
सोमवार, 1 जुलाई 2013
मोदी और राजगणित

मातम में मार्केटिंग
उत्तराखंड की त्रासदी जहां अपनी भयावहता के लिए लोगों के जेहन में हमेशा जिंदा रहेगी तो दूसरी तरफ यह राजनीतिक वर्ग के एक हिस्से द्वारा मातम के इस मौके को भुना कर सस्ता प्रचार पाने की कोशिशों के लिए भी याद रखी जाएगी. इस तबाही के बाद से ही पूरे देश से लोग मदद के लिए आगे आए. विभिन्न राज्य सरकारों और नेताओं ने जहां शांतिपूर्वक और गरिमापूर्ण तरीके से सहायता राशि से लेकर राहत सामग्री उत्तराखंड पहुंचाई वहीं कुछ नेता ऐसे भी रहे जो इस मौके पर अपनी छवि चमकाने की कोशिश करते दिखे. टीवी कैमरों के सामने एक-दूसरे से गुत्थमगुत्था हुए कर्नाटक के टीडीपी और कांग्रेसी सांसदों की तस्वीरें यह बताने के लिए काफी थीं कि मातम के इस मौके को भुनाने की जद्दोजहद किस हद तक पहुंच गई है.
हालांकि इसकी शुरुआत तो त्रासदी के साथ ही हो गई थी, लेकिन दिन गुजरने के साथ यह और गहरी होती गई. सस्ती लोकप्रियता पाने की इस राजनीति को एक अलग ऊंचाई पर ले जाने का आरोप गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी पर भी लगा. इसकी शुरुआत उस खबर से हुई जिसके मुताबिक गुजरात सरकार ने एक दिन के भीतर ही उत्तराखंड आपदा में जगह-जगह फंसे 15 हजार गुजरातियों को सुरक्षित निकालकर उनके घर पहुंचा दिया था. इस काम के लिए मोदी को ‘रैंबो’ करार देते हुए एक अखबार ने दावा किया कि गुजरातियों को देहरादून के सुरक्षित स्थानों तक पहुंचाने के लिए 80 टोयोटा इनोवा गाड़ियां मंगाई गईं. लोगों को बचाने और सकुशल घर तक पहुंचाने के लिए चार बोइंग विमानों के साथ 25 लग्जरी बसों की भी सहायता ली गई. मोदी को महामानव बताने वाली यह खबर जंगल में आग की तरह फैल गई. विरोधी दल इस दावे को असंभव और हास्यास्पद ठहराते नजर आए तो मोदी समर्थक इसे उनकी काबिलियत का एक और प्रमाण बताते. गुजरात सरकार की तरफ से इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं आई.
लेकिन क्या सच में ऐसा हुआ था? सूत्रों की मानें तो 15 हजार लोगों को बचाने की खबर बड़ी हद तक कोरी अफवाह थी जो मोदी की पीआर एजेंसी एपको की तरफ से फैलाई गई थी. तहलका ने उत्तराखंड में राहत कार्य का काम देख रहे गुजरात सरकार के एक वरिष्ठ आईएएस अधिकारी संदीप कुमार से बात की तो उनका कहना था, '15 हजार का कोई आंकड़ा हमारे पास नहीं है. हां, हरिद्वार से अब तक लगभग 1,800 के करीब लोगों को गुजरात भेजा गया है. बड़ी संख्या में ऐसे लोग भी हैं जो राज्य सरकार नहीं बल्कि खुद के इंतजाम से वापस गुजरात गए हैं.'
हरिद्वार के शांति कुंज में गुजरात सरकार का सबसे बड़ा कैंप है. वहां के एक अधिकारी विष्णु पंड्या कहते हैं, '15 हजार लोगों को निकाले जाने की बात तो हमें नहीं पता है. हां, हमारे यहां से लगभग 2000 के करीब गुजराती लोगों को गुजरात सरकार ने अब तक अपनी व्यवस्था से गुजरात भेजा है.' हरिद्वार के अलावा देहरादून और ऋषिकेश में भी गुजरात सरकार के कैंप लगे हैं लेकिन ये कैंप हरिद्वार के कैंप से बेहद छोटे हैं. ऐसे में अगर हम बाकी दो अन्य कैंपों से भी 2000-2000 लोगों को जोड़ दें तो आंकड़ा छह हजार तक पहुंचता है, जो 15 हजार के आधे से भी कम है.
ऐसी खबरें भी आईं कि गुजरात सरकार ने गुजरात के लोगों को सीधा वहीं से बचाया जहां वे फंसे थे. लेकिन गुजरात सरकार की वेबसाइट पर 21 और 22 जून को बचाए गए जिन लोगों का नाम दर्ज है उनकी आपबीती कुछ और ही बताती है. उन्हीं लोगों में से एक विट्ठलभाई पटेल कहते हैं, ‘मैं गौरीकुंड में फंसा हुआ था. काफी संघर्ष के बाद सेना की मदद से किसी तरह हरिद्वार पहुंचा. वहां गुजरात सरकार के राहत कैंप में संपर्क किया. फिर वहां से उन्होंने आगे अहमदाबाद जाने के लिए मेरी मदद की.’ यही कहानी मयूर शाह की भी है. वे जोशीमठ में फंसे थे. शाह बताते हैं,' वहां से हरिद्वार आने के लिए 15 हजार रुपये में प्राइवेट टैक्सी की. गुजरात सरकार के कुछ अधिकारियों से हमारी फोन पर जरूर बात हुई थी लेकिन हरिद्वार तक हम अपनी व्यवस्था से ही पहुंचे थे. बाद में सरकार के राहत शिविर की तरफ से हमें अहमदाबाद भेजने की व्यवस्था की गई.'
यही व्यवस्था लगभग हर राज्य सरकार ने की है. यानी सेना लोगों को जहां वे फंसे होते हैं वहां से बचाकर हरिद्वार और देहरादून जैसे बेस कैंपों तक लाती है. फिर वहां लोग अपने-अपने राज्यों द्वारा लगाए गए राहत शिविरों में जाते हैं या फिर अन्य शिविरों में. गुजरात सरकार ने भी ऐसा ही किया. लेकिन विभिन्न माध्यमों से ऐसी खबरें आईं मानो बाढ़ में फंसे गुजरातियों को गुजरात सरकार ने चुन-चुन कर निकाला हो और फिर उन्हें उनके घर भेजा हो. अहम सवाल यह उठता है कि इस पूरे दुष्प्रचार में गुजरात सरकार की क्या भूमिका है. 15 हजार लोगों को बचाने का दावा न तो मोदी की तरफ से किया गया था और न ही गुजरात सरकार की तरफ से. वे यह कह कर अपना बचाव भी कर सकते हैं. लेकिन अगर उनकी तरफ से यह दावा नहीं था और इस दावे में उनकी सहमति नहीं थी तो जब इसको लेकर चारों तरफ चर्चा शुरू हुई तो उन्होंने इसका खंडन क्यों नहीं किया?
सूत्रों की मानें तो ये सारा किया-धरा उस पीआर एजेंसी का है जिस पर गुजरात सरकार और मोदी की छवि को चमकाने की जिम्मेदारी है. कहा जा रहा है कि पीआर एजेंसी ने ही यह खबर मीडिया में प्लांट कराई जिससे गुजरात सरकार और मोदी को ‘रैंबो’ दिखाया जा सके. लेकिन आंकड़ों को लेकर गड़बड़ी हो गई इसलिए दावों का दांव उल्टा पड़ गया और स्थिति हास्यास्पद हो गई. उत्तराखंड पहुंचने के बाद मोदी के केदारनाथ मंदिर बनवाने की पेशकश की भी विभिन्न हलकों में आलोचना हुई. भाजपा नेता और मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने इस प्रस्ताव पर मांगी गई प्रतिक्रिया के जवाब में मीडिया से कहा, 'पहले लोगों को बचाना जरूरी है. घर बनाना जरूरी है. मंदिर बाद में भी बन जाएगा.'
मोदी की आलोचना इस बात के लिए भी हुई कि जो राज्य खुद के सबसे ज्यादा संपन्न होने का दम भरता है उसने उत्तराखंड की इस त्रासदी पर शुरुआत में सिर्फ दो करोड़ रुपये का सहयोग देने की घोषणा की. दूसरी तरफ देखें तो उत्तर प्रदेश ने 25 करोड़ रुपये, महाराष्ट्र, दिल्ली व हरियाणा ने 10-10 करोड़ रुपये और मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, बिहार, कर्नाटक, छत्तीसगढ़, ओडि़शा जैसे राज्यों ने पांच-पांच करोड़ रुपये की सहायता राशि भेजी. हरियाणा ने तो 25 गांवों को गोद लेने का भी एलान किया. इसके साथ ही वह पहला ऐसा राज्य भी बना जिसने इस त्रासदी में बराबर के शिकार बेजुबानों की सुध ली. हरियाणा ने आपदा से प्रभावित पशुओं के इलाज के लिए दवाओं के साथ डॉक्टरों की एक टीम भी भेजी है.
उत्तर प्रदेश की अखिलेश यादव सरकार ने 25 करोड़ रुपये की सहायता राशि देने के साथ ही राज्य परिवहन की 300 बसें फंसे हुए यात्रियों को ले आने के लिए भेज दीं. साथ में डॉक्टरों का एक बड़ा दल भी प्रभावितों के इलाज के लिए उत्तराखंड रवाना किया. भाजपा शासित मध्य प्रदेश ने त्रासदी के कुछ समय बाद ही राज्य के संस्कृति मंत्री के साथ एक सात सदस्यीय टीम को देहरादून रवाना किया. इसके साथ ही राज्य के लोगों को वहां से लाने के लिए सरकार ने ट्रेन के साथ ही सरकारी और प्राइवेट विमानों का भी इंतजाम किया. इस तरह से उत्तराखंड में आई बाढ़ के बाद राहत को लेकर विभिन्न राज्यों की भूमिका को देखें तो बाकी के राज्य राहत पहुंचाने के मामले में गुजरात से कहीं आगे दिखाई देते हैं. हां, यह जरूर है कि उन्होंने इसका ढिंढोरा नहीं पीटा और न अपनी ‘महानता’ की खबरें फैलाईं.
मातम की मार्केटिंग के लिए सिर्फ मोदी की ही आलोचना नहीं हुई बल्कि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और पार्टी महासचिव राहुल गांधी भी आलोचना के घेरे में आए. त्रासदी के आठ दिन बाद तक राहुल गांधी का न तो इस हृदयविदारक घटना पर कोई बयान आया और न ही वे कहीं दिखाई दिए. सोशल मीडिया से लेकर बाकी जगहों पर जब हो-हल्ला मचा तो कुछ दिन बाद वे सोनिया गांधी के साथ कांग्रेस दफ्तर के पास राहत सामग्री लेकर जाने को तैयार ट्रकों को झंडा दिखाते दिखे. लेकिन इसके बाद खबरें आईं कि ट्रक तीन दिन पहले से राहत सामग्री लेकर तैयार खड़े थे, लेकिन राहुल के देश से बाहर होने के कारण उन्हें रवाना नहीं किया गया. खैर, ट्रक जैसे-तैसे गए, लेकिन आधे रास्ते में जाकर वे फिर से खड़े हो गए. उनके ड्राइवरों के हवाले से बताया गया कि उन्हें इतना ही डीजल दिया गया था.
तिरस्कार की मार
बात सितंबर, 1893 की है. उत्तराखंड के चमोली में बहने वाली बिरही नदी में एक पहाड़ गिर गया. बिरही आगे जाकर अलकनंदा में मिलती है जिसके भागीरथी में मेल के बाद बनी धारा को गंगा कहा जाता है. बिरही में पहाड़ गिरने से एक विशाल झील बन गई. ताल के एक छोर पर गौणा गांव था और दूसरे पर दुर्मी तो कोई इसे गौणा ताल कहता और कोई दुर्मी ताल. तब के शासकों यानी अंग्रेजों ने उस ताल से पैदा हुआ खतरा भांपते हुए दुर्मी में एक तारघर खोल दिया. तारघर से एक अंग्रेज कर्मचारी हर रोज पानी के स्तर की जानकारी नीचे बसे गांवों में भेजता. आशंका गलत नहीं थी. एक साल बाद 16 अगस्त 1894 को भारी बारिश और पहाड़ धसकने से ताल का एक हिस्सा टूट गया. कुछ सालों बाद इस ताल का अध्ययन करने आए स्विस भूगर्भ वैज्ञानिकों के मुताबिक इस चार किमी लंबे, एक किमी चौड़े और 300 मीटर गहरे गौणा ताल में करीब 15 करोड़ घन मीटर पानी था. अनुमान है कि ताल टूटने के बाद भारी मात्रा में पानी बिरही की संकरी घाटी से होते हुए चमोली, कर्णप्रयाग, रुद्रप्रयाग, श्रीनगर, ऋषिकेश और हरिद्वार की ओर बढ़ा होगा. दस्तावेजों के मुताबिक उस भारी जल प्रवाह से भले ही अलकनंदा घाटी में खेती और संपत्ति को भारी नुकसान हुआ, लेकिन मौत सिर्फ एक हुई थी. वह भी उस साधु की जो लाख समझाने के बावजूद जलसमाधि लेने पर अड़ा हुआ था.
यानी नुकसान इसलिए बहुत कम हुआ कि संकट को समझने और उससे बचने के लिए समय पर सटीक उपाय करने की अंतर्दृष्टि दिखाई गई थी. ताल बनते ही बचाव के उपाय शुरू हो गए थे. अंग्रेज तुरंत सूचना भेजने और लोगों को चौकन्ना करने की व्यवस्था की अहमियत समझते थे इसलिए उन्होंने तब दुर्लभ मानी जाने वाली लगभग 100 मील लंबी तार लाइन भी बना ली थी. कई दशक बाद 20 जुलाई, 1970 को ताल पूरी तरह से टूट गया. बेलाकूची नाम का एक गांव इस जल प्रलय में बह गया. उस समय भी कई यात्री गाड़ियों के बहने और कुल 70 मौतें होने की बात रिकॉर्ड में दर्ज है. यह आजाद भारत का किस्सा है.
आज देश को आजाद हुए करीब 66 साल हो चुके हैं. उत्तराखंड को अलग राज्य बने भी 13 साल हो गए. लेकिन लगता है कि ऐसी आपदाओं को संभालने के मामले में हम एक मायने में 1893 से भी पीछे चले गए हैं. केदारनाथ में आए जलप्रलय का कारण बना गांधी सरोवर यानी चौरबाड़ी ताल केवल 400 मीटर लंबा और 100 मीटर चौड़ा था. इसकी गहराई अधिकतम दो मीटर थी. यानी गौणा ताल की तुलना में इसका आकार एक तलैया से अधिक नहीं था. फिर भी इससे हुई तबाही ने करीब सवा सदी पहले हुई उस तबाही को कहीं पीछे छोड़ दिया. अब तक 1000 से अधिक मौतों और कई हजार करोड़ रु के नुकसान की पुष्टि हो चुकी है.
वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी के वैज्ञानिक डॉ मनीश मेहता के शोध पत्र के अनुसार चौरबाड़ी ताल 3000 साल पुराना था. इसके किनारे थामने वाला मौरेन (हिमनदों का चट्टानरूपी अवक्षेप) 100 मीटर मोटाई का था, लेकिन यह कुछ सालों से रिस भी रहा था. ताल के नीचे रोज हजारों यात्री आते थे फिर भी सरकार ने न तो इसके टूटने की संभावनाओं को परखा और न बचाव के उपाय किए. उत्तरकाशी में दो साल से तबाही का कारण बन रही असिगंगा का मूल स्रोत भी डोडीताल नाम का एक तालाब ही है.
आज सूचना और आवागमन के साधन हर जगह मौजूद हैं. लेकिन उनका प्रयोग करके भी इस आपदा के असर को कम नहीं किया जा सका. दरअसल आपदा के पहले और बाद में जो हुआ उसे गहराई से देखें तो इसका सीधा कारण व्यवस्था थामने वालों में जिम्मेदारी की भावना और संवेदनशीलता का अभाव दिखता है. वहीं, आम जनता भी परंपरागत ज्ञान और जीवन पद्धति को याद रखती तो नुकसान इतना ज्यादा नहीं होता. आगे जो दर्ज है वह बताता है कि परंपरागत ज्ञान और आधुनिक कानून का उत्तराखंड में जो तिरस्कार हुआ है, एक समाज के रूप में उसकी कीमत चुकाने के लिए हम अभिशप्त हैं.
किसी भी नेतृत्व की असली परीक्षा संकट में होती है. इस लिहाज से देखा जाए तो हाल की आपदा के दौरान जो हुआ उसने उत्तराखंड सरकार की पोल खोल दी है. सरकार का कहना है कि उसे ऐसी आपदाओं से निपटने का कोई अनुभव नहीं है. लेकिन सच यह है कि जो गंभीरता और इच्छाशक्ति उस अनुभव के लिए जरूरी है वही इस त्रासदी के दौरान उसके व्यवहार में गायब दिखी. ऐसी आपदा के लिए अलग और बड़ी व्यवस्था तो दूसरी बात है, राज्य के राजनीतिक और प्रशासनिक नेतृत्व को यही पता नहीं कि जो संसाधन उसके पास उपलब्ध हैं उनका ही इस्तेमाल ऐसे संकट में अच्छी तरह से कैसे किया जाए.
सरकार भले ही तर्क दे कि यह तो अचानक आई आफत थी, पर सच यह है कि यह आपदा न तो दबे पांव आई थी और न ही उत्तराखंड ने ऐसी आपदा पहली बार देखी है. यहां बादल फटने और भूस्खलन का इतिहास रहा है. फिर मौसम विभाग ने पहले ही चेतावनी के संकेत दे दिए थे. प्रकृति ने भी कई इशारे करते हुए धीरे-धीरे ही विकराल रूप धारण किया था. पर न तो समय रहते चेता गया और न ही आपदा के शुरुआती दिनों में सरकार ने पर्याप्त गंभीरता दिखाई. नतीजा सबके सामने है.
केदारनाथ की घटना भले ही 16-17 जून को हुई हो लेकिन 13 जून से ही पहाड़ों में भारी बारिश से हजारों यात्रियों का जगह-जगह फंसना शुरू हो गया था. समय से 15 दिन पहले उत्तराखंड पहुंच गए मानसून की मोटी बौछारों ने माहौल में चिंता घोल दी थी. 15 जून को मौसम विभाग ने फिर अगले 48 से लेकर 72 घंटों तक भारी वर्षा की भविष्यवाणी कर दी थी. ऐसा ही हुआ भी. 15 जून की शाम तक ही नदियां उफान पर आ गई थीं और रुद्रप्रयाग जिले में फाटा, रामपुर, सीतापुर आदि जगहों पर टूट-फूट और जनहानि की घटनाएं दर्ज होने लगी थीं.
लेकिन आपदा के सारे संकेतों के बावजूद मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा 16 जून को दिल्ली के लिए रवाना हो गए. उसी दिन दोपहर बाद उत्तरकाशी में भागीरथी के उफनते पानी ने नदी किनारे बने चार-चार मंजिला घरों को ध्वस्त करना शुरू कर दिया. 16 जून की ही रात साढ़े आठ बजे भारी बारिश के बाद आए पानी के सैलाब ने केदारनाथ के एक हिस्से को तो बहाया ही, उससे सात किमी नीचे रामबाड़ा और 14 किमी नीचे गौरीकुंड का बड़ा हिस्सा भी साफ कर दिया. सूत्र बताते हैं कि पानी और मलबे के इस पहले वेग ने ही केदारनाथ से लेकर 20 किमी नीचे घाटी में बसे सीतापुर तक मरने वालों का आंकड़ा तीन अंकों में पहुंचा दिया था. कई पुल और मकान बह गए थे. इन सभी घटनाओं की सूचना जिला प्रशासन और प्रदेश सरकार को थी. रामबाड़ा से रात को अंतिम बार पुलिस वायरलेस से संपर्क हुआ था. यात्रियों ने भी अपने-अपने घरों में इस जलजले की सूचना पहुंचा दी थी. भागीरथी, उसकी सहायक नदियों और मंदाकिनी नदी से हो रहे विनाश की खबरों से स्थानीय लोगों, यात्रियों और उनके परिजनों की बेचैनी बढ़ रही थी. उफनाई अलकनंदा, मंदाकिनी, भागीरथी और असीगंगा नदियां खतरे के निशानों से कई मीटर ऊपर बह रही थीं. इन सबसे मिलकर बनने वाली गंगा हरिद्वार में खतरे के निशान से ऊपर बह रही थी. 16 जून तक राज्य में 123 सड़कों के टूटने की सरकारी सूचना थी.
लेकिन इस सबसे निर्लिप्त मुख्यमंत्री बहुगुणा देश की राजधानी दिल्ली में बैठकर प्रदेश का हाल-चाल ले रहे थे. 17 जून को वे देहरादून वापस आए. उस दिन सुबह करीब आठ बजे तक जल प्रलय से केदारनाथ और उसके नीचे के क्षेत्र पूरी तरह से तबाह हो गए थे. लेकिन उस दिन हुई राज्य मत्रिमंडल की बैठक में मुख्यमंत्री ने कैबिनेट के सहयोगी मंत्रियों से इस जल प्रलय से हुई तबाही पर कोई चर्चा नहीं की. इससे लगता है कि मुख्यमंत्री इस आपदा से या तो खुद ही निपटना चाहते थे या वे अपने सहयोगियों की राय को महत्वहीन समझते हैं. यही नहीं, प्रत्येक राज्य की सरकार हर दिन केंद्रीय गृह मंत्रालय की आपदा प्रबंधन डिवीजन को उस दिन राज्य में हुई आपदाओं और फौरी नुकसान की सूचना भेजती है. रिकॉर्ड बताते हैं कि 16 और 17 जून को उत्तराखंड सरकार ने राज्य में आपदा से जान-माल की कोई हानि नहीं दिखाई है. राज्य में 17 जून तक केदारनाथ तबाह हो गया था. फिर भी राज्य सरकार क्यों ये सूचनाएं नहीं भेज रही थी या छिपा रही थी, कोई नहीं जानता.
17 जून तक केदारनाथ पूरी तरह तबाह हो गया था लेकिन उस दिन हुई राज्य मत्रिमंडल की बैठक में मुख्यमंत्री ने इस विषय पर कोई चर्चा नहीं की
18 जून को मौसम साफ हो गया था. राज्य सरकार के एक मंत्री और कुछ अधिकारी केदारनाथ की हवाई यात्रा करके देहरादून पहुंच गए थे. उनके द्वारा दी गई तस्वीरों से केदारनाथ की तबाही की खबर सार्वजनिक हो गई थी. इतनी बड़ी तबाही देखकर कई राज्यों के अधिकारी उसी दिन शाम तक देहरादून पहुंच गए थे और किसी भी तरह अपने प्रदेश से आए यात्रियों से संपर्क बनाने की कोशिश में लगे थे. लेकिन दूसरी ओर उत्तराखंड सचिवालय में आम दिनों की तरह ही कामकाज दिख रहा था. आपदा प्रबंधन विभाग से जुडे़ शासन के एक अधिकारी अकेले बचाव, राहत और समन्वय की जिम्मेदारी तो देख ही रहे थे, अपने मोबाइल पर कई राज्यों के लोगों की आशंकाएं भी शांत कर रहे थे. यानी देश-दुनिया को परेशान करने वाली आपदा के बचाव और राहत कार्य में न तो अतिरिक्त अधिकारी ही लगाए गए थे और न ही कर्मचारी. अगले दो दिन तक राज्य आपदा प्रबंधन केंद्र का यही हाल रहा.
18 जून को ही मुख्यमंत्री ने केदारनाथ और उत्तरकाशी के आपदा प्रभावित क्षेत्रों का दौरा करने के बजाय राजधानी देहरादून में अपने प्रिय दो विधायकों के क्षेत्रों में ढहे पुश्तों का जायजा लेना उचित समझा. 19 जून को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के आपदाग्रस्त इलाकों के हवाई सर्वेक्षण से पहले बहुगुणा ने पहली बार आपदा प्रभावित क्षेत्रों में से कुछ का हवाई दौरा किया. उस दिन राज्य के एक बड़े अधिकारी ने हवाई सर्वेक्षण करने के बाद बचाव कार्य और फंसे हुए लोगों को निकालने की रणनीति बताने के बजाय यह बयान दिया कि उन्होंने सारे प्रदेश का दौरा कर लिया है और केंद्र के साथ हुई बैठक में राहत और पुनर्निर्माण के लिए तीन हजार करोड़ रु का प्रस्ताव भेज दिया है. इस बयान से समझा जा सकता है कि उस दिन राज्य सरकार की प्राथमिकता क्या थी. दरअसल उत्तराखंड में आपदा राहत के लिए केंद्र से ज्यादा से ज्यादा धन मांगने और वह धन आने के बाद उसकी बंदरबांट का पुराना और हर पार्टी का इतिहास है.
प्रधानमंत्री और सोनिया गांधी के दौरे और अन्य प्रदेशों के मुख्यमंत्रियों-मंत्रियों-अधिकारियों के देहरादून में डेरा डालने से उत्तराखंड सरकार थोड़ी हरकत में तो आई, लेकिन उसके पास बचाव और राहत कार्य संचालित करने की न तो कोई निश्चित रूपरेखा थी और न कोई प्रबंधन तंत्र. तब तक दिल्ली में केंद्र सरकार की हाई पावर कमेटी सहित कई बैठकें हो चुकी थीं. कांग्रेस पार्टी के दिग्गज भी दिल्ली में बैठक कर चुके थे. लेकिन उत्तराखंड में मुख्यमंत्री अपने दो सहयोगियों और एक बड़े अधिकारी के साथ ही आपदा से निपटने की कोशिश में लगे थे. आपदा के बाद अभी तक एक बार भी राज्य में बड़े निर्णय लेने के लिए कैबिनेट बैठक नहीं हुई. ये मंत्री और कुछ विधायक हेलीकाप्टरों में यहां-वहां उड़ कर महत्वपूर्ण समय और संसाधन बर्बाद कर रहे थे. इन्हीं दिनों दुर्गम पहाड़ों में मौत से जूझती हजारों जानें बचने की एक आस में ऊपर उड़ रहे इन हेलीकाप्टरों को टुकुर-टुकुर देख रही होंगी. 20 जून की रात मुख्यमंत्री ने कैबिनेट के कुछ सहयोगियों से अलग-अलग जिलों की कमान संभालने को कहा. वे 21 जून तक ही प्रभावित क्षेत्रों तक पहुंच पाए. तब तक पांच दिन बीत चुके थे.
राजनीतिक नेतृत्व की तरह प्रशासनिक नेतृत्व भी सुस्त और दिशाहीन दिखा. 18 जून को केदारनाथ की स्थिति देखने के बाद रुद्रप्रयाग के जिलाधिकारी बीमार होकर देहरादून स्थित अस्पताल में भर्ती हो गए थे. अगले चार दिन तक जिला बिना जिलाधिकारी के ही रहा. उनका काम देखने के लिए ऐसा कोई प्रशासनिक अधिकारी तैनात नहीं किया गया जो अनुभवी हो और प्रशासन, सेना, आईटीबीपी और केंद्र सरकार के वरिष्ठ अधिकारियों से समन्वय की क्षमता रखता हो. नतीजतन कि सारी व्यवस्थाएं चरमरा गईं और सूचना तंत्र फेल हो गया. सेना और आईटीबीपी युद्ध-स्तर पर बचाव का काम तो कर रही थी, लेकिन कौन फंसा है, कौन आ गया, किसे अस्पताल भेजा गया है, कौन मर गया है, यह बताने के लिए कोई व्यवस्था नहीं बन पाई. केदारनाथ, गौरीकुंड, सोनप्रयाग, फाटा और गुप्तकाशी में पांच दिन तक कोई डिप्टी कलेक्टर तक तैनात नहीं किया गया जो राजधानी देहरादून तक सही स्थिति बताता और उसके अनुसार आगे की योजना तय होती.
देश-दुनिया में इतने शोर के बाद भी प्रदेश के राजनीतिक नेतृत्व और शीर्ष नौकरशाही की आंख नहीं खुल रही थी. सूत्र बताते हैं कि आपदा के पहले ही दिन से राज्य के कई युवा अधिकारी आगे बढ़कर आपदाग्रस्त क्षेत्रों में जाकर काम करने की इच्छा अपने बड़े अधिकारियों को बता चुके थे , लेकिन उनसे काम लेने को कोई तैयार ही नहीं था. उत्तरकाशी स्थित दुनिया भर में चर्चित नेहरू पर्वतारोहण संस्थान में ऊंचे हिमालयी इलाकों में बचाव और राहत का विशेष प्रशिक्षण दिया जाता है. जब 18 जून तक यहां कोई सरकारी आदेश नहीं पहुंचा तो संस्थान के अधिकारी खुद ही प्रशिक्षकों सहित 110 बचाव विशेषज्ञों की सूची लेकर जिलाधिकारी के पास गए और उनसे बचाव कार्य में लगने की इजाजत मांगी. इसके बाद उन्होंने जिले के अलग-अलग इलाकों से करीब 46 विदेशियों सहित करीब 6,500 लोगों को बचाया. साफ था कि सरकार अपने ही संसाधनों की अहमियत से अनजान थी. अव्यवस्था और देश भर में हो रही बदनामी के बीच केंद्रीय गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे ने माना कि समन्वय में कमी है. इस बीच केंद्र ने आपदाग्रस्त क्षेत्रों में स्थानीय प्रशासन की मदद के लिए कुछ युवा परिवीक्षाधीन अधिकारी भेजे.
इतना सब होने के बाद 21 जून की शाम शासन ने राज्य के 12 युवा अधिकारियों को अलग-अलग आपदाग्रस्त क्षेत्रों में नोडल अधिकारियों के रूप में तैनात करने के आदेश जारी किए. ये अधिकारी 22 जून की रात या 23 जून दोपहर तक किसी तरह इन दुर्गम क्षेत्रों तक पहुंचे. तब तक तबाही हुए छह दिन बीत गए थे, लोगों को बचाने और उनके परिजनों को सांत्वना व सूचना देने का समय जा चुका था. आपदा कभी शोर मचा कर नहीं आती, लेकिन राजनीतिक और प्रशासनिक गंभीरता से उसकी आहट सुनी जा सकती है. उससे निपटने की तैयारी पहले से की जा सकती है. इस बार भी राज्य में ही मौजूद संसाधनों के जरिये अविलंब मदद पहुंचाकर कई जिंदगियां बचाई जा सकती थीं. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. इस बात का जवाब किसी के पास नहीं कि संकट की ऐसी घड़ी में उत्तराखंड की सरकार को अहम निर्णय लेने में पांच-छह दिन क्यों लगे. अब यह हाल था तो आम दिनों में वह कैसे काम करती होगी, अंदाजा लगाया जा सकता है.
नाम का मनरेगा!
राजधानी भोपाल के सीहोर रोड पर बन रही एक गगनचुंबी इमारत के नीचे कुछ मजदूर परिवारों ने ईंटों की अस्थायी चारदीवारी बना ली है. इन्हें अंदाजा है कि वे कुछ महीनों तक यहीं रहेंगे. ठीक से हिंदी न बोल पाने वाले ये सभी लोग धार जिले की डही जनपद पंचायत के भिलाला आदिवासी हैं और अपने घर में भूखों मरने से बचने के लिए 500 किलोमीटर का सफर तय करके यहां तक पहुंचे हैं.
मार्च के बाद प्रदेश में खेतीबाड़ी के काम बंद हो जाते हैं. इसके बाद मजदूरों को काम की सबसे ज्यादा जरूरत पड़ती है. कुछ सालों पहले तक इन दिनों में निमाड़, मालवा सहित बाकी आदिवासी अंचल के लाखों लोग पड़ोसी राज्य गुजरात और महाराष्ट्र के बड़े शहरों की ओर कूच कर जाते थे. किंतु महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गांरटी योजना आने के बाद उनका हर साल का यह क्रम टूट गया. उन्हें गांव में ही काम मिलने लगा. इसीलिए पिछले छह साल में प्रदेश से अप्रैल, मई और जून के महीनों में होने वाला पलायन रुक-सा गया था. धार जिले के डही पंचायत के ही सुगरलाल बताते हैं कि उनके लिए यह योजना मुसीबत के दिनों में घर चलाने का अच्छा जरिया बन गई थी. मगर इस साल एक अप्रैल के बाद से उनकी पंचायत में किसी को एक दिन का भी काम नसीब नहीं हुआ. इसलिए एक बार फिर आस-पास के गांव के गांव खाली हो गए हैं.
दरअसल मध्य प्रदेश में सतपुड़ा और विंध्याचल की पहाड़ियों के बीच बसे लाखों लोगों के लिए काम की उम्मीद जगाने वाली मनरेगा इस वित्तीय वर्ष में अकाल मौत के मुंह में चली गई है. हालत यह है कि जिन महीनों में कई सौ करोड़ रुपये खर्च होने चाहिए थे, उनमें यह आंकड़ा अभी तक पचास करोड़ रुपये तक भी नहीं पहुंचा. नतीजा यह कि मनरेगा से बेदखल लोग जिंदा रहने के लिए सालों पुरानी परंपरा यानी पलायन पर लौट आए हैं. आधे दशक के बाद प्रदेश के लाखों मजदूर काम की तलाश में अब फिर से इधर-उधर भटक रहे हैं.
मध्य प्रदेश पंचायत और ग्रामीण विकास विभाग के आंकड़े अभी सार्वजनिक नहीं हुए हैं. लेकिन तहलका के पास मौजूद विभाग की ताजा रिपोर्ट के आंकड़े काफी चौंकाने वाले हैं. बीते साल अप्रैल से जून तक मनरेगा में 12 सौ करोड़ रुपये खर्च हुए थे. इस साल सरकार ने इस अवधि के लिए अनुमानित राशि 16 सौ करोड़ रुपये रखी थी. पर हैरानी की बात है कि इस साल अप्रैल से अब तक मप्र के सभी 50 जिलों में 25 करोड़ रुपये भी खर्च नहीं हुए. दूसरे शब्दों में मनरेगा के तहत हर साल इन तीन महीनों में खर्च की जाने वाली राशि का यह दो प्रतिशत पैसा भी नहीं है. ऐसा तब है जब बीते साल धार और बालाघाट जैसे एक-एक आदिवासी जिले में सौ-सौ करोड़ रुपये का काम हुआ था. यही वजह है कि इस बार मनरेगा का पैसा गांवों तक नहीं पहुंचने से जहां गांवों में विकास का काम ठप पड़ा है वहीं जिस संख्या में ग्रामीण गांवों से पलायन कर रहे हैं उसे भांपते हुए विभाग के होश उड़ गए हैं. लिहाजा बीती 27 मई को विभाग आयुक्त ने सभी कलेक्टरों को यह फरमान भेजा है कि वे कैसे भी राज्य के 20 लाख मजदूरों को पलायन से रोकें.
सवाल उठता है कि बीते सालों तक जो योजना ठीक-ठाक चल रही थी वह यह साल शुरू होने से पहले ही ठप क्यों हो गई. दरअसल ऐसा हुआ राजधानी भोपाल में बैठे चंद अदूरदर्शी नौकरशाहों के चलते. इन्होंने मनरेगा को हाईटेक बनाने के लिए इस साल जनवरी में बिना तैयारी के सभी जिलों में ई-वित्तीय प्रबंधन लागू कर दिया. इसके लिए उन्हें लाखों मजदूरों के खातों को न केवल राष्ट्रीयकृत बैंक से जुड़वाना था बल्कि उन खातों को ‘नरेगा सॉफ्ट’ नामक सॉफ्टवेयर में डलवाते हुए सभी का ई-मस्टर (कम्प्यूटर पर मजदूर की मजदूरी का ब्योरा) बनवाना था. प्रदेश में मनरेगा के 50 लाख से ज्यादा मजदूर हैं, इस लिहाज से एक जिले के एक लाख मजदूरों के खाते बैंकों में खुलवाना इतना बड़ा काम था जिसे कुछ दिनों में कर पाना संभव नहीं था. यह सारा काम मार्च तक हो जाना था, लेकिन नहीं हुआ. इस तरह योजना का सारा काम रुक गया और इसका खामियाजा बेकसूर मजदूरों को भुगतना पड़ा.
प्रदेश में इसके पहले 13वें वित्त आयोग और राज्य वित्त आयोग की राशि ग्राम पंचायतों को सौंपी जाती थी और पंचायतें ग्रामसभा के जरिए निर्माण कार्य कराती थीं. मगर अब जबकि मनरेगा सहित सभी कामों के वित्तीय अधिकार से सरपंचों को बेदखल किया जा चुका है तो उनमें असंतोष है और इसलिए उन्होंने मार्च के बाद से मनरेगा से खुद को अलग कर लिया है.
इसके पहले मनरेगा के मामले में मध्य प्रदेश अव्वल राज्यों में गिना जाता था. बालाघाट, बैतूल और अनूपपुर जैसे जिलों को प्रधानमंत्री ने उत्कृष्ट प्रदर्शन के लिए अवॉर्ड भी दिया था. आज इन्हीं जिलों के लाचार मजदूर अधिकारियों से काम की गुहार लगा रहे हैं. इस मुद्दे पर कोई भी आला अधिकारी आधिकारिक जवाब नहीं देना चाहता. पंचायत और ग्रामीण मंत्री गोपाल भार्गव इस बारे में विभाग की अतिरिक्त प्रमुख सचिव अरुणा शर्मा से संपर्क साधने को कहते हैं. शर्मा मानती हैं कि मनरेगा के मामले में प्रदेश पिछड़ गया है. वे कहती हैं, ‘आने वाले दिनों में इसकी भरपाई कर ली जाएगी.’ सवाल है कि भरपाई होगी कैसे. आने वाले तीन महीने बारिश में निकल जाएंगे और उसके बाद का समय चुनावी सरगर्मियों में जाएगा.
वहीं एक वर्ग की सोच है कि मनरेगा में मनमानी, कामचोरी और अनियमितताओं के चलते भी राज्य में यह योजना बैठ गई. दिल्ली में बहस चल रही है कि मनरेगा के चलते किसानों को खेती के लिए मजदूर नहीं मिलते. जबकि राज्य में मनरेगा इतना फटेहाल है कि मजदूर मनरेगा में काम करने के बजाय शहर जाना चाहता है. बड़वानी में काम करने वाली सामाजिक कार्यकर्ता माधुरी कृष्णास्वामी बताती हैं कि मनरेगा में मजदूरों को एक तो आधा-अधूरा पैसा बांटा जाता है और उस पर भी यह उन तक छह महीने के बाद तक पहुंचता है. वे कहती हैं, ‘बीते कुछ सालों में ही मनरेगा में मजदूर आदिवासियों की तेजी से घटती संख्या उनका मोहभंग दिखाती है.’
मनरेगा के चलते बीते सालों तक मप्र के 52 हजार गांवों में सालाना साढ़े तीन हजार करोड़ रुपये आते थे. इसलिए यह योजना ग्रामीण अर्थव्यवस्था की अहम धुरी बन गई थी. भले ही यह पैसा मजदूरों के खातों से निकलकर छोटे-छोटे दुकानदारों तक पहुंचता था, लेकिन धनराशि का यह चक्र करीब दो करोड़ आबादी के बीच चलता था. इन दिनों यदि यह पैसा दिल्ली से प्रदेश के गांवों तक पहुंचता तो न केवल मजदूर परिवारों को काम मिलता बल्कि उनके खर्च की क्षमता भी बढ़ती. और इसका असर तीज-त्योहार और हाट बाजारों पर पड़े बिना नहीं रहता. लेकिन ऐसा नहीं होने से ग्रामीण इलाके के हाट बाजारों में जहां पिछले साल के मुकाबले लाखों रुपये की कम खरीदी हुई है वहीं इन बाजारों की रौनक भी उड़ी हुई है.
नेटवर्क के जरिए नक्सलवाद से लोहा
कहने को जम्मू-कश्मीर और छत्तीसगढ़ में 2,100 किलोमीटर का फासला हो, लेकिन वे इस मायने में एक जैसे हैं कि दोनों ही लंबे समय से अलगाववादी हिंसा की मार झेल रहे हैं. जम्मू-कश्मीर ने जहां आतंकियों से निपटने में मोबाइल फोन नेटवर्क का कुशलता से इस्तेमाल किया है वहीं छत्तीसगढ़ और दूसरे नक्सल प्रभावित राज्य अभी इस मामले में काफी पीछे हैं. अब केंद्र सरकार अपनी नक्सल विरोधी रणनीति के तहत इस कमी को दूर करने की योजना बना रही है. इसके तहत नौ नक्सल प्रभावित राज्यों में करीब 2,200 मोबाइल टावर लगाने की योजना है. ये टावर उन इलाकों में लगाए जाएंगे जो अभी तक किसी भी तरह के मोबाइल नेटवर्क के कवरेज से बाहर रहे हैं. गृह मंत्रालय के सूत्रों के मुताबिक यह परियोजना सुरक्षा बलों के लिए काफी उपयोगी साबित होगी जिन्हें घने जंगलों की मौजूदगी वाले करीब 80 नक्सल प्रभावित जिलों में नक्सलियों का पता लगाने में बहुत मुश्किल होती है.
दरअसल यह जम्मू-कश्मीर में किए गए प्रयोग की सफलता दोहराने की कोशिश है. 2003 में जब केंद्र ने इस राज्य में मोबाइल फोन सेवा शुरू करने का फैसला किया था तो सुरक्षा बलों और खुफिया एजेंसियों ने इसका काफी विरोध किया था. उन्होंने चेतावनी दी थी कि मोबाइल फोन से आतंकियों को फायदा होगा जो इसका इस्तेमाल बम धमाकों और आतंकी हमलों के बेहतर समन्वय के लिए करेंगे. ऐसा हुआ भी. मोबाइल सेवा का इस्तेमाल करके आतंकियों ने कई हमले किए, लेकिन जल्द ही यह रणनीति उल्टे उन पर भारी पड़ने लगी. श्रीनगर के एक सुरक्षा विशेषज्ञ बताते हैं, 'आतंकियों के मोबाइल सिग्नल और उनकी आपसी बातचीत रिकॉर्ड करके सुरक्षा बलों ने ज्यादातर आतंकियों का सफाया कर दिया. यानी आखिरकार तकनीक ने हमें ही फायदा पहुंचाया.'
आज घाटी में हाल यह है कि सक्रिय आतंकियों की संख्या 100 से भी कम रह गई है. 2003 में यह हजारों में थी. हाल की बात करें तो 2011 में मोबाइल फोन की वजह से ही सुरक्षा बलों को लश्कर-ए-तोएबा और जैश-ए-मोहम्मद के कुख्यात आतंकियों अब्दुल्ला उनी और हमाद तक पहुंचने में आसानी हुई और ये दोनों ही अलग-अलग मुठभेड़ों में मारे गए. 2012 में मोबाइल फोन नेटवर्क की निगरानी के चलते अब्दुल राशिद शिगन नाम के पुलिसकर्मी की गिरफ्तारी मुमकिन हुई. अब्दुल ने अपने एक साथी के साथ मिलकर एक ग्रुप बनाया था और इसने सुरक्षा बलों पर 13 बार हमले किए थे.
अब सरकार को उम्मीद है कि छत्तीसगढ़ सहित तमाम नक्सल प्रभावित राज्यों में भी मोबाइल कवरेज बढ़ाने से कुछ ऐसे ही नतीजे आएंगे. सूत्र बताते हैं कि टावर लगाने के लिए करीब 2,200 लोकशन भी तय कर लिए गए हैं और अगर यह योजना पूरी तरह से लागू होती है तो इस पर करीब तीन हजार करोड़ रु का खर्च आएगा. छत्तीसगढ़ में ऐसे करीब 500 लोकेशन हैं. संचार एवं सूचना प्रौद्योगिकी राज्यमंत्री किल्ली कृपारानी ने हाल ही में संसद को जानकारी दी कि प्रस्तावित 2,200 लोकेशनों में से 363 पर भारत संचार निगम लिमिटेड (बीएसएनएल) मोबाइल टावर लगा भी चुका है. छत्तीसगढ़ में बीएसएनएल ऐसे 351 नए टावरों को स्वीकृति दे चुका है. टावर लगाने के लिए 2000 या उससे ज्यादा आबादी वाले गांव चुने गए हैं.'
गौरतलब है कि गरीब और दुर्गम नक्सल प्रभावित इलाकों में पड़ने वाले ज्यादातर गांवों में मोबाइल सेवा नहीं है. इसकी एक वजह यह भी है कि निजी ऑपरेटरों को लगता है कि ये इलाके बिक्री के लिहाज से उतने फायदेमंद नहीं हैं. लेकिन जब नवंबर, 2011 में शीर्ष माओवादी नेता किशनजी को एक मुठभेड़ में मार गिराया गया और इसमें मोबाइल फोन के जरिए हुई निगरानी ने अहम भूमिका निभाई तो सरकार को समझ में आ गया कि अगर इन इलाकों में मोबाइल सेवा का विस्तार किया जाए तो इससे नक्सलवाद से निपटने में काफी मदद मिल सकती है. इसके बाद तुरंत ही नक्सल प्रभावित राज्यों में 500 से ज्यादा नए मोबाइल टावर लगाए गए.
हाल के समय में जिस तरह नक्सली मोबाइल टावरों को भी निशाना बनाते रहे हैं उससे भी साफ होता है कि उन्हें इनसे खतरा महसूस होता है. उन्हें डर है कि स्थानीय लोग उनकी गतिविधियों की सूचना देने के लिए मोबाइल फोन का इस्तेमाल कर सकते हैं जिससे सुरक्षा बलों को सटीक कार्रवाई में मदद मिल सकती है. आंकड़े उनके इस डर की गवाही देते हैं. एक अनुमान के मुताबिक 2008 में नक्सलियों ने 38 टावर उड़ाए थे जबकि 2011 में यह संख्या 71 हो गई.
इसीलिए गृह मंत्रालय नक्सलवाद से निपटने में मोबाइल नेटवर्क के इस्तेमाल की सोच रहा है. सूत्रों के मुताबिक पिछले कुछ समय से मोबाइल नेटवर्क और इंटरनेट से हो रहे संवाद पर निगरानी की एक एकीकृत व्यवस्था बनाने की दिशा में काम हो रहा है. हाल ही में 400 करोड़ रु की लागत से एक केंद्रीय निगरानी व्यवस्था बनाई गई है. इसकी मदद से केंद्रीय और राज्यों की खुफिया एजेंसियां कॉल रिकॉर्ड, संदेश और ईमेल प्राप्त कर सकेंगी और स्रोत एक ही होने की वजह से इस जानकारी में पहले से ज्यादा स्पष्टता होगी. इस व्यवस्था की मदद से मोबाइल फोनों और इंटरनेट से जुड़े कंप्यूटरों के लोकेशन का भी पता लगाया जा सकेगी. साफ है कि जितना ज्यादा नक्सल प्रभावित इलाका मोबाइल कवरेज में लाया जाएगा उतनी नक्सलियों की गतिविधियों के बारे में पुख्ता जानकारी मिलने की उतनी ही अधिक संभावना होगी.
हालांकि एक वर्ग इस पहल पर चिंता जता रहा है. कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं का मानना है कि मोबाइल फोन को बाकी देश से कटे गरीब आदिवासियों से संवाद बढ़ाने के बजाय नक्सल विरोधी रणनीति के हथियार की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है जो गलत है. दिल्ली स्थित एशियन सेंटर फॉर ह्यूमन राइट्स से जुड़े सुहास चकमा को लगता है कि सरकार अब तक विकास और नक्सलवाद के रिश्ते को ठीक से नहीं समझ पाई है. वे कहते हैं, 'इतने बड़े बुनियादी ढांचे को सिर्फ माओवादियों को ढूंढ़ने के लिए इस्तेमाल करना सिर्फ पैसे की बर्बादी होगी.'
पूर्व पत्रकार और मोबाइल आधारित एक समाचार सेवा सीजीनेटस्वर चलाने वाले शुभ्रांशु चौधरी कहते हैं, 'आदिवासी भारत और मुख्यधारा के बीच कोई संवाद नहीं है. मोबाइल फोन इस खाई को पाटने के लिए इस्तेमाल किए जा सकते हैं. अगर वे सिर्फ नक्सल विरोधी अभियानों के लिए इस्तेमाल होंगे तो मुझे पता नहीं कि इसका कितना फायदा होगा.'
छत्तीसगढ़ में सात साल बिता चुके और माओवादी समस्या को काफी नजदीक से देखने वाले चौधरी के मुताबिक छत्तीसगढ़ के आदिवासियों के लिए बाकी देश को अपनी आवाज सुनाना बहुत मुश्किल है. वे कहते हैं, 'ब्यूरोक्रेटों या नेताओं के अलावा राज्य में काम कर रहे ज्यादातर पत्रकार भी उनकी भाषा यानी गोंडी नहीं समझते. इसलिए जब लोग आदिवासी इलाकों से रिपोर्टिंग की कोशिश करते हैं तो ज्यादातर मौकों पर उन्हें उन लोगों द्वारा दी गई जानकारी से काम चलाना पड़ता है जो थोड़ी हिंदी या अंग्रेजी जानते हैं. इसलिए उन रिपोर्टों में उनकी अपनी आवाज नहीं होती.' हालांकि चौधरी को उम्मीद है कि नक्सल विरोधी रणनीति के तहत ही सही, इन इलाकों में मोबाइल सेवा बढ़ेगी तो इसका फायदा सुरक्षा एजेंसियों के अलावा आम आदिवासी को भी होगा जिसकी आवाज सुने जाने की संभावनाएं बढ़ जाएंगी.
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