंबित है या चालान दाखिल हो जाने के बाद भी उन्हें निलंबित नहीं किया गया है। जिसमें सबसे अधिक राजस्व विभाग के 27 अधिकारी शामिल हैं। इसके अलावा पंचायत व ग्रामीण विकास और गृह विभाग के 13-13, स्कूल शिक्षा- 10, पीएचई- 9, कृषि-7, नगरीय विकास एवं पर्यावरण- 5, वन- 5, महिला एवं बाल विकास-4, ग्रामोद्योग-3, ऊर्जा- 2, श्रम- 2, आदिम, अजा-2, सहकारिता-2, खनिज- 1, सामाजिक न्याय-1, खाद्य विभाग- 1 और पीडब्ल्यूडी का 1 अधिकारी शामिल है।
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