बुधवार, 10 अगस्त 2011


अगला प्रधानमंत्री कौन?
2014 में होने वाले लोकसभा चुनाव का भूत राजनीतिक दलों को अभी से सताने लगा है. कांगे्रस और भाजपा के साथ-साथ अन्य राजनीतिक पार्टियां अपनी जीत की संभावनाओं के साथ ही अगले प्रधानमंत्री की तलाश में जुट गई हैं. उनका यह कदम उनक. लिए ही घातक न हो जाए इस लिए वे अंदर ही अंदर मंथन कर रही हैं. यूपीए में अगले संभावित प्रधानमंत्री के दावेदारों में मनमोहन सिंह,राहुल गांधी,प्रणव मुखर्जी,एके एंटनी और पी चिदम्बरम का नाम लिया जा रहा है तो भाजपा में लालकृष्ण आडवाणी, सुषमा स्वराज, अरुण जेटली और नरेंद्र मोदी के साथ ही मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का नाम उछला है. वहीं बसपा सुप्रीमों मायावती भी कतार में है. इन सब के अलावा करीब आधा दर्जन और नेता अपनी गोंटी बिछा रहे हैं.
यूपीए जब से सत्ता में आई है, तभी से यह सवाल थोड़े-थोड़े अंतराल पर बार-बार पूछा जाता रहा है कि अगला प्रधानमंत्री कौन होगा. कांग्रेस के कुछ 10 जनपथी नेताओं द्वारा ऐसा माहौल बनाया जा रहा है, मानो जनता इस बात का इंतजार कर रही है कि राहुल गांधी कब प्रधानमंत्री बनेंगे. ऐसा लगता है जैसे एक दिनचर्या तय कर ली गई हो. समय-समय पर किसी कांग्रेसी नेता का कोई सोचा-समझा बयान आ जाता है. प्रणव मुखर्जी, अर्जुन सिंह, दिग्विजय सिंह, वीरप्पा मोइली, पृथ्वीराज चौहान- सभी मौके-बेमौके बयान देकर ऐसी अटकलों को हवा देते रहे हैं कि मनमोहन सिंह कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी के लिए कभी भी प्रधानमंत्री की कुर्सी छोड़ सकते हैं. राहुल गांधी के 41वें जन्मदिन पर जब उनके करीबी समझे जाने वाले कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने जब यह कहा कि राहुल गांधी के प्रधानमंत्री बनने का समय आ गया है, तो उसमें कुछ भी नया नहीं था लेकिन सारे टीवी चैनल इस विश्लेषण में जुट गए कि क्या मनमोहन सिंह, राहुल गांधी के लिए रास्ता बनाने के मद्देनजर प्रधानमंत्री पद छोडऩे जा रहे हैं?
कांग्रेस के सूत्र स्वीकार करते हैं कि इन सात सालों में कई मौके ऐसे आए, जब राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाने की बात जोरदार ढंग से उठाई गई. हाईकमान ने उस बात को गंभीरता से लिया, लेकिन अव्वल तो खुद राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री बनने में बहुत रुचि नहीं दिखाई और दूसरी बात यह कि हालात भी डॉ. मनमोहन सिंह के पक्ष में रहे. हाल में कांग्रेस के आंतरिक विचारमंथन में, बशर्ते इसे सचमुच विचारमंथन कहा जाए, पार्टी इस नतीजे पर पहुंची कि 2014 के आम चुनावों में नए नेतृत्व और नए नारे के साथ उतरा जाए. नए नेतृत्व के तौर पर राहुल गांधी का नाम सामने आया.
चुनावों से पहले राहुल गांधी को नेतृत्व थमाने का मतलब है कि पार्टी संकट की घड़ी में काम आ सकने वाले अपने तुरुप के इक्के को बेवजह पहले ही खेल जाए. पार्टी अपने उस इक्के को महंगाई और भ्रष्टाचार की आंच में नहीं झोंकना चाहती, जो 2014 में उसे सत्ता की कुर्सी दिला सकता है. मध्य प्रदेश के एक बड़े कांग्रेसी नेता का कहना है कि राहुल साझा सरकार का नेतृत्व करना बिल्कुल पसंद नहीं करेंगे, लेकिन मौजूदा हालात में और कोई रास्ता भी नहीं बचता. दिलचस्प बात यह है कि कांग्रेस में इस बात को लेकर किसी के मन में कोई संशय नहीं है कि अगर कांग्रेस 2014 के चुनावों में राहुल पार्टी का नेतृत्व करते हैं और पार्टी चुनाव जीत जाती है तो राहुल ही प्रधानमंत्री होंगे. लेकिन कुछ ऐसे कांग्रेसी भी हैं, जो दबी जुबान से ही सही, लेकिन अपना दावा ठोक रहे हैं. प्रधानमंत्री पद पर नजर रखने वालों की सूची में वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी, गृह मंत्री पी. चिदंबरम और रक्षा मंत्री एके एंटनी का नाम शामिल है. इन सभी लोगों की बात की जाए तो चिदंबरम के बारे में कांग्रेसियों का मानना है कि प्रधानमंत्री की कुर्सी हासिल करने के लिए वह भाजपा तक से हाथ मिलाने में गुरेज नहीं करेंगे. साफ है कि कांग्रेस उनके तमिल मनीला कांग्रेस (टीएमसी) के दिनों को अभी भूली नहीं है. तीन दावेदारों में से प्रणव मुखर्जी को सबसे प्रबल दावेदार माना जा रहा है. ऐसा सिर्फ कांग्रेस के लोग ही नहीं मानते, बल्कि सी-वोटर के सर्वे में भी लोगों ने ऐसा ही माना है. हालांकि उन्होंने यह साफ कर दिया है कि वह रिटायरमेंट लेना पसंद करेंगे, ताकि युवाओं को आगे आने का मौका मिल सके. उनकी इस बात से यह अंदाजा लगाया जा रहा है कि उनकी नजर राष्ट्रपति की कुर्सी पर है और उम्र के इस पड़ाव पर यही उनके लिए सबसे अनुकूल रहेगा. बहरहाल, उन्हें इस पद के लिए सबसे तगड़ी चुनौती प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से मिल रही है, जो प्रतिभा पाटिल के अगले साल रिटायर होने के बाद राष्ट्रपति पद के लिए कांग्रेस के उम्मीदवार बनना चाहते हैं. इनके अलावा कई दूसरे नाम भी सामने आ रहे हैं, लेकिन उनका दावा बहुत कमजोर है. इस सूची में दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित, लोकसभाध्यक्ष मीरा कुमार और राहुल गांधी के विश्वासपात्र दिग्विजय सिंह के नाम शामिल हैं.
जहां तक राजग की बात है तो बिहार में जदयू-भाजपा गठबंधन की भारी-भरकम जीत के बाद बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का नाम प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवार के रूप में उछला था लेकिन उन्होंने उसी समय यह कह कर तमाम अटकलों पर विराम लगा दिया कि मैं प्रधानमंत्री पद का दावेदार नहीं हूं. अब इस कतार में लालकृष्ण आडवाणी,लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज, राज्यसभा में विपक्ष के नेता अरुण जेटली और गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी भी हैं. पूर्व उप प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी रिटायर होने के मुकाम पर आ पहुंचे हैं. अस्सी पार आडवाणी यूं तो पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान ही यह कह चुके हैं कि 2014 के लोकसभा चुनाव में वह उम्मीदवार नहीं होंगे. लालकृष्ण आडवाणी भले ही उपप्रधानमंत्री के पद पर रह चुके हों, लेकिन पार्टी का कोई भी नेता उन्हें एक अच्छा प्रधानमंत्री नहीं मानता है. पार्टी में आडवाणी की छवि एक कट्टरवादी नेता की है, जो किसी भी परिस्थिति में झुकने को तैयार नहीं होता. राजनेताओं का कहना है कि लोकतंत्र के लिए यह बेहतर संकेत नहीं है और वह भी ऐसी दशा में जब, सरकार जोड़तोड़ कर बनाई जाए. भाजपा नेता यह मानते हैं कि देश की सत्ता में आने के लिए उसे कई अन्य दलों का साथ लेना होगा, जिसके लिए बहुत संयम रखना पड़ता है. इन बातों को ध्यान में रखते हुए पार्टी चाहती है कि प्रधानमंत्री पद के लिए ऐसा नाम चयन किया जाए, जो सभी घटक दलों में सामंजस्य बनाकर देश चलाए.

ऐसे में पार्टी में एक बड़ा धड़ा ऐसा है जो लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज में संभावनाएं देखता है तो कोई गठबंधन राजनीति के लिहाज राज्यसभा में विपक्ष के नेता अरुण जेटली को बेहतर मानता है. यहां यह बता दें कि 2009 में लोकसभा चुनाव में भी पूर्व केंद्रीय मंत्री अरुण शौरी ने बीच चुनाव में मोदी को भविष्य का प्रधानमंत्री बताकर भाजपा के भीतर विवाद खड़ा कर दिया था. जबकि पार्टी के भीतर भी अहमदाबाद के दंगों में मोदी सरकार की भूमिका को लेकर एक वर्ग लगातार उंगलियां उठता रहा है. वैसे, आडवाणी ने सुषमा स्वराज को अपना उत्तराधिकारी बनाते हुए लोकसभा में विपक्ष का नेता बनाया तो स्वाभाविक रूप से यह सवाल सुषमा स्वराज से भी पूछा जाने लगा है कि क्या वह अगले लोकसभा चुनाव में भाजपा की प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवार होंगी?
इस आधार पर सुषमा को अगले लोकसभा चुनाव में भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद का प्रबल उम्मीदवार माना जा सकता है लेकिन सुषमा को सिर्फ लोकसभा में विपक्ष का नेता होना ही उन्हें प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनने की कतार में खड़ा नहीं करता बल्कि सुषमा के पास भाषण की वह कला है जिसके कायल खुद आडवाणी हैं. आडवाणी सार्वजनिक रूप से सुषमा की भाषणकला की प्रशंसा कर चुके हैं. सुषमा को वाजपेयी की तरह भाजपा में भाषण कला में माहिर माना जाता है. विरोधी भी सुषमा की इस भाषण कला को मानते हैं. सुषमा कई भाषाओं में भाषण देती हैं. दक्षिण में कर्नाटक के बेल्लारी संसदीय सीट से लेकर हिंदी भाषी मध्य प्रदेश के विदिशा संसदीय क्षेत्र तक से चुनाव लड़ चुकी हैं. सुषमा देश की आधी आबादी यानी महिला मतदाताओं को लुभाने की कला जानती हैं इसलिए महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर खासी मुखर रहती हैं. फिर सुषमा स्वराज की छवि कट्टर हिंदूवादी नेताओं के बजाय ऐसी महिला नेत्री की है जो भारतीय संस्कारों और संस्कृति के साथ विकास के एजेंडे को लेकर राजनीति करती हैं. लेकिन पुरुषों के वर्चस्व वाली पार्टी में दूसरी पंक्ति के नेता उन्हें प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में स्वीकार कर पाएंगे, कहना मुश्किल है. दूसरे नंबर पर अरुण जेटली हैं, जिनके समर्थन में राजनाथ सिंह पहले ही तैयार हो चुके हैं. राजनाथ सिंह का प्रयास होगा कि उनके समर्थक जेटली के पक्ष में हामी भरें.
जहां तक गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी का सवाल है तो भारत का बहुसंख्यक वर्ग उनमें सरदार वल्लभभाई को देखता है. भाजपा अध्यक्ष बनने के बाद नितिन गडकरी से जब यह सवाल पूछा गया कि क्या मोदी भाजपा के अगले पीएम इन वेटिंग हैं? तो गडकरी ने यह कहने में जरा भी देर नहीं लगाई कि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी में देश का प्रधानमंत्री बनने की अपार क्षमता और संभावनाएं है. आज की तारीख में भाजपा में अगर कोई जन नेता है, तो अटल बिहारी वाजपेयी के अलावा नरेंद्र मोदी का ही नाम लिया जा सकता है. वाजपेयी के अलावा मोदी की ही सभाओं में लाखों की भीड़ होती है और वे वाजपेयी की तरह सहज वक्ता नहीं हैं, लेकिन भीड़ को बांधकर रखना उन्हें अच्छी तरह आता है. मुहावरे वे गढ़ लेते हैं. जहां जरूरत होती है, वहां वही भाषा बोलते हैं और अच्छे-अच्छे खलनायकों को हिट करने वाली और दर्शकों को मुग्ध करने वाली जो बात होती है, वह मोदी में भी है कि वे अपने किसी कर्म, अकर्म या कुकर्म पर शर्मिंदा नजर नहीं आते. नरेंद्र मोदी गोधरा के खलनायक हैं, मगर संघ परिवार, भाजपा और कुल मिलाकर हिंदुओं के बीच भले आदमी माने जाते हैं.
लेकिन बिहार में नीतीश कुमार ने जिस प्रकार भाजपा के उदारवादी हिंदुत्व के चेहरों को तो स्वीकार किया लेकिन नरेंद्र मोदी को बिहार में प्रचार के लिए नहीं आने दिया उससे तो यही लगता है कि नीतीश का यह विरोध नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनने की राह में सबसे बड़ा रोड़ा बन सकता है. नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाने पर भाजपा अड़ी तो जदयू जैसे दल किस हद तक जाएंगे यह कहना अभी मुश्किल है लेकिन इतना लगभग तय है कि नीतीश कुमार मोदी के विरोध में खड़े होंगे. क्या भाजपा नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाकर राजग गठबंधन को दांव पर लगाने का साहस दिखाएगी? वह भी तब जब देश गठबंधन राजनीति के दौर से गुजर रहा है. मोदी को भाजपा के वरिष्ठ नेता आडवाणी, राज्यसभा में विपक्ष के नेता अरुण जेटली का खुला समर्थन प्राप्त है. आरएसएस का एक बड़ा हिस्सा भी मोदी के साथ खड़ा है लेकिन एक हिस्सा मोदी की राजनीति को नहीं पचा पा रहा. यह बात अलग है कि विरोधी दलों को ही नहीं, भाजपा में अपने विरोधियों को भी किनारे लगाने में मोदी माहिर माने जाते हैं. लेकिन यह भी सच है कि देश की राजनीति और राजग में ही नहीं भाजपा में भी मोदी विरोधियों की कमी नहीं है. उधर, मुरली मनोहर जोशी भी अपने समर्थन में वोट जुटाने का प्रयास कर रहे हैं. पार्टी में फायर ब्रांड नेत्री उमा भारती भी लौट आईं हैं, लेकिन आलाकमान उन पर भरोसा करने की गलती नहीं करेगा. यानी उपरोक्त नेताओं के भरोशे इस गठबंधन की राजनीति के दौर में सत्ता का ख्वाब तो देखा जा सकता है, लेकिन पाना मुश्किल होगा.
ऐसे में पार्टी को एक ऐसे नेता की तलाश है, जो पूर्व प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी की तरह सभी वर्गों को ग्राह्य हो. उसमें नाम आता है मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का. शिवराजसिंह चौहान ही एकमात्र ऐसे नेता हैं, जिनकी छवि अपने राज्य में जितनी दमदार है, उतनी ही केंद्र में भी. सच तो यह है कि भारत में कुछ राजनेता ऐसे हैं, जो केंद्रीय राजनीति की मुख्यधारा में नहीं हैं, लेकिन केंद्रीय राजनीति उन्हीं के आसपास घूमती रहती है. ऐसे नेताओं में शिवराजसिंह चौहान का भी नाम है और भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व शिवराज को तराशकर उन्हें अगला अटल बिहारी बनाने में जुट गया है. केंद्रीय नेतृत्व को यह बात भलीभांति मालूम है कि क्षेत्रीय नेताओं में शिवराज ही ऐसे नेता हैं, जिन्होंने केंद्र और राज्य में विभिन्न पदों पर लंबे समय तक काम किया है.
रामनामी ओढ़कर राजनीति के मैदान में उतरी भाजपा अपनी सांप्रदायिक छवि से आजिज आ चुकी है, इसलिए वह अब अपनी छवि बदलने में लगी हुई है, इसके लिए उसे शिवराज सिंह चौहान के सेकुलर चेहर की जरूरत जरूरत है. भाजपा में लालकृष्ण आडवाणी, नितिन गडकरी, मरली मनोहर जोशी, अरुण जेटली, उमा भारती, राजनाथ सिंह, नरेंद्र मोदी आदि जितने कदावर नेता हैं, इन सबकी सांप्रदायिक छवि है. जब भाजपा हिंदू पार्टी थी. जब हिंदुओं को भाजपा ने आंदोलित किया था, तब दलित, फारवर्ड, जाट, किसान आदि सभी जातियों या वर्गों ने अपनी पहचान हिंदू की मानी थी. तब, जब आडवाणी ने राम रथयात्रा की थी. उस रियलिटी को भाजपा लीडरशिप ने आज इस दलील से खारिज किया हुआ है कि काठ की हांडी बार-बार नहीं चढ़ा करती. आज का समाज, आज का नौजवान और आज का हिंदू अयोध्या पुराण से आगे बढ़ चुका है. इसलिए जरूरत आज वाजपेयी बनने की है. पार्टियों को पटाने की है और 2014 के लिए एलांयस के जुगाड़ की है. ऐसे में पार्टी मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की सेकूलर छवि बनाने के लिए प्राणपण से जुट गई है. मुस्लिम वोटो को पटाने की कोशिश हो रही है.
दिल्ली के सियासी गलियारों में तो इनदिनों यह बयार बह रही है कि जहां लालकृष्ण आड़वाणी राजग के घोषित पीएम इन वेटिंग हैं तो शिवराज सिंह चौहान में अघोषित पीएम इन वेटिंग. मप्र के दिल्ली में पदस्थ आला अफसरान शिवराज सिंह चौहान को पीएम मैटेरियल बताने से नहीं चूक रहे हैं. गौरतलब है कि लगभग नौ साल पूर्व मप्र की एक महिला अधिकारी द्वारा राजा दिग्विजय सिंह को दिल्ली के सियासी गलियारों में पीएम मेटेरियल बताया जा रहा था. उस वक्त राजा दिग्विजय सिंह पीएम तो नहीं बन पाए अलबत्ता उन्हें सक्रिय राजनीति से दस साल का सन्यास अवश्य ही लेना पड़ा था. उधर भाजपा के अंदरखाने से छन छन कर बाहर आ रही खबरों पर अगर यकीन किया जाए तो बाहर से लाकर थोपे गए एक नेता के द्वारा शिवराज सिंह के मुलाजिमों के माध्यम से ही इस तरह का कैंपेन चलवाया जा रहा है ताकि मप्र के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को भाजपा के आला नेताओं के रडार पर लाया जा सके. वैसे भी उमा भारती की भाजपा में वापसी के बाद शिवराज सिंह चौहान के तेवर कुछ ढीले पड़ते दिख रहे हैं. कहा जा रहा है कि इसके पहले शिवराज सिंह चौहान के मुख्यमंत्री रहते ही मप्र के एक ताकतवर भाजपा नेता ने दिल्ली में अपनी पसंद के अधिकारियों की तैनाती करवाकर फील्डिंग मजबूत करवा दी थी.
दरअसल भाजपा लीडरशिप सिर्फ वाजपेयी के प्रधानमंत्रित्वकाल की याद में खोई हुई है. जिन्हें प्रधानमंत्री बनना है, वे भाजपा के रणनीतिकार है. और ये सत्ता का मूल मंत्र वाजपेयी की कथित स्वीकार्यता का मानते हंै. ऐसा था नहीं. भाजपा जिन 180 सांसदों की ताकत से सत्ता में आई थी, उसकी वजह हिन्दू लहर थी. मंदिर आंदोलन था. 180 सांसदों की जीत के पीछे दलित, जाट, किसान, फारवर्ड, बैकवर्ड का अलग-अलग मैनेजमेंट नहीं था बल्कि हिन्दू नारा था. इस कोर ताकत से 180 सांसद आए तो उसके बाद सरकार बनाने के लिए जरूरी 273 सांसदों की संख्या याकि 94 सांसदों वाले जयललिता और चंद्रबाबू जुड़ गए. पहली वजह भाजपा का 180 सांसदों का हिन्दू वोट बैंक था. उसी से भाजपा धुरी बनी. उस धुरी की तरफ पार्टियां खिंची चली आई. तब किसी ने यह नहीं कहां कि भाजपा जैसी कम्युनल पार्टी के साथ कैसे सत्ता साझेदार हो सकते हैं?
हिन्दू मूल के चाल,चेहरे और चरित्र की 180 सीटों की उस ताकत को भाजपा ने आज गंवाया हुआ है. उसकी भरपाई के लिए वह कभी दलित वोट जोडऩे, कभी किसान वोटों की राजनीति या कभी मुस्लिम को नाराज नहीं करने की उधेड़बुन में रहती है. मतलब भाजपा में 180 सीटों के बजाय बाद के 94 सांसदों के जुगाड़ वाले एलायंस पर फोकस है. अरुण जेटली, सुषमा स्वराज, राजनाथ सिंह आदि सभी मान कर चल रहे ह़ै कि सन् 2014 में 180 सीटें अपने आप आएगी. इसलिए प्रधानमंत्री बनने के लिए ज्यादा जरूरी बाकी 84 सांसदों के एलायंस पर पूरा फोकस बनाना है. अपनी स्वीकार्यता बनाना है. इन सबका फोकस पार्टियों और नेताओं को पटाने, मीडिया में वाजपेयी छाप इमेज बनवाने और मीडिया से जिम्मेवार पार्टी प्रचारित करवाने पर है. यह एप्रोच व्यक्तिवादी सोच से उपजी है. सेल्फ प्रमोशन की कारस्तानी है. सेल्फ प्रमोशन, मैनेजमेंट और सुविधा की राजनीति में भाजपा ऐसी ढ़ल गई है कि नागपुर से आए नितिन गडकरी को भी दिल्ली में यह तर्प जंचा है कि नरेंद्र मोदी, वरुण गांधी, उमा भारती, डॉ.सुब्रह्मण्यम स्वामी जैसों को उतारना महंगा पड़ेगा. इसलिए इनदिनों सबकी नजर शिवराज सिंह पर है.
भाजपा में हर कोई प्रधानमंत्री बनने के ख्याल में खोया हुआ है तो वजह यह सोच है कि सन् 2014 तक कांग्रेस पूरी तरह बर्बाद होगी. पर ये यह नहीं सोच रहे है कि कांग्रेस के बरबाद होने से भाजपा कहां आबाद हो रही है? भाजपा ले दे कर मप्र, गुजरात, राजस्थान, कर्नाटक हिमाचल, जैसे सात-आठ राज्यों की 140 सीटों वाली पार्टी है. भाजपा का 2014 का लोकसभा चुनाव महज सवा दो सौ सीटों का बनता है. इसमें भी आधी से ज्यादा सीटों पर उसे एंटी इनकंबेसी का सामना करना पड़ेगा. पर यह रियलिटी गडकरी, जेटली, सुषमा को दिखलाई नहीं देती है. इसलिए कि इनका फोकस मैनेजमेंट और इस जोड़-तोड़ पर है कि नीतिश कुमार, जयललिता, चंद्रबाबू या जगनमोहन या ममता या प्रफुल्ल महंत या मायावती से एलायंस बना सकने के लिए क्या किया जाएं? भाजपा की टॉप लीडरशिप का पूरा फोकस सन् 2014 में जैसे- तैसे प्रधानमंत्री पद के जुगाड़ का है. प्रधानमंत्री पद और सत्ता की आकांक्षा होना गलत बात नहीं है. पर आकांक्षा यदि मुंगेरी लाल के सपने जैसी हवाई हो तो उसमें क्या कुछ बन सकता है? भाजपा के तमाम नेता यह सोच कर बल्ले-बल्ले है कि कांग्रेस से हालात नहीं संभल रहे हैं इसलिए उनका अवसर है. पर क्या ऐसा है? यह तो उत्तर प्रदेश में होने वाले विधानसभा चुनाव में लग ही जाएगा.
उधर उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बसपा सुप्रीमो मायावती भी दावेदारी की हर तरह की संभावनाओं में आगे-आगे हैं. गठबंधन की राजनीति में अगर समीकरण ने साथ दिया तो सत्ता की बागडोर उनके हाथों में आ सकती है.

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